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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


सुबह का सुहावना समय सब जगह एक-सा नहीं मालूम होता, घर की खिड़कियों में उसका चेहरा कुछ और ही दिखायी देता है, और बाग में उसकी कैफियत कुछ और ही मस्तानी होती है, पहाड़ में उसकी खूबी कुछ और ही ढंग की दिखायी देती है, और जंगल में उसकी छटा कुछ निराली ही होती है। आज इन्द्रदेव के इस अनूठे स्थान में इसकी खूबी सबसे चढ़ी-बढ़ी है, क्योंकि यहाँ जंगल भी है, पहाड़ भी, अनूठा बाग तथा सुन्दर बँगला या कोठी भी है, फिर यहाँ के आनन्द का पूछना ही क्या। इसलिए हमारे महाराज, कुँअर साहब और ऐयार लोग भी यहाँ घूम-घूमकर सुबह के सुहावने समय का पूरा आनन्द ले रहे हैं, खास करके इसलिए कि आज ये लोग डेरा कूच करनेवाले हैं।

बहुत देर घूमने-फिरने के बाद सब कोई बाग में आकर बैठे और इधर-उधर की बातें होने लगीं।

जीत : (इन्द्रदेव से) भरथसिंह वगैरह तथा औरतों को आपने चुनार रवाना कर दिया।

इन्द्रदेव : जी हाँ, बड़े सवेरे ही उन लोगों को बाहर की राह से रवाना कर दिया। औरतों के लिए सवारी का इन्तजाम कर देने के अतिरिक्त, अपने दस-पन्द्रह मातबर आदमी भी साथ कर दिये हैं।

जीत : तो अब हम लोग भी कुछ भोजन करके यहाँ से रवाना हुआ चाहते हैं।

इन्द्रदेव : जैसी मर्जी।

जीत : भैरो और तारा जो आपके साथ यहाँ आये थे, कहाँ चले गये दिखायी नहीं पड़ते।

इन्द्रदेव : अब भी मैं उन्हें अपने साथ ही ले जाने की आज्ञा चाहता हूँ, क्योंकि उनकी मदद की मुझे जरूरत है।

जीत : तो क्या आप हम लोगों के साथ न चलेंगे?

इन्द्रदेव : जी हाँ, उस बाग तक जरूर साथ चलूँगा, जहाँ से मैं आप लोगों को यहाँ तक ले आया, पर उसके बाद गुप्त हो जाऊँगा, क्योंकि मैं आपको कुछ तिलिस्मी तमाशे दिखाया चाहता हूँ और इसके अतिरिक्त उन चीजों को भी तिलिस्म के अन्दर से निकलवाकर चुनार पहुँचाना है, जिनके लिए आज्ञा मिल चुकी है।

सुरेन्द्र : नहीं नहीं, गुप्त रीति पर हम तिलिस्म का तमाशा नहीं देखा चाहते, हमारे साथ रहकर जो-जोकुछ दिखा सको, दिखा दो बाकी रहा उन चीजों को निकलवाकर चुनार पहुँचाना, सो काम दो दिन के बाद भी होगा तो कोई हर्ज नहीं।

इन्द्रदेव : जैसी आज्ञा।

इतना कहकर इन्द्रदेव थोड़ी देर के लिए कहीं चले गये और तब भैरोसिंह तथा तारासिंह को साथ लिये आकर बोले, ‘‘भोजन तैयार है।’’

सबकोई वहाँ से उठे और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। जिस तरह इन्द्रदेव इन लोगों को अपने स्थान में ले आये थे, उसी तरह पुनः उस तिलिस्मी बाग में ले गये, जिसमें से लाये थे।

जब महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह उस बारहदरी में पहुँचे, जिसमें पहिले दिन आराम किया था और जहाँ बाजे की आवाज सुनी थी, तब दिन पहर-भर से कुछ ज्यादे बाकी था। जीतसिंह ने इन्द्रदेव से पूछा, ‘‘अब क्या करना चाहिए?’’

इन्द्रदेव : यदि महाराज आज की रात यहाँ रहना पसन्द करें तो एक दूसरे बाग में चलकर वहाँ की कुछ कैफियत दिखाऊँगा!

जीत : बहुत अच्छी बात है, चलिए।

इतना सुनकर इन्द्रदेव ने उस बारहदरी की कई आलमारियों में से एक आलमारी खोली और उसके अन्दर जाकर सभों को अपने पीछे आने का इशारा किया। यहाँ एक गली के तौर पर रास्ता बना हुआ था, जिसमें सब कोई इन्द्रदेव की इच्छानुसार बेखौफ चले गये और थोड़ी दूर जाने के बाद, जब इन्द्रदेव ने दूसरा दरवाजा खोला, तब उसके बाहर होकर सभों ने अपने को एक छोटे बाग में पाया, जिसकी बनावट कुछ विचित्र ही ढंग की थी। यह बाग जंगली पौधों की सब्जी से हरा-भरा था, और पानी का चश्मा भी बह रहा था, मगर चारदीवारी के अतिरिक्त और किसी तरह की बड़ी इमारत इसमें न थी। हाँ, बीच में एक बहुत बड़ा चबूतरा जरूर था, जिस पर धूप और बरसाती पानी के लिए सिर्फ मोटे-मोटे बारह खम्भों के सहारे पर छत बनी हुई थी और चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों तरफ सीढ़ियाँ थीं।

यह चबूतरा कुछ अजीब ढंग का बना हुआ था। लगभग चालीस हाथ के चौड़ा और इतना ही लम्बा होगा। इसके फर्श में लोहे की बारीक नालियाँ जाल की तरह जड़ी हुई थीं, और बीच में एक चौखूटा स्याह पत्थर इस अन्दाज का रक्खा था, जिस पर चार आदमी बैठ सकते थे। बस इसके अतिरिक्त इस चबूतरे में और कुछ भी न था।

थोड़ी देर तक सबकोई उस चबूतरे की बनावट देखते रहे, इसके बाद इन्द्रदेव ने महाराज से कहा, ‘‘तिलिस्म बनानेवालों ने यह बगीचा केवल तमाशा देखने के लिए बनाया था। यहाँ की कैफियत आपके साथ रहकर मैं नहीं दिखा सकता हाँ, यदि आप मुझे दो-तीन पहर की छुट्टी दें तो...!!

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