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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

तेरहवाँ बयान


रात घण्टे-भर से कुछ ज्यादा जा चुकी है। पहाड़ के एक सूनसान दर्रे में जहाँ किसी आदमी का जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव जान पड़ता है, सात आदमी बैठे हुए किसी के आने का इन्तजार कर रहे हैं और उन लोगों के पास ही एक लालटेन जल रही है। यह स्थान चुनारगढ़ के तिलिस्मी मकान से लगभग छः-सात कोस की दूरी पर होगा। यह दो पहाड़ों के बीच वाला दर्रा बहुत बड़ा पेचीला ऊँचा-नीचा और ऐसा भयानक था कि साधारण मनुष्य काँपते हुए कलेजे को सम्हाल नहीं सकता था। इस दर्रे में बहुत सी गुफाएँ हैं, जिनमें सैकड़ों आदमी आराम से रहकर दुनियादारों की आँखों से, बल्कि वहम और गुमान से भी अपने को छिपा सकते हैं, और इसी से समझ लेना चाहिए कि यहाँ ठहरने या बैठनेवाला आदमी साधारण नहीं, बल्कि बड़े जीवट और कड़े दिल का होगा।

ये सातों आदमी, जिन्हें हम बेफिक्री के साथ बैठे देखते हैं, भूतनाथ के साथी हैं और उसी की आज्ञानुसार ऐसे स्थान में अपना घर बनाये पड़े हुए हैं। इस समय भूतनाथ यहाँ आने वाला है। अस्तु, ये लोग भी उसी का इन्तजार कर रहे हैं।

इसी समय भूतनाथ भी उन दोनों नकाबपोशों को जिन्हें आज ही धोखा देकर गिरफ्तार किया था, लिये हुए आ पहुँचा। भूतनाथ को देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए और बेहोश नकाबपोशों की गठरी उतारने में सहायता दी।

दोनों बेहोश जमीन पर सुला दिये गये और इसके बाद भूतनाथ ने अपने एक साथी की तरफ देखकर कहा, "थोड़ा पानी ले जाओ, मैं इन दोनों के चेहरे धोकर देखा चाहता हूँ।"

इतना सुनते ही एक आदमी दौड़ता हुआ चला गया और थोड़ी ही दूर पर एक गुफा के अन्दर घुसकर पानी का भरा हुआ लोटा लेकर चला आया। भूतनाथ ने बड़ी होशियारी से (जिसमें उनका कपड़ा भीगने न पावे) दोनों नकाबपोशों का चेहरा धोकर लालटेन की रोशनी में गौर से देखा, मगर किसी तरह का फर्क न पाकर धीरे से कहा, "इन लोगो का चेहरा रंगा हुआ नहीं है।"

इसके बाद भूतनाथ ने उन दोनों को लखलखा सुँघाया, जिससे वे तुरत ही होश में आकर उठ बैठे और घबराहट के साथ चारों तरफ देखने लगे। लालटेन की रोशनी में भूतनाथ के चेहरे पर निगाह पड़ते ही उन दोनों ने भूतनाथ को पहिचान लिया और हँसकर उससे कहा, "बहुत खासे! तो ये सब जाल आपही के रचे हुए थे?"

भूतनाथ : जी हाँ, मगर आप इस बात का खयाल भी अपने दिल में न लाइयेगा कि मैं आपको दुश्मनी की नीयत से पकड़ लाया हूँ।

एक नकाबपोश : (हँसकर) नहीं नहीं, यह बात हम लोगों के दिल में नहीं आ सकती और न तुम हमें किसी तरह का नुकसान ही पहुँचा सकते हो, मगर मैं यह पूछता हूँ कि तुम्हें कार्रवाई के करने से फायदा क्या होगा?

भूतनाथ : आप लोगों से किसी तरह का फायदा उठाने की भी मेरी नीयत नहीं है। मैं तो केवल दो-चार बातों का जवाब पाकर ही अपनी दिलजमई कर लूँगा और इसके बाद आप लोगों को उसी ठिकाने पहुँचा दूँगा जहाँ से ले आया हूँ।

नकाबपोश : मगर तुम्हारा यह भी खयाल ठीक नहीं है, क्योंकि तुम खुद समझ गये होगे कि हम लोग थोड़े ही दिनों के लिए अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए हैं और अपना भेद प्रकट होने नहीं देते, इसके बाद हम लोगों का भेद छिपा नहीं रहेगा। अस्तु, इस बात को जानकर भी तुम्हें इतनी जल्दी क्यों पड़ी है और क्यों तुम्हारे पेट में चूहे कूद रहे हैं? क्या तुम नहीं जानते कि स्वयं महाराज सुरेन्द्रसिंह और राजा बीरेन्द्रसिंह हम लोगों का भेद जानने के लिए बेताब हो रहे थे, मगर कई बातों पर ध्यान देकर हम लोगों ने अपना भेद खोलने से इनकार कर दिया और कह दिया कि कुछ दिन सब्र कीजिए, फिर आप-से-आप हम लोगों का भेद खुल जायगा, फिर तुम हो क्या चीज जो तुम्हारे कहने से हम लोग अपना भेद खोल देंगे?

नकाबपोश की कुरुखी मिली हुई बातें सुनकर यद्यपि भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया, मगर क्रोध करने का मौका न देख वह चुप रह गया और नरमी के साफ फिर बातचीत करने लगा।

भूतनाथ : आपका कहना ठीक है मैं इस बात को खूब जानता हूँ, मगर मैं उन भेदों को खुलवाना नहीं चाहता, जिन्हें हमारे महाराज जानना चाहते हैं, मैं तो केवल दो-चार मामूली बातें आप लोगों से पूछना चाहता हूँ, जिनका उत्तर देने में न तो आप लोगों का भेद ही खुलता है और न आप लोगों का कोई हर्ज ही होगा। इसके अतिरिक्त मैं वादा करता हूँ कि मेरी बातों का जोकुछ आप जवाब देंगे उसे मैं किसी दूसरे पर तब तक प्रकट न करूँगा, जब तक आप लोग अपना भेद न खोंलेगे।

नकाबपोश : (कुछ सोचकर) अच्छा पूछो क्या पूछते हो?

भूतनाथ : पहिली बात मैं यह पूछता हूँ कि देवीसिंह के साथ मैं आप लोगों के मकान में गया था, यह बात आपको मालूम है या नहीं?

नकाबपोश : हाँ, मालूम है।

भूतनाथ : खैर, और दूसरी बात यह है कि वहाँ मैंने अपने लड़के हरनामसिंह को देखा, क्या वह वास्तव में हरनामसिंह ही था?

नकाबपोश : (कुछ क्रोध की निगाह से भूतनाथ को देखकर) हाँ, था तो सही, फिर?

भूतनाथ : (लापरवाही के साथ) कुछ नहीं, मैं केवल अपना शक मिटाना चाहता था। अच्छा अब तीसरी बात यह जानना चाहता हूँ कि वहाँ देवीसिंह ने अपनी स्त्री को और मैंने अपनी स्त्री को देखा था, क्या वे दोनों वास्तव में हम दोनों की स्त्रियाँ थीं या कोई और?

नकाबपोश : चम्पा के बारे में पूछनेवाले तुम कौन हो? हाँ, अपनी स्त्री के बारे में पूछ सकते हो, सो मैं साफ कह देता हूँ कि वह बेशक तुम्हारी स्त्री रामदेई थी।

यह जवाब सुनते ही भूतनाथ चौंका और उसके चेहरे पर क्रोध और ताज्जुब की निशानी दिखायी देने लगी। भूतनाथ को निश्चय था कि उसकी स्त्री का असली नाम रामदेई किसी को मालूम नहीं है, मगर इस समय एक अनजान आदमी के मुँह से उसका नाम सुनकर भूतनाथ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और इस बात पर उसे क्रोध भी चढ़ आया कि मेरी स्त्री इन लोगों के पास क्यों आयी, क्योंकि वह एक ऐसे स्थान पर थी, जहाँ उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई जा नहीं सकता था, ऐसी अवस्था में निश्चय है कि वह अपनी खुशी से बाहर निकली और इन लोगों के पास आयी। केवल इतना ही नहीं उसे इस बात के खयाल से और भी रंज हुआ कि मुलाकात होने पर भी उसकी स्त्री ने उससे अपने को छिपाया, बल्कि एक तौर पर धोखा देकर बेवकूफ बनाया—आदि इसी तरह की बातों को परेशानी और रंज के साथ भूतनाथ सोचने लगा।

नकाबपोश : अब जो कुछ पूछना था पूछ चुके या अभी कुछ बाकी है?

भूतनाथ : हाँ, अभी कुछ और पूछना है।

नकाबपोश : तो जल्दी से पूछते क्यों नहीं, सोचने क्या लग गये?

भूतनाथ : अब यह पूछना है कि मेरी स्त्री आप लोगों के पास कैसे आयी और वह खुद आप लोगों के पास आयी, या उसके साथ जबर्दस्ती की गयी?

नकाबपोश : अब तुम दूसरी राह चले, इस बात का जवाब हम लोग नहीं दे सकते।

भूतनाथ : आखिर इसका जवाब देने में हर्ज ही क्या है?

नकाबपोश : हो या न हो, मगर हमारी खुशी भी तो कोई चीज है।

भूतनाथ : (क्रोध में आकर) ऐसी खुशी से काम नहीं चलेगा, आपको मेरी बातों का जवाब देना ही पड़ेगा।

नकाबपोश : (हँसकर) मानो आप हम लोगों पर हूकूमत कर रहे हैं और जबर्दस्ती पूछ लेने का दावा रखते हैं?

भूतनाथ : क्यों नहीं, आखिर आप लोग इस समय मेरे कब्जे में है।

इतना सुनते ही नकाबपोश को भी क्रोध चढ़ आया और उसने तीखी आवाज में कहा, "इस भरोसे न रहना कि हम लोग तुम्हारे कब्जे में हैं, अगर अब तक नहीं समझते थे, तो अब समझ रक्खो कि उस आदमी का तुम कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते जो अपने हाथों से तुम्हारे छिपे हुए ऐबों की तस्वीर बनानेवाला है। हाँ हाँ, बेशक तुमने वह तस्वीर भी हमारे मकान में देखी होगी, अगर सचमुच अपने लड़के हरनामसिंह को उस दिन देख लिया है तो।"

यह एक ऐसी बात थी, जिसने भूतनाथ के होशहवास दुरुस्त कर दिये। अब तक जिस जोश और दिमाग के साथ वह बैठा बातें कर रहा था, वह बिल्कुल जाता रहा और घबराहट तथा परेशानी ने उसे अपना शिकार बना लिया। वह उखड़कर खड़ा हो गया और बेचैनी के साथ इधर-उधर टहलने लगा। बड़ी मुश्किल से कुछ देर में उसने अपने को सम्हाला और तब नकाबपोश की तरफ देखकर पूछा, "क्या वह तस्वीर आपके हाथ की बनाई हुई थी?"

नकाबपोश : बेशक!

भूतनाथ : तो आपही ने उस आदमी को वह तस्वीर दी भी होगी, जो मुझ पर उस तस्वीर की बाबत दावा करने के लिए कहता था!

नकाबपोश : इस बात का जवाब नहीं दिया जायगा।

भूतनाथ : तो क्या आप मेरे उन भेदों को दरबार में खोला चाहते हैं?

नकापबोश : अभी तक तो ऐसा करने का इरादा नहीं था, मगर अब जैसा मुनासिब समझा जायगा, वैसा किया जायगा।

भूतनाथ : उन भेदों को आपके अतिरिक्त आपकी मण्डली में और भी कोई जानता है?

नकाबपोश : इसका जवाब देना भी उचित नहीं जान पड़ता।

भूतनाथ : आप बड़ी जबर्दस्ती करते हैं!

नकाबपोश : जबर्दस्ती करने वाले तो तुम थे, मगर अब क्या हो गया?

भूतनाथ : (तेजी के साथ) मुमकिन है कि मैं अब भी जबर्दस्ती का बर्ताव करूँ। कोई क्या जान सकता है कि तुम लोगों को कौन उठा ले गया?

नकाबपोश : (हँसकर) ठीक है, तुम समझते हो कि यह बात किसी को मालूम न होगी कि हम लोगों को भूतनाथ उठा ले गया है।

भूतनाथ : (जोर देकर) ऐसा ही है, इसके विपरीत भी क्या कोई समझा सकता है?

इतने ही में थोड़ी दूर पर से यह आवाज आयी, "हाँ समझा सकता है और विश्वास दिला सकता है कि यह बात छिपी हुई नहीं है।"

अब तो भूतनाथ की कुछ विचित्र ही हालत हो गयी। वह घबड़ाकर उस तरफ देखने लगा, जिधर से आवाज आयी थी और फुर्ती के साथ अपने आदमियों से बोला, "पकड़ो जाने न पाये!"

भूतनाथ के आदमी तेजी के साथ उस बोलनेवाले की खोज में दौड़ गये, मगर नतीजा कुछ भी न निकला अर्थात् वह आदमी गिरफ्तार न हुआ। और भागकर निकल गया यह हाल देख दोनों नकाबपोशों ने खिलखिलाकर हँस दिया और कहा, "क्यों अब तुम अपनी क्या राय कायम करते हो?"

भूतनाथ : हाँ, मुझे विश्वास हो गया कि आपका यहाँ रहना छिपा नहीं रहा अथवा हमारे पीछे आपका कोई आदमी यहाँ तक जरूर आया है। इसमें कोई शक नहीं कि आप लोग अपने काम में पक्के हैं, कच्चे नहीं, मगर ऐयारी के फन में मैंने आपको दबा लिया।

नकाबपोश : यह दूसरी बात है, तुम ऐयार हो और हम लोग ऐयारी नहीं जानते, मगर इतना होने पर भी तुम हमारे लिये दिन-रात परेशान रहते हो और कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता। मगर भूतनाथ, हम तुमसे फिर भी यही कहते हैं कि हम लोगों के फेर में न पड़ो और कुछ दिन सब्र करो, फिर आप-से-आप तुम्हें हम लोगों का हाल मालूम हो जायगा। ताज्जुब है कि तुम इतने बड़े ऐयार होकर जल्दबाजी के साथ ऐसी ओछी कार्रवाई करके खुद-ब-खुद अपना काम बिगाड़ने की कोशिश करते हो! उस दिन दरबार में तुम देख चुके हो और जान भी चुके हो कि हम लोग तुम्हारी तरफदारी करते हैं, तुम्हारे ऐबों को छिपाते हैं और तुम्हें एक विचित्र ढंग से माफी दिलाकर खास महाराज का कृपापात्र बनाया चाहते हैं, फिर क्या सबब है कि तुम हम लोगों का पीछा करके खामखाह हमारा क्रोध बढ़ा रहे हो?

भूतनाथ : (गुस्से को दबाकर नर्मी के साथ) नहीं नहीं, आप इस बात का गुमान भी न कीजिए कि मैं आप लोगों को दुःख दिया चाहता हूँ और...

नकाबपोश : (बात काटके लापरवाही के साथ) दुःख देने की बात मैं नहीं करता, क्योंकि तुम हम लोगों को दुःख दे ही नहीं सकते।

भूतनाथ : खैर, न सही मगर मैं अपने दिल की बात कहता हूँ कि किसी बुरे इरादे से मैं आपलोगों का पीछा नहीं करता, क्योंकि मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि आप लोग मेरे सहायक हैं, मगर क्या करूँ अपनी स्त्री को आपके मकान में देखकर हैरान हूँ और मेरे दिल के अन्दर तरह-तरह की बातें पैदा हो रही हैं। आज मैं इसी इरादे से आप लोगों को यहाँ ले आया था कि जिस तरह हो सके अपनी स्त्री का असल भेद मालूम कर लूँ।

नकाबपोश : जिस तरह हो सके के क्या मानी? हम कह चुके हैं कि तुम हमें किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुँचा सकते और न डरा-धमकाकर ही कुछ पूछ सकते हो, क्योंकि हम लोग बड़े ही जबर्दस्त हैं।

भूतनाथ : अब इतनी ज्यादे शेखी तो न बघारिए, क्या आप ऐसे मजबूत हो गये कि हमारा हाथ कोई काम कर ही नहीं सकता है!

नकाबपोश : हमारे कहने का मतलब यह नहीं है, बल्कि यह है कि ऐसा करने से तुम्हें कोई फायदा नहीं हो सकता, क्योंकि हमारे संगी साथी सभी कोई तुम्हारे भेदों को जानते हैं, मगर तुम्हें नुकसान पहुँचाना नहीं चाहते। हमारी ही तरफ ध्यान देकर देख लो कि तुम्हारे हाथों दुःखी होकर भी तुम्हें दुःख देना नहीं चाहते, और जोकुछ तुम कर चुके हो उसे सहकर बैठे हैं।

भूतनाथ : हमने आपको क्या दुःख दिया है?

नकाबपोश : अगर हम इस बात का जवाब देंगे तो तुम औरों को तो नहीं, मगर हमें पहिचान जाओगे।

भूतनाथ : अगर आपको पहिचान भी जाऊँगा तो क्या हर्ज है? मैं फिर प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि जब तक आप स्वयं अपना भेद न खोंलेगे, तब तक मैं अपने मुँह से कुछ भी किसी के सामने न कहूँगा, आप इसका निश्चय रखिए।

नकाबपोश : (कुछ सोचकर) मगर हमारा जवाब सुनकर तुम्हें गुस्सा बढ़ आवेगा और ताज्जुब नहीं कि खंजर का वार कर बैठो।

भूतनाथ : नहीं नहीं, कदापि नहीं, क्योंकि मुझे अब निश्चय हो गया कि आपका यहाँ आना छिपा नहीं है, अगर मैं आपके साथ कोई बुरा बरताब करूँगा तो किसी लायक न रहूँगा।

नकाबपोश : हाँ, ठीक है और बेशक बात भी ऐसी ही है। (फिर कुछ सोचकर) अच्छा तो अब तुम्हारी उस बात का जवाब देता हूँ, सुनो और अपने कलेजे को अच्छी तरह सम्हालो।

भूतनाथ : कहिए मैं हर तरह से सुनने को तैयार हूँ।

नकाबपोश : उस पीतलवाली सन्दूकड़ी में जिसके खुलने से तुम डरते हो, जोकुछ है, वह हमारे ही शरीर का खून है, उसे तुम हमारे ही सामने से उठा ले गये थे, और हमारा ही नाम ‘दलीपशाह' है।

यह एक ऐसी बात थी कि जिसके सुनने की उम्मीद भूतनाथ को नहीं हो सकती थी और न भूतनाथ में इतनी ताकत थी कि ये बातें सुनकर भी वह अपने-आप को नहीं सम्हाले रहता। उसका चेहरा एकदम जर्द पड़ गया, कलेजा धड़कने लगा, हाथ पैर में कँपकँपी होने लगी, और वह सकते की सी हालत में ताज्जुब के साथ नकाबपोश के चेहरे पर गौर करने लगा।

नकाबपोश : तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास हुआ या नहीं!

भूतनाथ : नहीं, तुम दलीपशाह कदापि नहीं हो सकते, यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है, मगर मैं उसके पहिचानने में गलती नहीं कर सकता, और न इसी बात की उम्मीद हो सकती है कि दलीपशाह मुझे माफ कर देगा, या मेरे साथ दोस्ती का बर्ताव करेगा।

नकाबपोश : तो मुझे दलीपशाह होने के लिए कुछ और भी सबूत देना पड़ेगा और उस भयानक रात की ओर इशारा करना पड़ेगा, जिस रात को तुमने वह कार्रवाई की थी, जिस रात को घटाटोप अँधरी छायी हुई थी, बादल गरज रहे थे, बार-बार बिजली चमककर औरतों के कलेजे को दहला रही थी, बल्कि उसी समय एक दफे बिजली तेजी के साथ चमककर पास ही वाले खजूर के पेड़ पर गिरी थी, और तुम स्याह कम्बल की घोंघी लगाये आम की बारी में घुसकर यकायक गायब हो गये थे। कहो कि और भी परिचय दूँ या बस!

भूतनाथ : (काँपती हुई आवाज में ) बस बस, मैं ऐसी बातें सुना नहीं चाहता। (कुछ रुककर) मगर मेरा दिल यही कह रहा है कि तुम दलीपशाह नहीं हो।

नकाबपोश : हाँ! तब तो मुझे कुछ और भी कहना पड़ेगा। जिस समय तुम घर के अन्दर घुसे थे, तुम्हारे हाथ में स्याह कपड़े का एक बहुत बड़ा लिफाफा था, जब मैंने तुम पर खंजर का वार किया, तब वह लिफाफा तुम्हारे हाथ से गिर पड़ा और मैंने उठा लिया, जो, अभी तक मेरे पास मौजूद है, अगर तुम चाहों तो मैं दिखा सकता हूँ।

भूतनाथ : (जिसका बदन डर के मारे काँप रहा था) बस बस बस, मैं तुम्हें कह चुका हूँ और फिर कहता हूँ कि ऐसी बातें सुना नहीं चाहता और न इसके सुनने से मुझे विश्वास ही हो सकता है कि तुम दलीपशाह हो। मुझ पर दया करो और अपनी चलती-फिरती जुबान रोको!

नकाबपोश : अगर विश्वास नहीं हो सकता तो मैं कुछ और अगर तुम न सुनोगे तो अपने साथी को सुनाऊँगा। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देखके) मैं उस समय अपनी चारपाई के पास बैठा कुछ लिख रहा था, जब यह भूतनाथ मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। कम्बल की घोंघी एक क्षण के लिए इसके आगे की तरफ से हट गयी थी और इसके कपड़े पर पड़े हुए खून के छीटे दिखायी दे रहे थे। यद्यपि मेरी तरह इसके चेहरे पर भी नकाब पड़ी हुई थी, मगर मैं खूब समझता था कि यह भूतनाथ है। मैं उठ खड़ा हुआ और फुर्ती के साथ इसके चेहरे पर से नकाब हटाकर इसकी सूरत देख ली। उस समय इसके चेहरे पर भी खून के छीटे पड़े हुए दिखायी दिये। भूतनाथ ने मुझे डाँटकर कहा कि ‘तुम हट जाओ और मुझे अपना काम करने दो'। तब तक मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह मेरे पास क्यों आया है और क्या चाहता है। जब मैंने पूछा कि ‘तुम क्या चाहते हो और मैं यहाँ से क्यों हट जाऊँ' तब इसने मुझ पर खंजर का वार किया, क्योंकि यह उस समय बिल्कुल पागल हो रहा था और मालूम होता था कि इस समय अपने पराये को पहिचान नहीं सकता...

भूतनाथ : (बात काटकर) ओफ, बस करो, वास्तव में इस समय मुझमें अपने पराये को पहिचानने की ताकत न थी, मैं अपनी गरज में मतवाला और साथ ही इसके अन्धा भी हो रहा था!

नकाबपोश : हाँ हाँ, सो तो मैं खुद ही कह रहा हूँ, क्योंकि तुमने उस समय अपने प्यारे लड़के को कुछ भी नहीं पहिचाना और रुपये की लालच ने तुम्हें मायारानी के तिलिस्मी दारोगा का हुक्म मानने पर मजबूर किया। (अपने साथी नकाबपोश की तरफ देखकर) उस समय उसकी स्त्री अर्थात् कमला की माँ इससे रंज होकर मेरे ही घर में आयी और छिपी हुई थी और जिस चारपाई के पास मैं बैठा हुआ लिख रहा था, उसी पर उसका छोटा बच्चा अर्थात् कमला का छोटा भाई सो रहा था, उसकी माँ अन्दर के दालान में भोजन कर रही थी और उसके पास उसकी बहिन अर्थात् भूतनाथ की साली भी बैठी हुई अपने दुःख-दर्द की कहानी के साथ ही इसकी शिकायत भी कर रही थी, उसका छोटा बच्चा उसकी गोद में था, मगर भूतनाथ...

भूतनाथ : (बात काटता हुआ) ओफ ओफ! बस करो, मैं सुनना नहीं चाहता तु तु तु तुम मैं...

इतना कहता हुआ भूतनाथ पागलों की तरह इधर-उधर घूमने लगा और फिर चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

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