मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 5 चन्द्रकान्ता सन्तति - 5देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
ग्यारहवाँ बयान
नकाबपोशों के चले जाने बाद जब केवल घरवाले ही वहाँ रह गये, तब राजा बीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता से तारासिंह की बाबत जोकुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं, कुछ घटा-बढ़ाकर बयान किया और इसके बाद कहा, "तारासिंह नकाबपोशों के सामने ही लौटकर आ गया था, जिससे अभी तक यह पूछने का मौका न मिला कि वह कहाँ गया था और वह तस्वीर उसे कहाँ से मिली थी, जो उसने अपनी माँ को दी थी।"
इतना कहकर बीरेन्द्रसिंह चुप हो गये और देवीसिंह ने वह कपड़ेवाली तस्वीर (जो चम्पा ने दी थी) महाराज सुरेन्द्रसिंह के सामने रख दी। सुरेन्द्रसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा और इसके बाद तारासिंह से पूछा—"निःसन्देह यह तस्वीर किसी अच्छे कारीगर के हाथ की बनी हुई है, यह तुम्हें कहाँ से मिली?"
तारा : मैं स्वयम् इस तस्वीर का हाल अर्ज करने वाला था, परन्तु इसके सम्बन्ध में कई ऐसी बातों को जानना आवश्यक था, जिनके बिना इसका पूरा भेद मालूम नहीं हो सकता, अतएव मैं उन्हीं बातों के जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था और इसी सबब से अभी तक कुछ अर्ज करने की नौबत नहीं आयी।
तेज : तो क्या तुम्हें इसका पूरा-पूरा भेद मालूम हो गया?
तारा: जी नहीं, मगर कुछ-कुछ जरूर मालूम हो गया है?
तेज : तो इस काम में तुमने अपने साथियों से मदद क्यों नहीं ली?
तारा : अभी तक मदद की जरूरत नहीं पड़ी थी, मगर हाँ, अब मदद लेनी पड़ेगी।
बीरेन्द्र : खैर, बताओ कि इस तस्वीर को तुमने क्योंकर पाया?
तारा : (इधर-उधर देखकर) भूतनाथ की स्त्री से।
तारासिंह की इस बात को सुनकर सबकोई चौंक पड़े, खासकर देवीसिंह को तो बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने हैरत की निगाह से अपने लड़के तारासिंह की तरफ देखकर पूछा—
देवी : भूतनाथ की स्त्री तुम्हें कहाँ मिली?
तारा : उसी जंगल में, जिसमें आपने और भूतनाथ ने उसे देखा था, बल्कि उसी झोपड़ी में, जिसमें भूतनाथ और आप उसके साथ गये थे और लाचार होकर लौट आये थे। आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री ही थी।
देवी : (आश्चर्य से) हैं, क्या वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी।
तारा : जी हाँ, आप और भूतनाथ नकाबपोशी के फेर में यद्यपि कई दिनों तक परेशान हुए, परन्तु उतना हाल मालूम न कर सके, जितना मैं जान आया हूँ।
इस समय दरबार में आपुसवालों के सिवाय कोई गैर आदमी ऐसा न था, जिसके सामने इस तरह की बातों के कहने-सुनने में किसी तरह का खयाल होता, अतएव बड़ी उत्कण्ठा के साथ सबकोई तारासिंह की बातें सुनने के लिए तैयार हो गये और देवीसिंह का तो कहना ही क्या, जिनका दिल तूफान से पड़े हुए जहाज की तरह हिंडोले खा रहा था। उन्हें यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि अगर वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी तो दूसरी औरत भी जरूर चम्पा ही रही होगी, जिसे नकाबपोशों के मकान में देखा गया था। अस्तु, बड़े ताज्जुब के साथ अपने लड़के तारासिंह से पूछा, "क्या तुम बता सकते हो कि जिन दो औरतों को नकाबपोशों के मकान में देखा था, वे कौन थी?"
तारा : उनमें से एक तो जरूर भूतनाथ की स्त्री थी, मगर दूसरी के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं लगा।
देवी : (कुछ सोचकर) दूसरी तुम्हारी माँ होगी?
तारा : शायद ऐसा हो मगर विश्वास नहीं होता?
तेज : तुम्हें यह कैसे निश्चय हुआ कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी?
तारा : उसने स्वयं भूतनाथ की स्त्री होना स्वीकार किया, बल्कि और भी बहुत सी बातें ऐसी कहीं, जिससे किसी तरह का शक नहीं रहा।
देवी : और तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि नकाबपोशों के घर में जाकर हम लोगों ने किसे देखा या जंगल में भूतनाथ की स्त्री हम लोगों को मिली थी और हम लोग उसके पीछे-पीछे एक झोपड़ी में जाकर सूखे हाथ लौट आये थे?
तारा : यह सब हाल मुझे बखूबी मालूम है और उस समय मैं भी उसी जंगल में था, जिस समय आपने भूतनाथ की स्त्री को देखा था और उसके पीछे-पीछे गये थे। इस समय आप यह सुनकर और ताज्जुब करेंगे कि आपसे अलग होकर भूतनाथ ने उसी दिन अर्थात् कल सन्ध्या के समय उन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार कर लिया, जिनकी सूरत यहाँ दरबार में देखकर दारोगा और जैपाल बदहवास हो गये थे।
बीरेन्द्र : (ताज्जुब से) हैं! मगर वे दोनों नकाबपोश तो आज भी यहाँ आये थे, जिनका जिक्र तुम कर रहे हो।
तारा : जी हाँ, उन्हें तो मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि भूतनाथ ने कल जिन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार किया है, उनकी सूरतें ठीक वैसी ही है जैसी दारोगा और जैपाल ने यहाँ देखी थीं, चाहे ये लोग हों कोई भी।
तेज : और भूतनाथ ने उन्हें गिरफ्तार कहाँ पर किया?
तारा : उसी खोह के मुहाने पर उसने उन्हें धोखा दिया, जिसमें नकाबपोशों लोग रहते थे।
देवी : मालूम होता है कि हम लोगों की तरह तुम भी कई दिनों से नकाबपोशों की खोज में पड़े हो?
तारा : खोज में नहीं बल्कि फेरे में?
बीरेन्द्र : खैर, तुम खुलासे तौर पर सब हाल बयान कर जाओ, इस तरह पूछने और कहने से काम नहीं चलेगा।
तारा : जो आज्ञा, मगर मेरा हाल कुछ बहुत लम्बा-चौड़ा नहीं, केवल इतना ही कहना है कि मैं भी पाँच-सात दिन से उन नकाबपोशों के फेर में पड़ा हूँ और इत्तिफाक से मैं भी उसी खोह के अन्दर जा पहुँचा, जिसमें वे लोग रहते हैं। (कुछ सोच और जीतसिंह की तरफ देखकर) अगर कोई हर्ज न हो तो दो घण्टे बाद मुझसे मेरा हाल पूछा जाय।
जीत : (महाराज की तरफ देखकर और कुछ इशारा पाकर) खैर, कोई चिन्ता नहीं, मगर यह बताओ कि इस दो घण्टे के अन्दर तुम क्या काम करोंगे।
तारा : कुछ भी नहीं, मैं केवल अपनी माँ से मिल लूँगा और स्नान ध्यान से छुट्टी पा लूँगा।
देवी : (धीरे से) आजकल के लड़के भी कुछ विचित्र ही पैदा होते हैं, खास करके ऐयार के।
इसके जवाब में तारासिंह ने अपने पिता की तरफ देखा और मुस्कुराकर सर झुका लिया। यह बात देवीसिंह को कुछ बुरी मालूम हुई, मगर बोलने का मौका न देखकर चुप रह गये।
तेज : (तारा से) आज जब हम लोग तुम्हारे न मिलने से परेशान थे तो हमारी परेशानी को देखकर नकाबपोशों ने कहा था कि तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि वह घण्टे-भर के अन्दर ही यहाँ आ पहुँचेगा और वास्तव में हुआ भी ऐसा ही, तो क्या नकाबपोशों को तुम्हारा हाल मालूम था? यह बात नकाबपोशों से भी पूछी गयी थी, मगर उन्होंने कुछ जवाब न दिया और कहा कि इसका जवाब तारा ही देगा'।
तारा : नकाबपोशों की सभी बातें ताज्जुब की होती हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें मेरा हाल क्योंकर मालूम हुआ।
तेज : क्या तुम्हें इस बात की खबर है कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने तुम्हें और भैरोसिंह को बुलाया है?
तारा : जी नहीं।
तेज : (कुमार की चीठी तारा को दिखाकर) लो इसे पढ़ो।
तारा : (चीठी पढ़कर) नकाबपोशों ही के हाथ यह चीठी आयी होगी?
तेज : हाँ, और उन्हीं नकाबपोशों के साथ तुम दोनों को जाना भी पड़ेगा।
तारा : जब मर्जी होगी हम दोनों चले जायेंगे।
इसके बाद महाराज की आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गये। तारासिंह भी महल में अपनी माँ से मिलने के लिए चला गया और घण्टे भर से ज्यादे देर तक उसके पास बैठा बातचीत करता रहा, इसके बाद जब महल से बाहर आया तो सीधे जीतसिंह के डेरे में चला गया और जब मालूम हुआ कि वे महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये हुए हैं तो खुद भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चला गया।
हम नहीं कह सकते कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तारासिंह में देर तक क्या-क्या बातें होती रहीं, हाँ, इसका नतीजा यह जरूर निकला कि तारासिंह पुनः अपना हाल बयान करने से माफी दे दी और तारासिंह को भी जो कुछ कहना सुनना था, महाराज से ही कह सुनकर छुट्टी पा ली। औरों को तो इस बात का खयाल न हुआ, मगर देवीसिंह को यह चालाकी बुरी मालूम हुई और उन्हें निश्चय हो गया कि तारासिंह और चम्पा दोनों माँ बेटे मिले हुए हैं और साथ ही इसके बड़े महाराज भी इस भेद को जानते हैं, मगर ताज्जुब है कि ऐयारों पर प्रकट नहीं करते, इसका कोई न कोई सबब जरूर है, और तब देवीसिंह की हिम्मत न पड़ी कि अपने लड़के को कुछ कहें या डाँटे।
दो घण्टे रात जा चुकी थी, जब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को अपने पास बुलवाया। उस समय जीतसिंह पहिले ही से महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे। अस्तु, जब दोनों आदमी वहाँ आ गये तो घण्टे भर तक तारासिंह के बारे में बातचीत होती रही और इसके बाद महाराज आराम करने के लिए पलँग पर चले गये। बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अपने-अपने कमरे में चले आये।
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