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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

इन्द्रदेव की बात महाराज ने मंजूर कर ली और तब वह (इन्द्रदेव) सभों के देखते-देखते चौखूटे पत्थर के ऊपर चले गये, जो चबूतरे के बीच में जड़ा हुआ था। सवार होने के साथ ही वह पत्थर हिला और इन्द्रदेव को लिये हुए जमीन के अन्दर चला गया, मगर थोड़ी देर में पुनः ऊपर चला आया और अपने ठिकाने पर ज्यों-का-त्यों बैठ गया, लेकिन इस समय इन्द्रदेव उस पर न थे। इन्द्रदेव के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक तो सबकोई उस चबूतरे पर खड़े रहे, इसके बाद धीरे-धीरे वह चबूतरा गरम होने लगा और वह गर्मी यहाँ तक बढ़ी कि लाचार उन सभों को चबूतरा छोड़ देना पड़ा, अर्थात् सबकोई चबूतरे के नीचे उतर आये और बाग में टहलने लगे। इस समय दिन घण्टे-भर से कुछ कम बाकी था। इस खयाल से कि देखें कि इसकी दीवार किस ढंग की बनी हुई है, सब कोई घूमते हुए पूरब तरफवाली दीवार के पास जा पहुँचे, और गौर से देखने लगे, मगर कोई अनूठी बात दिखयी न दी। इसके बाद उत्तर तरफवाली और फिर पश्चिमी तरफवाली दीवार को देखते हुए, सब कोई दक्खिन तरफ गये, और उधर की दीवार को आश्चर्य के साथ देखने लगे, क्योंकि इसमें कुछ विचित्रता जरूर थी।

यह दीवार शीशे की मालूम होती थी और इसमें महाभारत की तस्वीरें बनी हुई थीं। ये तस्वीरें उसी ढंग की थीं, जैसाकि उस तिलिस्मी बँगले में चलती-फिरती तस्वीरें इन लोगों ने देखी थीं। ये लोग तस्वीरों को बड़ी देर तक देखते रहे और सभों को विश्वास हो गया कि जिस तरह उस बँगलेवाली तस्वीरों को चलते-फिरते और काम करते हम लोग देख चुके हैं, उसी तरह इन तस्वीरों को भी देखेंगे, क्योंकि दीवार पर हाथ फेरने से साफ मालूम होता था कि तस्वीरें शीशे के अन्दर हैं।

इन तस्वीरों के देखने से महाभारत की लड़ाई का जमाना आँखों के सामने फिर जाता था। कौरवों और पाण्डवों की फौज, बड़े-बड़े सेनापति तथा रथ, हाथी, घोड़े इत्यादि जोकुछ बने थे, सभी अच्छे और दिल पर असर पैदा करनेवाले थे। ‘इस लड़ाई की नकल अपनी आँखों से देखेंगे’ इस विचार से सबकोई प्रसन्न थे। बड़ी दिलचस्पी के साथ उन तस्वीरों को देख रहे थे, यहाँ तक कि सूर्य अस्त हो गया और धीरे-धीरे अन्धकार ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया। उस समय यकायक दीवार चमकने लगी और तस्वीरों में हरकत पैदा हुई, जिससे सभों ने समझा कि नकली लड़ाई शुरू हुआ चाहती है, मगर कुछ ही देर बाद लोगों का यह विश्वास ताज्जुब के साथ बदल गया, जब यह देखा कि उसमें की तस्वीरें एक-एक करके गायब हो रही हैं, यहाँ तक की घड़ी-भर के अन्दर ही सब तस्वीरें गायब हो गयीं और दीवार साफ दिखायी देने लगी। इसके बाद दीवार की चमक भी बन्द हो गयी और फिर अन्धकार दिखायी देने लगा।

थोड़ी देर बाद उस चबूतरे की तरफ रोशनी मालूम हुई। यह देखकर सबकोई उस तरफ रवाना हुए और जब उसके पास पहुँचे तो देखा कि उस चबूतरे की छत जड़े हुए शीशों के दस-बारह टुकड़े इस तेजी के साथ चमक रहे हैं कि जिससे केवल चबूतरा ही नहीं, बल्कि तमाम बाग उजाला हो रहा है। इसके अतिरिक्त सैकड़ों मूरतें भी उस चबूतरे पर इधर-उधर चलती-फिरती दिखायी दीं। गौर करने से मालूम हुआ कि ये मूरतें (या तस्वीरें) बेशक वे ही हैं, जिन्हें उस दीवार के अन्दर देख चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि वह दीवार इन सभों का खजाना हो और वही यहाँ इस चबूतरे पर आकर तमाशा दिखाती हों।

इस समय जितनी मूरतें उस चबूतरे पर थीं, सब अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की लड़ाई से सम्बन्ध रखती थीं। जब उन मूरतों ने अपना काम शुरू किया तो ठीक अभिमन्यु की लड़ाई का तमाशा आँखों के सामने दिखायी देने लगा। जिस तरह कौरवों के रचे हुए व्यूह के अन्दर फँसकर कुमार अभिमन्यु ने वीरता दिखायी थी और अन्त में अधर्म के साथ जिस तरह वह मारा गया था, उसी को आज नाटक स्वरूप में देखकर सबकोई बड़े प्रसन्न हुए और सभों के दिलों पर बहुत देर तक इसका असर रहा।

इस तमाशे का हाल खुलासे तौर पर हम इसलिए नहीं लिखते कि इसकी कथा बहुत प्रसिद्ध है और महाभारत में विस्तार के साथ लिखी है।

यह तमाशा थोड़ी ही देर में खत्म नहीं हुआ बल्कि देखते-देखते तमाम रात बीत गयी। सवेरा होने के कुछ पहिले अन्धकार हो गया और उसी अन्धकार में सब मूरतें गायब हो गयीं। उजाला होने और आँखें ठहरने पर जब सभों ने देखा तो उस चबूतरे पर सिवाय इन्द्रदेव के और कुछ भी दिखायी न दिया।

इन्द्रदेव को देखकर सबकोई प्रसन्न हुए और साहब सलामत के बाद इस तरह बातचीत होने लगी–

इन्द्रदेव : (चबूतरे से नीचे उतरकर और महाराज के पास आकर) मैं उम्मीद करता हूँ कि इस तमाशे को देखकर महाराज प्रसन्न हुए होंगे।

महाराज : बेशक! क्या इसके सिवाय और भी कोई तमाशा यहाँ दिखायी दे सकता है?

इन्द्रदेव : जी हाँ, यहाँ पूरा महाभारत दिखायी दे सकता है, अर्थात् महाभारत ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, वह सब इसी ढंग पर और इसी चबूतरे पर आप देख सकते हैं, मगर दो-चार दिन में नहीं, बल्कि महीनों में, इसके साथ-साथ बनानेवाले ने इसकी भी तरकीब रक्खी है कि चाहे शुरू ही से तमाशा दिखाया जाय, या बीच ही से कोई टुकड़ा दिखा दिया जाय, अर्थात् महाभारत के अन्तर्गत जो कुछ चाहें देख सकते हैं।

महाराज : इच्छा तो बहुतकुछ देखने की थी, मगर इस समय हम लोग यहाँ ज्यादे रुक नहीं सकते। अस्तु, फिर कभी जरूर देखेंगे। हाँ, हमें इस तमाशे के विषय में कुछ समझाओ तो सही कि यह काम क्योंकर हो सकता है, और तुमने यहाँ से कहाँ जाकर क्या किया?

इन्द्रदेव ने इस तमाशे का पूरा-पूरा भेद सभों को समझाया और कहा कि ऐसे-ऐसे कई तमाशे इस तिलिस्म में भरे पड़े हैं, अगर आप चाहें तो इस काम में वर्षों बिता सकते हैं, इसके अतिरिक्त यहाँ की दौलत का भी यही हाल है कि वर्षों तक ढोते रहिए फिर भी कमी न हो, सोने-चाँदी का तो कहना ही क्या है, जवाहिरात भी आप जितना चाहें ले सकते हैं, सच तो यों है कि जितनी दौलत यहाँ है, उसके रहने का ठिकाना भी यहीं हो सकता है। इस बगीचे के आस-ही-पास और भी चार बाग हैं, शायद उन सभों में घूमना और वहाँ के तमाशों को देखना इस समय आप पसन्द न करें...

महाराज : बेशक इस समय हम इन सब तमाशों में समय बिताना पसन्द नहीं करते। सबसे पहिले शादी-ब्याह के काम से छुट्टी पाने की इच्छा लगी हुई है, मगर इसके बाद पुनः एक दफे इस तिलिस्म में आकर यहाँ की सैर जरूर करेंगे।

कुछ देर तक इसी किस्म की बातें होती रहीं, इसके बाद इन्द्रदेव सभों को पुनः उसी बाग में ले आये, जिसमें उनसे मुलाकात हुई थी, या जहाँ से इन्द्रदेव के स्थान में जाने का रास्ता था।

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