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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

सातवाँ बयान


राजा गोपालसिंह को देखते ही सबकोई उठ खड़े हुए और बारी-बारी से सलाम की रस्म अदा की। इस समय भैरोसिंह ने लक्ष्मीदेवी की आँखों से मिलती हुई राजा गोपालसिंह की उस मुहब्बत, मेहरबानी और हमदर्दी की निगाह पर गौर किया, जिसे आज के थोड़े दिन पहिले लक्ष्मीदेवी बेताबी के साथ ढूँढ़ती थी,  या जिसके न पाने से वह तथा उसकी बहिनें तरह-तरह का इलजाम गोपालसिंह पर लगाने का खयाल कर रही थीं।

सभों की इच्छानुसार राजा गोपालसिंह भी दोनों कुमारों के पास ही बैठ, गये और सभों के कुशल-मंगल पूछने बाद कुमार से बोले, "क्या आपको उस बड़े इलजाम की फिक्र नहीं है, जो चुनार में होनेवाला है, जिसमें भूतनाथ का दिलचस्प मुकद्दमा फैसल किया जायेगा और जिसमें उसके तथा और भी कई कैदियों के सम्बन्ध में एक-से-एक बढ़कर अनूठा हाल खुलेगा? साथ ही इसके मुझे यह भी सन्देह होता है कि आप उनकी तरफ से भी कुछ बेफिक्र हो रहे हैं, जिनके लिए...

इन्द्रजीत : नहीं नहीं, मैं न तो बेफिक्र हूँ और न अपने काम में सुस्ती ही किया चाहता हूँ!

गोपाल : क्या हम लोग नहीं जानते कि इधर के कई दिन आपने किस तरह व्यर्थ नष्ट किये हैं और इस समय भी किस बेफिक्री के साथ बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं?

इन्द्रजीत : (कुछ कहते-कहते रुककर) जी नहीं, इस समय तो हम लोग इन्दिरा का किस्सा सुन रहे थे।

गोपाल : इन्दिरा कहीं भागी नहीं जाती थी, यहाँ नहीं तो चुनार में हर तरह से बेफिक्र होकर आप इसका किस्सा सुन सकते थे, जहाँ और भी कई अनूठे किस्से आप सुनेगें। खैर, बताइए कि आप इन्दिरा का किस्सा सुन चुके या नहीं?

इन्द्रजीत : हाँ और सब किस्सा तो सुन चुका केवल इतना सुनना बाकी है कि आपकी वह तिलिस्मी किताब क्योंकर इसके हाथ लगी और यह उस पुतली की सूरत में क्यों वहाँ रहा करती थी।

गोपाल : इतना किस्सा आप तिलिस्मी कार्रवाई से छुट्टी पाकर सुन लीजियेगा और खैर, अगर इस पर ऐसा ही जी लगा हुआ है तो मैं मुख्तसर में आपको समझाये देता हूँ क्योंकि मैं यह सब हाल इन्दिरा से सुन चुका हूँ। असल यह है कि मेरे यहाँ दो ऐयार हरनामसिंह और बिहारीसिंह रहते थे। वे रुपये की लालच में पड़कर कमबख्त मायारानी से मिल गये थे और मुझे कैदखाने में पहुँचाने के बाद वे लोग उसी की इच्छानुसार काम करते थे, मगर बुरी राह चलनेवालों को या बुरों का संग करनेवालों को जोकुछ फल मिलता है, वही उन्हें भी मिला, अर्थात् एक दिन मायारानी ने धोखा देकर उन्हें खास बाग के एक गुप्त कूएँ मैं ढकेल दिया* जिसके बारे में वह केवल इतना ही जानती थी कि वह तिलिस्मी ढंग का कूआँ उन लोगों को मार डालने के लिए बना हुआ है, मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कूआँ उन लोगों के लिए बना है, जिन्हें तिलिस्म में कैद करना मंजूर होता है। मायारानी को चाहे यह निश्चय हो गया कि दोनों ऐयार मर गये, लेकिन वास्तव में वे मरे नहीं, बल्कि तिलिस्म में कैद हो गये थे। इस बात को मायारानी बहुत दिनों तक छिपाये रही, लेकिन आखिर एक दिन उसने अपनी लौंडी लीला से कह दिया और लीला से यह बात हरनामसिंह की लड़की ने सुन ली। (*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, आठवाँ भाग, पाँचवाँ बयान।)

जब आपने मुझे कैद से छुड़ाया और मैं खुल्लमखुला पुनः जमानिया का राजा बना तब हरनामसिंह की लड़की फरियाद करने के लिए मेरे पास पहुँची और मुझसे वह हाल कहा। मैंने जवाब में कहा कि वे दोनों ऐयार उस कूएँ में ढकेल देने से मरे नहीं, बल्कि तिलिस्म में कैद हो गये हैं, जिन्हें मैं छुड़ा तो सकता हूँ, मगर उन दोनों ने मेरे साथ दगा की है, इसलिए छुड़ाने योग्य नहीं है और न मैं उन्हें छुड़ाऊँगा ही। इतना सुन वह चली गयी, मगर छिपे-छिपे उसने ऐसा भेद लगाया और चालाकी की, जिसे सुनेंगे तो दंग हो जायेंगे। मुख्तसर यह कि अपने बाप को छुड़ाने की नीयत से उसी लड़की ने मेरी तिलिस्मी किताब चुरायी और उसकी मदद से तिलिस्म के अन्दर पहुँची, मगर उस किताब का मतलब ठीक-ठीक न समझने के सबब से वह न तो अपने बाप को छुड़ा सकी और न खुद ही तिलिस्म के बाहर निकल सकी। हाँ, उसी जगह अकस्मात् इन्दिरा से उसकी मुलाकात हो गयी। इन्दिरा को भी अपनी तरह दुःखी जानकर उसने सब हाल इससे कहा और इन्दिरा ने चालाकी से वह किताब अपने कब्जे में कर ली तथा उससे बहुत कुछ फायदा भी उठाया। तिलिस्म में आने जाने वालों से अपने को बचाने के लिए इन्दिरा उस पुतली की सूरत बनकर रहने लगी, क्योंकि उसी ढंग के कपड़े इन्दिरा को उस पुतली वाले घर से मिल गये थे। जब मैंने इन्दिरा से यह हाल सुना तो बिहारीसिंह और हरनामसिंह तथा उसकी लड़की को बाहर निकाला। वे सब भी चुनारगढ़ पहुँचाये जा चुके हैं। जब आप चुनारगढ़ पहुँचेंगे तो औरों के साथ-साथ उन लोगों का भी तमाशा देखेंगे, तथा...

लक्ष्मीदेवी : (गोपालसिंह से) मगर आप इन बातों को इतना जल्दी-जल्दी और संक्षेप में कहकर कुमारों को भगाना क्यों चाहते हैं? इन्हें यहाँ अगर एक दिन की देर ही हो जायगी तो क्या हर्ज है?

कमलिनी : मेहमानदारी के खायल से जल्द छूटना चाहते हैं!

गोपाल : औरतों का काम तो आवाज कसने का हई है, मगर मैं किसी और ही सबब से जल्दी मचा रहा हूँ। महाराज (बीरेन्द्रसिंह) के पत्र बराबर आ रहे हैं कि दोनों कुमारों को शीघ्र भेज दो, इसके अतिरिक्त वहाँ कैदियों का जवाब हो रहा है और नित्य एक नया रंग खिलता है। वहाँ जितनी आफतें थीं, वह सब जाती रहीं...

लक्ष्मीदेवी : (बात काटकर) तो कुमार को और हम लोगों को आप तिलिस्म के बाहर क्यों नहीं ले चलते? वहाँ से कुमार बहुत जल्दी चुनार पहुँच सकते हैं।

गोपाल : (कुमार से) आप इस समय मेरे साथ, तिलिस्म के बाहर जा सकते हैं, मगर ऐसा न होना न चाहिए। आप लोगों के हाथ से जो कुछ तिलिस्म टूटनेवाला है, उसे तोड़कर ही आपका इस तिलिस्म के अन्दर-ही-अन्दर चुनार पहुँचना उचित होगा। जब आपकी शादी हो जायगी तब मैं आपको यहाँ लाकर अच्छी तरह इस तिलिस्म की सैर कराऊँगा। इस समय मैं (किशोरी, कामिनी, इन्दिरा वगैरह की तरफ बताकर) इन सभों को लेकर खास बाग में जाता हूँ, क्योंकि अब वहाँ सब तरह से शान्ति हो चुकी है और किसी तरह का अन्देशा नहीं। वहाँ आठ-दस दिन रहकर सभों को लिये हुए मैं चुनार चला जाऊँगा और तब उसी जगह आपसे हम लोगों की मुलाकातें होगी।

इन्द्रजीत : जो कुछ आप कहते हैं वही होगा, मगर यहाँ की अद्भुत बातें देखकर मेरे दिल में कई तरह का खुटका बना हुआ है...

गोपाल : यह सब चुनार में निकल जायगा, यहाँ मैं आपको कुछ न बताऊँगा देखिए अब रात बीता चाहती है, सबेरा होने के पहिले ही आपको अपने काम में हाथ लगा देना चाहिए।

लक्ष्मीदेवी : (हँसकर आप क्या आये मानो भूचाल आ गया! अच्छा जल्दी मचायी, बात तक नहीं करने देते! (कुमार से) जरा इन्हें अच्छी तरह जाँच तो लीजिए कहीं कोई ऐयार रूप बदलकर न आया हो।

गोपाल : (इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहकर) बस, आप अब विलम्ब न कीजिए।

इन्द्रजीत : (उठकर) अच्छा तो फिर मैं प्रणाम करता हूँ और भैरोसिंह को भी आपको ही सुपुर्द किये जाता हूँ। (लक्ष्मीदेवी से) आप किसी तरह की चिन्ता न करें, ये (गोपालसिंह) वास्तव में हमारे भाई साहब ही हैं। अस्तु, अब चुनार में पुनः मुलाकात की उम्मीद करता हुआ, मैं आप लोगों से विदा होता हूँ।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराते हुए सभों की तरफ देखा और आनन्दसिंह ने भी बड़े भाई का अनुसरण किया। राजा गोपालसिंह दोनों कुमारों को लिए कमरे के बाहर चले गये और कुछ देर तक बातचीत करने तथा समझा कर विदा करने के बाद पुनः कमरे में चले आये।

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