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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


दिन का समय है और दोपहर ढल चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह अभी-अभी भोजन करके आये हैं और अपने कमरे में पलँग पर लेटे हुए पान चबाते हुए, अपने दोस्तों तथा लड़कों से हँसी-खुशी की बातें कर रहे हैं, जोकि महाराज से घण्टे-भर पहिले ही भोजन इत्यादि से छुट्टी पा चुके हैं।

महारज के अतिरिक्त इस समय इस कमरे में राजा बीरेन्द्रसिंह, कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और राजा गोपालसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पन्नालाल, रामनारायण, पण्डित बद्रीनाथ, चुन्नीलाल, जगन्नाथ ज्योतिषी, भैरोसिंह इन्द्रदेव और गोपालसिंह के दोस्त भरतसिंह भी बैठे हुए हैं।

बीरेन्द्र : इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो तिलिस्म मैंने तोड़ा था, वह इस तिलिस्म के सामने रुपये में एक पैसा भी नहीं है, साथ ही इसके जमानिया राज्य में जैसे-जैसे महापुरुष (दारोगा की तरह) रह चुके हैं, तथा वहाँ जैसी-जैसी घटनाएँ हो गयी हैं, उनकी नजीर भी कभी सुनने में न आवेगी।

गोपाल : इन बखेड़ों का सबब भी उसी तिलिस्म को समझना चाहिए, उसी का आनन्द लूटने के लिए लोगों ने ऐसे बखेड़े मचाये और उसी की बदौलत लोगों की ताकत और हैसियत भी बढ़ी।

जीत : बेशक, यही बात है, जैसे-जैसे तिलिस्म के भेद खुलते गये, तैसे-तैसे पाप और लोगों की बदकिस्मती का जमाना भी तरक्की करता गया।

सुरेन्द्र : हमें तो कमबख्त दारोगा के कामों पर आश्चर्य होता है, न मालूम किस सुख के लिए उस कमबख्त ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किये!!

भरत : (हाथ जोड़कर) मैं तो समझता हूँ कि दारोगा के कुकर्मों का हाल महाराज ने अभी बिल्कुल नहीं सुना, उसकी कुछ पूर्ति तब होगी, जब हम लोग अपना किस्सा बयान कर चुकेंगे।

सुरेन्द्र : ठीक है, हमने भी आज आपही का किस्सा सुनने की नीयत से आराम नहीं किया।

भरत : मैं अपनी दुर्दशा बयान करने के लिए तैयार हूँ।

जीत : अच्छा तो अब आप शुरू करें।

भरत : जो आज्ञा।

इतना कहकर भरतसिंह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया–

‘‘मैं जमानिया का रहनेवाला और एक जमींदार का लड़का हूँ। मुझे इस बात का सौभाग्य प्राप्त था कि राजा गोपासिंह मुझे अपना मित्र समझते थे, यहाँ तक कि भरी मजलिस में भी मित्र कहकर मुझे सम्बोधन करते थे और घर में भी किसी तरह का पर्दा नहीं रखते थे। यही सबब था कि वहाँ के कर्मचारी लोग तथा अच्छे-अच्छे रईस मुझसे डरते और मेरी इज्जत करते थे, परन्तु दारोगा को यह बात पसन्द न थी।

केवल राजा गोपालसिंह ही नहीं, इनके पिता भी मुझे अपने लड़के की तरह ही मानते और प्यार करते थे, विशेष करके इसलिए कि हम दोनों मित्रों की चाल-चलन में किसी तरह की बुराई दिखायी नहीं देती थी।

जमानिया में जो बेईमान और दुष्ट लोगों की जो एक गुप्त कमेटी थी, उसका हाल आप लोग जान ही चुके हैं, अतएव उसके विषय में विस्तार के साथ कुछ कहना वृथा ही है। हाँ, जरूरत पड़ने पर उसके विषय में इशारा मात्र कर देने से काम चल जायगा।

रियासतों में मामूली तौर पर तरह-तरह की घटनाएँ हुआ ही करती हैं इसलिए राजा गोपालसिंह को गद्दी मिलने के पहिले जोकुछ मुझपर बीत चुकी है, उसे मामूली समझकर मैं छोड़ देता हूँ और उस समय से अपना हाल बयान करता हूँ, जब इनकी शादी हो चुकी थी। इस शादी में जोकुछ चालबाजी हुई थी, उसका हाल आप सुन ही चुके हैं।

जमानिया की वह गुप्त कमेटी यद्यपि भूतनाथ की बदौलत टूट चुकी थी। मगर उसकी जड़ नहीं कटी थी, क्योंकि कमबख्त दारोगा हर तरह से साफ बच रहा था और कमेटी का कमजोर दफ्तर अभी भी उसके कब्जे में था।

गोपालसिंह की शादी हो जाने के बहुत दिन बाद एक दिन मेरे एक नौकर ने रात के समय जबकि वह मेरे पैरों में तेल लगा रहा था, मुझसे कहा कि ‘राजा गोपालसिंह की शादी असली लक्ष्मीदेवी के साथ नहीं, बल्कि किसी दूसरी ही औरत के साथ हुई है। यह काम दारोगा ने रिश्वत लेकर किया है और इस काम में सुबीता होने के लिए गोपालसिंहजी के पिता को भी उसी ने मारा है’।

सुनने के साथ ही मैं चौंक पड़ा, मेरे ताज्जुब का ठिकाना न रहा, मैंने उससे तरह-तरह के सवाल किये, जिनका जवाब उसने ऐसा तो न दिया, जिससे मेरी दिलजमई हो जाती, मगर इस बात पर बहुत जोर दिया कि ‘जोकुछ मैं कह चुका हूँ वह बहुत ठीक है’।

मेरे जी में तो यही आया कि इसी समय उठकर राजा गोपालसिंह के पास जाऊँ और सब हाल कह दूँ, परन्तु यह सोचकर कि किसी काम में जल्दी न करनी चाहिए, मैं चुप रह गया और सोचने लगा कि यह कार्रवाई क्योंकर हुई और इसका ठीक-ठीक पता किस तरह लग सकता है?

रात-भर मुझे नींद न आयी और इन्हीं बातों को सोचता रह गया। सुबेरा होने पर स्नान-सन्ध्या इत्यादि से छुट्टी पाकर मैं राजा साहब से मिलने के लिए गया, मालूम हुआ कि राजा साहब अभी महल से बाहर नहीं निकले हैं। मैं सीधे महल में चला गया। उस समय गोपालसिंहजी सन्ध्या कर रहे थे और इनसे थोड़ी दूर पर सामने बैठी मायारानी फूलों का गजरा तैयार कर रही थी। उसने मुझे देखते ही कहा, ‘‘अहा, आज क्या है! मालूम होता है, मेरे लिये आप कोई अनूठी चीज लाये हैं!’’

इसके जवाब में मैं हँसकर चुप हो गया और इशारा पाकर गोपालसिंहजी के पास एक आसन पर बैठ गया। जब वे सन्ध्योपासना से छुट्टी पा चुके, तब मुझसे बातचीत होने लगी। मैं चाहता था कि मायारानी वहाँ से उठ जाय, तब मैं अपना मतलब बयान करूँ, पर वह वहाँ से उठती न थी और चाहती थी कि मैं जो कुछ बयान करूँ, उसे वह भी सुन ले। यह सम्भव था कि मैं मामूली बातें करके मौका टाल देता और वहाँ से उठ खड़ा होता मगर वह हो न सका, क्योंकि उन दोनों ही को जिस बात का विश्वास हो गया था कि मैं जरूर कोई अनूठी बात कहने के लिए आया हूँ। लाचार गोपालसिंहजी से इशारे में कह देना पड़ा कि ‘मैं एकान्त में केवल आपही से कुछ कहना चाहता हूँ’। जब गोपालसिंह ने किसी काम के बहाने से उसे अपने सामने से उठाया, तब वह भी मेरा मतलब समझ गयी और कुछ मुँह बनाकर उठ खड़ी हुई।

हम दोनों यही समझते थे कि मायारानी वहाँ से चली गयी, मगर उस कमबख्त ने हम दोनों की बातें सुन लीं क्योंकि उसी दिन से मेरी कमबख्ती का जमाना शुरू हो गया। मैं ठीक नहीं कह सकता कि किस ढंग से उसने हमारी बातें सुनी। जिस जगह हम दोनों बैठे थे, उसके पास ही दीवार में एक छोटी-सी खिड़की पड़ती थी, शायद उसी जगह पिछवाड़े की तरफ खड़ी होकर उसने मेरी बातें सुन ली हों, तो कोई ताज्जुब नहीं।

मैंने जो कुछ अपने नौकर से सुना था, सब तो नहीं कहा केवल इतना कहा कि ‘आपके पिता को दारोगा ही ने मारा है और लक्ष्मीदेवी की इस शादी में भी उसने कुछ गड़बड़ किया है, गुप्तरीति पर इसकी जाँच करनी चाहिए’। मगर अपने नौकर का नाम नहीं बताया, क्योंकि मैं उसे बहुत चाहता था और वैसा ही उसकी खास हिफाजत का खयाल भी रखता था। इसमें कोई शक नहीं कि मेरा वह नौकर बहुत ही होशियार और बुद्धिमान था, बल्कि इस योग्य था कि राज्य का कोई भारी काम उसके सुपुर्द किया जाता, परन्तु वह जाति का कहार था, इसलिए किसी बड़े मर्तबे पर न पहुँच सका।

गोपालसिंहजी ने मेरी बातें ध्यान देकर सुनीं, मगर इन्हें उन बातों का विश्वास न हुआ, क्योंकि ये मायारानी को पतिव्रताओं की नाक और दारोगा को सचाई तथा ईमानदारी का पुतला समझते थे। मैनें इन्हें अपनी तरफ से बहुत कुछ समझाया और कहा कि ‘यह बात चाहे झूठ हो, मगर आप दारोगा से हरदम होशियार रहा कीजिए और उसके कामों की जाँच की निगाह से देखा कीजिए, मगर अफसोस, इन्होंने मेरी बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया और और इसी से मेरे साथ ही अपने को भी बर्बाद कर लिया।

उसके बाद भी कई दिनों तक मैं इन्हें समझाता रहा और ये भी हाँ में हाँ मिला देते रहे, जिससे विश्वास होता था कि कुछ उद्योग करने से ये समझ जायेंगे, मगर ऐसा कुछ न हुआ। एक दिन मेरे उसी नौकर ने जिसका नाम हरदीन था, मुझसे फिर एकान्त में कहा कि ‘अब आप राजा साहब को समझाना-बुझाना छोड़ दीजिए, मुझे निश्चय हो गया कि उनकी बदकिस्मती के दिन आ गये हैं और वे आपकी बातों पर कुछ भी ध्यान न देंगे। उन्होंने बहुत बुरा किया कि आपकी बातें मायारानी और दारोगा पर प्रकट कर दीं। अब उनको समझाने के बदले आप अपनी जान बचाने की फिक्र कीजिए और अपने को हर वक्त आफत से घिरा हुआ समझिए। शुक्र है कि आपने सब बातें नहीं कह दीं, नहीं तो और भी गजब हो जाता...

औरों को चाहे कैसा ही कुछ खयाल हो, मगर मैं अपने खिदमतगार हरदीन की बातों पर विश्वास करता था और उसे अपना खैरख्वाह समझता था। उसकी बातें सुनकर मुझे गोपालसिंह पर बेहिसाब क्रोध चढ़ आया और उसी दिन से मैंने इन्हें समझाना-बुझाना छोड़ दिया, मगर इनकी मुहब्बत ने मेरा साथ न छोड़ा।

मैंने हरदीन से पूछा कि ‘ये सब बातें तुझे क्योंकर मालूम हुईं और होती हैं’? मगर उसने ठीक-ठीक न बताया, बहुत जिद्द करने पर कहा कि कुछ दिन और सब्र कीजिए मैं इसका भेद भी आपको बता दूँगा।

दूसरे दिन जबकि सूरज अस्त होने में दो घण्टे की देर थी, मैं अकेला अपने नजर बाग में टहल रहा था और इस सोच में पड़ा हुआ था कि राजा गोपालसिंह का भ्रम मिटाने के लिए अब क्या बन्दोबस्त करना चाहिए। उसी समय रघुबीरसिंह मेरे पास आया और साहब सलामत करने के बाद इधर-उधर की बातें करने लगा।

 बात-ही-बात में उसने कहा कि ‘आज मैंने एक घोड़ा नेहायत उम्दा खरीद किया है, मगर अभी तक उसका दाम नहीं दिया है, आप उस पर सवारी करके देखिए, अगर आप भी पसन्द करें तो मैं उसका दाम चुका दूँ। इस समय मैं उसे अपने साथ लेते आया हूँ, आप उस पर सवार हो लें और मैं अपने पुराने घोड़े पर सवार होकर आपके साथ चलता हूँ, चलिए दो-चार कोस का चक्कर लगा आवें....’।

मुझे घोड़े का बहुत ही शौक था। रघुबरसिंह की बातें सुनकर मैं खुश हो गया और यह सोचकर कि अगर जानवर उम्दा होगा तो मैं खुद उसका दाम देकर, अपने यहाँ रख लूँगा, मैंने जवाब दिया कि चलो देखें कैसा घोड़ा है, एक घोड़े की जरूरत मुझे भी थी’। इसके जवाब में रघुबर ने कहा कि ’अच्छी बात है, अगर आपको पसन्द आवे तो आप ही रख लीजियेगा’।

उन दिनों मैं रघुबरसिंह को भला आदमी, अशराफ और अपना दोस्त समझता था, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह परले सिरे का बेईमान और शैतान का भाई है, उसी तरह दारोगा को भी मैं इतना बुरा नहीं समझता था और राजा गोपालसिंह की तरह मुझे भी विश्वास था कि जमानिया की उस गुप्त कमेटी से इन दोनों का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, मगर हरदीन ने मेरी आँखें खोल दीं और साबित कर दिया कि जोकुछ हम लोग सोचे हुए थे, वह हमारी भूल थी।

खैर, मैं रघुबरसिंह के साथ ही बाग के बाहर निकला और दरवाजे पर आया। कसे-कसाये दो घोड़े दिखे, जिनमें एक तो खास रघुबरसिंह का घोड़ा था और दूसरा एक नया और बहुत ही शानदार वही घोड़ा था, जिसकी रघुबरसिंह ने तारीफ की थी।

मैं उस घोड़े पर सवार होनेवाला ही था कि हरदीन दौड़ा-दौड़ा बदहवास मेरे पास आया और बोला, ‘‘घर में बहूजी (मेरी स्त्री) को न मालूम क्या हो गया है कि गिरकर बेहोश हो गयीं हैं और मुँह से खून निकल रहा है, जरा चलकर देख लीजिए।’’

हरदीन की बात सुनकर मैं तरद्दुद में पड़ गया और उसे साथ लेकर घर के अन्दर गया, क्योंकि हरदीन बराबर जनाने में आया-जाया करता था और उसके लिए किसी तरह का पर्दा न था। जब घर की दूसरी ड्योढ़ी मैंने लाँघी, तब वहाँ एकान्त देखकर हरदीन ने मुझे रोका और कहा, ‘‘जोकुछ मैंने आपको खबर दी, वह बिल्कुल झूठ थी, बहूजी बहुत अच्छी तरह हैं।’’

मैं : तो तुमने ऐसा क्यों किया?

हरदीन : इसीलिए कि रघुबरसिंह के साथ जाने से आपको रोकूँ।

मैं : सो क्यों?

हरदीन : इसलिए कि वह आपको धोखा देकर ले जा रहा है और आपकी जान लिया चाहता है। मैं उसके सामने आपको रोक नहीं सकता था, अगर रोकता तो उसे मेरी तरफदारी मालूम हो जाती और मैं जान से मारा जाता और फिर आपको इन दुष्टों की चालबाजियों से बचानेवाला कोई न रहता। यद्यपि मुझे अपनी जान आपसे प्यारी नहीं है, तथापि आपकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है और यह बात आपके आधीन है, यदि आप मेरा भेद खोल देंगे तो फिर मेरा इस दुनिया में रहना मुश्किल है।

मैं : (ताज्जुब के साथ) तुम यह क्या कह रहे हो? रघुबर तो हमारा दोस्त है!

हरदीन : इस दोस्ती पर आप भरोसा न करें और इस समय इस मौके को टाल जायँ, रात को सब बातें आपको अच्छी तरह समझा दूँगा, या यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास न हो तो जाइए, मगर एक तमंचा कमर में छिपाकर लेते जाइए और पश्चिम तरफ कदापि न जाकर पूरब तरफ जाइए-साथ ही हर तरह से होशियार रहिए। इतनी होशियारी करने पर आपको मालूम हो जायगा कि मैं जोकुछ कह रहा हूँ सच है या झूठ।

हरदीन की बातों ने मुझे चक्कर में डाल दिया। कुछ सोचने के बाद मैंने कहा, ‘‘शाबाश हरदीन, तुमने बेशक इस समय मेरी जान बचायी, मगर खैर तुम चिन्ता न करो और मुझे इस दुष्ट के साथ जाने दो, अब मैं इसके पंजे में न फसूँगा और जैसा तुमने कहा है, वैसा ही करूँगा।’’

इसके बाद मैं चुपचाप अपने कमरे में चला गया और एक छोटा-सा तमंचा भरकर अपने कमर में छिपा लेने के बाद बाहर निकला। मुझे देखते ही रघुबीरसिंह ने पूछा, ‘‘कहिए क्या हाल है?’’ मैंने जवाब दिया, ‘‘अब तो होश में आ गयी हैं, वैद्यजी को बुला लाने के लिए कह दिया है, तब तक हम लोग भी घूम आवेंगे।’’

इतना कहकर मैं उस घोड़े पर सवार हो गया, रघुबरसिंह भी अपने घोड़े पर सवार हुआ और मेरे साथ चला। शहर के बाहर निकलने के बाद मैंने पूरब तरफ घोड़े को घुमाया, उसी समय रघुबीरसिंह ने टोका और कहा, ‘‘उधर नहीं पश्चिम तरफ चलिए, इधर का मैदान बहुत अच्छा और सोहावना है।’’

मैं : इधर पूरब तरफ भी तो कुछ बुरा नहीं है, मैं इधर ही चलूँगा।

रघुबर : नहीं नहीं, आप पश्चिम ही की तरफ चलिए, उधर एक काम और निकलेगा। दारोगा साहब भी इस घोड़े की चाल देखा चाहते थे, मैंने कह दिया था कि आप अपने घोड़े पर सवार होकर जाइए और फलानी जगह ठहरियेगा, हम लोग घूमते हुए उसी तरफ आवेंगे, वे जरूर वहाँ गये होंगे और हम लोगों का इन्तजार कर रहे होंगे।

मैं : ऐसा ही शौक था तो दारोगा साहब भी हमारे यहाँ आ जाते और हम लोगों के साथ चलते।

रघुबर : खैर, अब तो जो हो गया सो हो गया, अब उनका खयाल जरूर करना चाहिए।

मैं : मुझे भी पूरब तरफ जाना बहुत जरूरी है, क्योंकि एक आदमी से मिलने का वादा कर चुका हूँ।

इसी तौर पर मेरे और उसके बीच बहुत देर तक हुज्जत होती रही। मैं पूरब की तरफ जाना चाहता था और वह पश्चिम की तरफ जाने के लिए जोर देता रहा, नतीजा यह निकला कि न पूरब ही गये न पश्चिम ही गये, बल्कि लौटकर सीधे घर चले आये और यह बात रघुबरसिंह को बहुत ही बुरी मालूम हुई, उसने मुझसे मुँह फुला लिया और कुढ़ा हुआ अपने घर चला गया।

मेरा रहा-सहा शक भी जाता रहा और हरदीन की बातों पर मुझे पूरा-पूरा विश्वास हो गया, मगर मेरे दिल में इस बात की उलझन हद्द से ज्यादे पैदा हुई कि हरदीन को इन सब बातों की खबर क्योंकर लग जाती है। आखिर रात के समय जब एकान्त हुआ, तब मुझसे हरदीन से इस तरह की बातें होने लगीं–

मैं : हरदीन, तुम्हारी बात तो ठीक निकली, उसने पश्चिम तरफ ले जाने के लिए बहुत जोर मारा, मगर मैंने उसकी एक न सुनी।

हरदीन : आपने बहुत अच्छा किया नहीं तो इस समय बड़ा अन्धेर हो गया होता।

मैं : खैर, यह तो बताओ कि यकायक वह मेरी जान का दुश्मन क्यों बन बैठा? वह तो मेरी दोस्ती का दम भरता था!

हरदीन : इसका सबब वही लक्ष्मीदेवीवाला भेद है। मैं अपनी भूल पर अफसोस करता हूँ, मुझसे चूक हो गयी, जो मैंने वह भेद आपसे खोल दिया। मैंने तो राजा गोपालसिंह का भला करना चाहा था, मगर उन्होंने नादानी करके मामला बिगाड़ दिया। उन्होंने जो कुछ आपसे सुना था, लक्ष्मीदेवी से कहकर दारोगा और रघुबर को आपका दुश्मन बना दिया, क्येंकि इन्हीं दोनों की बदौलत वह इस दर्जे को पहुँची, इन्हीं दोनों की बदौलत हमारे महाराज (गोपालसिंह के पिता) मारे गये और इन्हीं दोनों ने लक्ष्मीदेवी ही को नहीं, बल्कि उसके घर को बर्बाद कर दिया।

मैं : इस समय तो तुम बड़े ही ताज्जुब की बातें सुना रहे हो?

हरदीन : मगर इन बातों को आप अपने ही दिल में रखकर जमाने की चाल के साथ काम करें, नहीं तो आपको पछताना पड़ेगा, यद्यपि मैं यह कदापि न कहूँगा कि आप राजा गोपालसिंह का ध्यान छोड़ दें और उन्हें डूबने दें, क्योंकि वह आपके दोस्त हैं।

मैं : जैसा तुम चाहते हो, मैं वैसा ही करूँगा। अच्छा तो यह बताओ कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह पर क्या बीती?

हरदीन : उन दोनों को दारोगा ने अपने पंजे में फँसाकर कहीं कैद कर दिया था, इतना तो मुझे मालूम है, मगर इसके बाद का हाल मैं कुछ भी नहीं जानता, न मालूम वे मार डाले गये या अभी तक कहीं कैद हैं। हाँ, उस गदाधरसिंह को इसका हाल शायद मालूम होगा जो रणधीरसिंहजी का ऐयार है और जिसने नानक की माँ को धोखा देने के लिए कुछ दिन तक अपना नाम रघुवरसिंह रख लिया था, तथा जिसकी बदौलत यहाँ की गुप्त कमेटी का भण्डा फूटा है। उसने इस रघुवरसिंह और दारोगा को खूब ही छकाया है। लक्ष्मीदेवी की जगह मुन्दर की शादी करा देने की बाबत, इनके और हेलासिंह के बीच में जो पत्र-व्यवहार हुआ, उसकी नकल भी गदाधरसिंह (रणधीरसिंह के ऐयार) के पास मौजूद है, जो कि उसने समय पर काम लेने के लिए असल चीठियों से अपने हाथ से नकल की थी। अफसोस उसने रुपये के लालच में पड़कर रघुबरसिंह और दारोगा को छोड़ दिया और इस बात को छिपा रक्खा कि यही दोनों उस गुप्त कमेटी के मुखिया हैं। इस पाप का फल गदाधरसिंह को जरूर भोगना पड़ेगा, ताज्जुब नहीं कि एक दिन उन चीठियों की नकल से उसे ही दु:ख उठाना पड़े और वे चीठियाँ, उसी के लिए काल बन जायँ।

इस समय मुझे हरदीन की बातें अच्छी तरह याद पड़ रही हैं। मैं देखता हूँ कि जोकुछ उसने कहा था, सच उतरा। उन चीठियों की नकल ने खुद भूतनाथ का गला दबा दिया, जो उन दिनों गदाधरसिंह के नाम से मशहूर था! भूतनाथ का हाल मुझे अच्छी तरह मालूम है और इधर जो कुछ हो चुका है, वह सब तो मैं सुन चुका हूँ। मगर इतना मैं जरूर कहूँगा कि भूतनाथ के मुकदमे में तेजसिंहजी ने बड़ी गल्ती की। गल्ती तो सभों ने की, मगर तेजसिंहजी को ऐयारों का सरताज मानकर मैं सबके पहिले इन्हीं का नाम लूँगा। इन्होंने जब लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली इत्यादि के सामने वह कागज का मूठा खोला था और चीठियों को पढ़कर भूतनाथ पर इलजाम लगाया था कि ‘बेशक ये चीठियाँ भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई हैं’ तो इतना क्यों नहीं सोचा कि भूतनाथ की चीठियों के जवाब में हेलासिंह ने जो चीठियाँ भेजी हैं, वे भी तो भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई मालूम पड़ती हैं, तो क्या अपनी चीठी का जवाब भी भूतनाथ अपने ही हाथ से लिखा करता था?

यहाँ तक कहकर भरतसिंह चुप हो रहे और तेजसिंह की तरफ देखने लगे। तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका कहना बहुत ही ठीक है, बेशक उस समय मुझसे बड़ी भूल हो गयी। उनमें की एक ही चीठी पढ़कर क्रोध के मारे हम लोग ऐसा पागल हो गये कि इस बात पर कुछ भी ध्यान न दे सके। बहुत दिनें के बाद जब देवीसिंह ने यह बात सुनायी, तब हम लोगों को बहुत अफसोस हुआ और तब से हम लोगों का खयाल भी बदल गया!’’

भरतसिंह ने कहा, ‘‘तेजसिंहजी, इस दुनिया में बड़े-बड़े चालाकों और होशियारों से यहाँ तक कि स्वयं विधाता ही से भूल हो गयी है, तो फिर हम लोगों की क्या बात है? मगर मजा तो यह है कि बड़ों कि भूल कहने-सुनने में नहीं आती, इसीलिए आपकी भूल पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी कवि ने ठीक ही कहा है–

    को कहि सके बड़ेन सों लखे बड़ेई भूल।
    दीन्हें दई गुलाब के इन डारन ये फूल।।

अस्तु, अब मैं पुनः अपनी कहानी शुरू करता हूँ।

इसके बाद भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया–‘‘मैंने हरदीन से कहा कि ‘अगर यह बात है तो गदाधरसिंह से मुलाकात करनी चाहिए, मगर वह मुझसे अपने भेद की बातें क्यों कहने लगा? इसके अतिरिक्त वह यहाँ रहता भी नहीं है, कभी-कभी आ जाता है। साथ ही इसके यह जानना भी कठिन है कि वह कब आया और कब चला गया।’’

हरदीन : ठीक है, मगर मैं आपसे उनकी मुलाकात करा सकता हूँ,, आशा है कि वे मेरी बात मान लेंगे और आपको असल हाल भी बता देंगे। कल वह जमानिया में आनेवाले हैं।

मैं : मगर मुझसे और उससे तो किसी तरह कि मुलाकात नहीं है, वह मुझपर क्यों भरोसा करेगा?

हरदीन : कोई चिन्ता नहीं, मैं आपकी और उनकी मुलाकात करा दूँगा।

हरदीन की इस बात ने मुझे और भी ताज्जुब में डाल दिया, मैं सोचने लगा कि इससे और गदाधरसिंह (भूतनाथ) से ऐसी गहरी जान-पहिचान क्योंकर हो गयी, और वह इस पर क्यों भरोसा करता है?

भरतसिंह ने अपना किस्सा यहाँ तक बयान किया था कि उनके काम में विघ्न पड़ गया, अर्थात् उसी समय एक चोबदार ने आकर इत्तिला दी कि ‘भूतनाथ हाजिर है’। इस खबर को सुनते ही सब कोई खुश हो गये और भरतसिंह ने भी कहा, ‘‘अब मेरे किस्से में विशेष आनन्द आयेगा।’’

महाराज ने भूतनाथ को हाजिर करने की आज्ञा दी और भूतनाथ ने कमरे के अन्दर पहुँचकर सभों को सलाम किया।

तेज : (भूतनाथ से) कहो भूतनाथ, कुशल तो है? आज कई दिनों पर तुम्हारी सूरत दिखायी दी!

भूतनाथ : जी हाँ ईश्वर की कृपा से सब कुशल है, जितने दिन की छुट्टी लेकर गया था, उसके पहिले ही हाजिर हो गया हूँ।

तेज : सो तो ठीक है, मगर अपने सपूत लड़के का तो कुछ हाल कहो, कैसी निपटी?

भूतनाथ : निपटी क्या आपकी आज्ञा पालन की, नानक को मैंने किसी तरह की तकलीफ नहीं दी, मगर सजा बहुत ही मजेदार और चटपटी दे दी गयी!

देवी : (हँसते हुए) सो क्या?

भूतनाथ : मैंने उससे एक ऐसी दिल्लगी की कि वह भी खुश हो गया होगा। अगर बिल्कुल जानवर न होगा तो अब भी हम लोगों की तरफ कभी मुँह भी न करेगा। बात बिल्कुल मामूली थी, जब वह यहाँ आकर मेरी फिक्र में डूबा तो घर की हिफाजत का बन्दोबस्त करने के बाद कुछ शागिर्दों को साथ लेकर मैं उसके मकान पर पहुँच, उसकी माँ को उड़ा लाया, मगर उसकी जगह अपने एक शागिर्द को रामदेई बनाकर छोड़ आया। यहाँ उसे शान्ता बनाकर अपने खेमे में जो इसी काम के लिए खड़ा किया गया था, एक लौंडी के साथ सुला दिया और खुद तमाशा देखने लगा। आखिर नानक उसी को शान्ता समझके उठा ले गया और खुशी-खुशी अपनी नकली माँ के सामने पहुँचकर डींग हाँकने लगा, बल्कि उसकी आज्ञानुसार नकली शान्ता को खम्भे के साथ बाँधकर जूते से पूजा करने लगा। जब खूब दुर्गति कर चुका तब नकली रामदेई उसके सामने एक पुर्जा फेंककर घर के बाहर निकल गयी। उस पुर्जे के पढ़ने से जब उसे मालूम हुआ कि मैंने जो कुछ किया अपनी ही माँ के साथ किया, तब वह बहुत ही शर्मिन्दा हुआ। उस समय उन दोनों की जैसी कैफियत हुई, मैं क्या बयान करूँ, आप लोग खुद सोच-समझ लीजिए।

भूतनाथ की बात सुनकर सब लोग हँस पड़े। महारज ने उसे अपने पास बुलाकर बैठाया और कहा, ‘‘भूतनाथ, जरा एक दफे इस किस्से को फिर बयान कर जाओ, मगर जरा खुलासे तौर पर कहो।’’

भूतनाथ ने इस हाल को विस्तार के साथ ऐसे ढंग पर दोहराया कि हँसते-हँसते सभों का दम फूलने लग। इसके बाद जब भूतनाथ को मालूम हुआ कि भरतसिंह अपना किस्सा बयान कर रहे हैं, तब उसने भरतसिंह की तरफ देखा और कहा, ‘‘मुझे भी तो आपके किस्से से कुछ सम्बन्ध है।’’

भरत : बेशक, और वही हाल मैं इस समय बयान कर रहा था।

भूतनाथ : (गोपालसिंह से) क्षमा कीजियेगा, मैंने आपसे उस समय, जब कृष्णाजिन्न बने हुए थे, यह झूठ बयान किया था कि राजा गोपालसिंह के छूटने के बाद मैंने उन कागजों का पता लगाया है, जो इस समय मेरे ही साथ दुश्मनी कर रहे हैं’ इत्यादि। असल में वे कागज मेरे पास उसी जमाने में मौजूद थे, जब जमानिया में मुझसे और भरतसिंह से मुलाकात हुई थी। आप यह हाल इनकी जुबानी सुन चुके होंगे।

भरत : हाँ, भूतनाथ, इस समय मैं वही हाल बयान कर रहा हूँ, अभी कह नहीं चुका।

भूतनाथ : खैर, तो अभी श्रीगणेश है। अच्छा आप बयान कीजिए।

भरतसिंह ने फिर इस तरह बयान किया–

भरत : दूसरे दिन आधी रात के समय जब मैं गहरी नींद में सोया हुआ था, हरदीन ने आकर मुझे जगाया और कहा, ‘‘लीजिए मैं गदाधरसिंहजी को ले आया हूँ, उठिए और इनसे मुलाकात कीजिए, ये बड़े ही लायक और बात के धनी आदमी हैं!’’ मैं खुशी-खुशी उठ बैठा और बड़ी नर्मी के साथ भूतनाथ से मिला। इसके बाद मुझसे और भूतनाथ (गदाधर) से इस तरह बातचीत होने लगी–

भूतनाथ : साहब, आपका हरदीन बड़ा ही नेक और दिलावर है, ऐसे जीवट का आदमी दुनिया में कम दिखायी देगा। मैं तो इसे अपना परम हितैषी और मित्र समझता हूँ, इसने मेरे साथ जोकुछ भलाइयाँ की हैं, उनका बदला मैं किसी तरह चुका ही नहीं सकता। मुझसे आपसे कभी की जान-पहिचान नहीं, मुलाकात नहीं, ऐसी अवस्था में मैं पहिले-पहल बिना मतलब के आपके घर कदापि न आता, परन्तु इनकी इच्छा के विरुद्ध मैं नहीं चल सका, इन्होंने यहाँ आने के लिए कहा और मैं बेधड़क चला आया। इनकी जुबानी मैं सुन भी चुका हूँ कि आज कल आप किस फेर में पड़े हुए हैं और मुझसे मिलने की जरूरत आपको क्यों पड़ी। अस्तु, हरदीन की आज्ञानुसार मैं वह कागज का मुट्ठा भी आपको दिखाने के लिए लेता आया हूँ, जिससे आपको दारोगा और रघुबरसिंह की हरमजदगी और राजा गोपालसिंह की शादी का पूरा-पूरा हाल मालूम हो जायेगा, मगर खूब याद रखिए कि इस कागज को पढ़कर आप बेताब हो जाँयगे, आपको बेहिसाब गुस्सा चढ़ आवेगा और आपका दिल बेचैनी के साथ तमाम भण्डा फोड़ देने के लिए तैयार हो जायगा। मगर नहीं, आपको बहुत बर्दास्त करना पड़ेगा। मुझे हरदीन ने आपका बहुत ज्यादा विश्वास दिलाया है, तभी मैं यहाँ आया हूँ और यह अनूठी चीज भी दिखाने के लिए तैयार हूँ, नहीं तो कदापि न आता।

मैं : आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझ पर भरोसा किया और यहाँ तक चले आये, मेरी जुबान से आपका रत्ती-भर भेद भी किसी को नहीं मालूम हो सकता, इसका आप विश्वास रखिए। यद्यपि मैं इस बात का निश्चय कर चुका हूँ कि गोपालसिंह के मामले में मैं कुछ भी दखल न दूँगा, मगर इस बात का अफसोस जरूर है कि वह मेरे मित्र हैं और दुष्टों ने उन्हें बेतरह फँसा रक्खा है।

भूतनाथ : केवल आप ही को नहीं इस बात का अफसोस मुझको भी है और मैं खुद गोपालसिंह को इस आफत से छुड़ाने का इशारा कर रहा हूँ, मगर लाचार हूँ कि बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी का कुछ भी पता नहीं लगता और जब तक उन दोनों का पता न लग जाय, तब तक इस मामले को उठाना बड़ी भूल है।

मैं : मगर यह तो निश्चय है न कि इसका कर्ता-धर्ता कमबख्त दारोगा ही है!

भूतनाथ : भला इसमें कुछ भी शर्म है? लीजिए इस कागज के मुट्ठे को पढ़ जाइए, तब आपको भी विश्वास हो जायगा।

इतना कहकर भूतनाथ ने कागज का एक मुट्ठा निकाला और मेरे आगे रख दिया, तथा मैंने भी उसे पढ़ने शुरू किया। मैं आपसे नहीं कह सकता कि उन कागजों को पढ़कर मेरे दिल की कैसी अवस्था हो गयी और दारोगा और रघुबरसिंह पर मुझे कितना क्रोध चढ़ आया। आप लोग तो उसे पढ़-सुन चुके हैं, अतएव इस बात को खुद समझ सकते हैं। मैंने भूतनाथ से कहा कि ‘यदि तुम मेरा साथ दो तो मैं आज ही दारोगा और रघुबरसिंह को इस दुनिया से उठा दूँ।’

भूतनाथ : इससे फायदा ही क्या होगा? और यह काम ही कितना बड़ा है? मुझे खुद इस बात का खयाल है और मैं लक्ष्मीदेवी का पता लगाने के लिए दिल से कोशिश कर रहा हूँ, तथा आपका हरदीन भी पता लगा रहा है। इस तरह समय के पहिले छेड़छाड़ करने से खुद अपने को झूठा बनाना पड़ेगा और लक्ष्मीदेवी भी जहाँ-की-तहाँ पड़ी सड़ेगी, या मर जायगी।

मैं : हाँ, ठीक है, अच्छा यह तो बताइए कि आप हरदीन की इतनी इज्जत क्यों करते हैं?

भूतनाथ : इसलिए कि यह सबकुछ इन्हीं की बदौलत है, इन्होंने मुझे उस कमेटी का पता बताया और उसका भेद समझाया और इन्हीं की मदद से मैंने उस कमेटी का सत्यानाश किया।

मैं : (हरदीन से) और तुम्हें उस कमेटी का भेद क्योंकर मालूम हुआ?

हरदीन : (हाथ जोड़के) माफ कीजियेगा, मैं उस कमेटी का सदस्य था और अभी तक उन लोगों के खयाल से उन सभों का पक्षपाती बना हुआ हूँ, मगर मैं ईमानदार सदस्य था, इसलिए ऐसी बातें मुझे पसन्द न आयीं और मैं गुप्त रीति से उन लोगों का दुश्मन बन बैठा, मगर इतना करने पर भी अभी तक मेरी जान इसलिए बची हुई है कि आपके घर में मेरे सिवाय और कोई उन लोगों का साथी नहीं है।

मैं : तो क्या अभी तक तुम उन लोगों के साथी बने हुए हो, और वे लोग अपने दिल का हाल तुमसे कहते हैं?

हरदीन : जी हाँ, तभी तो मैंने आपको रघुबरसिंह के पंजे से बचाया था, जब वह आपको घोड़े पर सवार कराके ले चला था!

मैं : अगर ऐसा है। तो तुम्हें यह भी मालूम हो गया होगा कि उस दिन घात न लगने के कारण रघुबरसिंह ने अब कौन-सी कार्रवाई सोची है।

हरदीन : जी हाँ, पहिले तो उसने मुझसे पूछा कि ‘भरतसिंह ने ऐसा क्यों किया, क्या उसको मेरी नीयत का कुछ पता लग गया’? जिसके जवाब में मैंने कहा कि ‘नहीं, किसी दूसरे सबब से ऐसा हुआ होगा’। इसके बाद दारोगा साहब ने मुझपर हुक्म लगाया कि ‘तू भरतसिंह को जिस तरह हो सके जहर दे दे’। मैंने कहा, ‘‘बहुत अच्छा ऐसा ही करूँगा, मगर इस काम में पाँच-सात दिन जरूर लग जायँगे।’’

इतना कहकर हरदीन ने भूतनाथ से पूछा कि ‘कहिए अब क्या करना चाहिए’? इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा कि ‘अब पाँच-सात दिन के बाद भरतसिंह को झूठ-मूठ का हल्ला मचा देना चाहिए कि मुझको किसी ने जहर दे दिया, बल्कि कुछ बीमारी की-सी नकल भी करके दिखा देनी चाहिए’।–

इसके बाद थोड़ी देर तक और भी भूतनाथ से बातचीत होती रही और किसी दिन फिर मिलने का वादा करके भूतनाथ बिदा हुआ।

इस घटना के बाद कई दफे भूतनाथ से मुलाकात हुई, बल्कि कहना चाहिए कि इनके और मेरे बीच में एक प्रकार की मित्रता-सी हो गयी और इन्होंने कई कामों में मेरी सहायता भी की।

जैसाकि आपुस में सलाह हो चुकी थी, मुझे यह मशहूर करना पड़ा कि ‘मुझे किसी ने जहर दे दिया’। साथ ही इसके कुछ बीमारी की नकल भी की गयी, जिसमें मेरे नौकर पर कमबख्त दारोगा को शक न हो जाय, मगर इसका कोई अच्छा नतीजा न निकला, अर्थात् दारोगा को मालूम हो गया कि हरदीन उसका सच्चा साथी और भेदिया नहीं है।

एक दिन रात के समय एकान्त में हरदीन ने मुझसे कहा, ‘‘लीजिए अब दारोगा साहब को निश्चय हो गया कि मैं उनका सच्चा साथी नहीं हूँ। आज उसने मुझे अपने पास बुलाया था, मगर मैं गया नहीं, क्योंकि मुझे यह निश्चय हो गया कि जाने के साथ ही मैं उसके कब्जे में आ जाऊँगा और फिर किसी तरह जान न बचेगी, यों तो छिटके रहने पर लड़ते-झगड़ते जैसा होगा देखा जायगा। अस्तु, इस समय मुझे आपसे यह कहना है कि आज से मैं आप के यहाँ रहना छोड़ दूँगा और तब तक आपके पास न आऊँगा, जब तक मैं दारोगा की तरफ से बेफिक्र न होऊँगा, देखा चाहिए मेरी उससे क्योंकर निपटती है, वह मुझे मारकर निश्चिन्त होता है या मैं उसे जहन्नुम में पहुँचाकर कलेजा ठण्डा करता हूँ। मुझे अपने मरने का रंज कुछ भी नहीं है, मगर इस बात का अफसोस जरूर है कि मेरे जाने के बाद आपका मददगार यहाँ कोई भी नहीं है और कमबख्त दारोगा आपको फँसाने में किसी तरह की कसर न करेगा, खैर, लाचारी है, क्योंकि मेरे यहाँ रहने से भी आपका कोई कल्याण नहीं हो सकता, यों तो मैं छिपे-छिपे कुछ-न-कुछ मदद जरूर करूँगा, परन्तु आप जहाँ तक हो सके खूब होशियारी के साथ काम कीजियेगा।’’

मैं : अगर यही बात है तो तुम्हारे भागने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती। हम लोग दारोगा के भेदों को खोलकर खुल्लमखुल्ला उसका मुकाबला कर सकते हैं।

हरदीन : इससे कोई फायदा नहीं हो सकता क्योंकि हम लोगों के पास दारोगा के खिलाफ कोई सबूत नहीं है और न उसके बराबर ताकत ही है।

मैं : क्या इन भेदों को हम गोपालसिंह से नहीं खोल सकते और ऐसा करने से भी कोई काम नहीं चलेगा?

हरदीन : नहीं, ऐसा करने से जोकुछ बरस-दो-बरस गोपालसिंहजी की जिन्दगी है, वह भी न रहेगी अर्थात् हम लोगों के साथ-ही-साथ वे भी मार डाले जायेंगे। आप नहीं समझ सकते और नहीं जानते कि दारोगा की असली सूरत क्या है, उसकी ताकत कैसी है और उसके मजबूत जाल किस कारीगरी के साथ फैले हुए हैं। गोपालसिंह अपने को राजा और शक्तिमान समझते होंगे, मगर मैं सच कह सकता हूँ कि दारोगा के सामने उनकी कुछ भी हकीकत नहीं है, हाँ, यदि राजा गोपालसिंह किसी को किसी तरह खबर किये बिना एकाएक दारोगा को गिरफ्तार करके मार डालें तो बेशक वे राजा कहला सकते हैं, मगर ऐसी अवस्था में मायारानी उन्हें जीता न छोड़ेगी और लक्ष्मीदेवीवाला भेद भी ज्यों-का-त्यों बन्द रह जायगा, वह भी किसी तरह तहखाने में पड़ी-पड़ी भूखी-प्यासी मर जायगी।

इसी तरह पर हमारे और हरदीन के बीच में देर तक बातें होती रहीं, और वह मेरी हर एक बात का जवाब देता रहा। अन्त में वह मुझे समझा-बुझाकर घर से बाहर निकल गया और उसका पता न लगा।

रात-भर मुझे नींद न आयी और मैं तरह-तरह की बातें सोचता रह गया। सुबह को चारपाई से उठा, हाथ-मुँह धोने के बाद दरबारी कपड़े पहिरे, हर्बे लगाये और राजा साहब की तरफ रवाना हुआ। जब मैं उस त्रिमुहानी पर पहुँचा, जहाँ से एक रास्ता राजा साहब के दीवानखाने की तरफ और दूसरा खास बाग की तरफ गया है, तब उस जगह पर दारोगा साहब से मुलाकात हुई, जो दीवानखाने की तरफ से लौटे हुए चले आ रहे थे।

प्रकट में मुझसे और दारोगा साहब से अच्छी तरह साहब सलामत हुई और उन्होंने उदासीनता के साथ मुझसे कहा, ‘‘आप दीवानखाने की तरफ कहाँ जा रहे हैं, राजा साहब तो खास बाग में चले गये, मेरे साथ चलिए, मैं भी उन्हीं से मिलने के लिए जा रहा हूँ, सुना है कि रात से उनकी तबीयत खराब हो रही है।

मैं : (ताज्जुब के साथ) क्यों-क्यों कुशल तो हैं?

दारोगा : अभी अभी पता लगा है कि आधी रात के बाद से उन्हें बेहिसाब कै और दस्त आ रहे हैं, आप कृपा करके यदि मोहनजी वैद्य को अपने साथ लेते आवें तो बड़ा काम हो, मैं खुद उनकी तरफ जाने का इरादा कर रहा था।

दारोगा की बातें सुनकर मैं घबड़ा गया, राजा साहब की बीमारी का हाल सुनते ही मेरी तबीयत उदास हो गयी और मैं ‘बहुत अच्छा’ कह उल्टे पैर लौटा और मोहनजी वैद्य की तरफ रवाना हुआ।

यहाँ तक अपना हाल कह कुछ देर के लिए भरतसिंह चुप हो गये और दम लेने लगे। इस समय जीतसिंह ने महाराज की तरफ देखा और कहा, ‘‘भरतसिंह का किस्सा भी दरबारे आम में सुनने लायक है!’’

महाराज : बेशक ऐसा ही है। (गोपालसिंह से) तुम्हारी क्या राय है?

गोपाल : महाराज की इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ बोल न सका नहीं तो मैं भी यही चाहता था कि और नकाबपोशों की तरह इनका किस्सा भी कैदियों के सामने ही सुना जाय।

और सभों ने भी यही राय दी, आखिर महाराज ने हुक्म दिया कि ‘कल दरबारे-आम किया जाय और कैदी लोग दरबार में लाये जायँ’।

दिन पहर-भर से कुछ कम बाकी था, जब यह छोटा-सा दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने ठिकाने पर चले गये, कुँअर आनन्दसिंह शिकारी कपड़े पहिनकर तारासिंह को साथ लिये महल के बाहर आये और दोनों दोस्त घोड़ों पर सवार हो जंगल की तरफ रवाना हो गये।

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