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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौथा बयान


कमलिनी को देखकर दोनों कुमार शर्माये और मन में तरह-तरह की बातें सोचने लगे। देखते-देखते कमलिनी उनके पास आ गयी और प्रणाम करके बोली, "आप यहाँ जमीन पर क्यों बैठे हैं? उस कमरे में चलकर बैठिए, जहाँ फर्श बिछा है और सब तरह का आराम है।"

इन्द्रजीत : मगर वहाँ अन्धकार तो जरूर होगा?

कमलिनी : जी नहीं, वहाँ बखूबी रोशनी हो रही होगी, (मुस्कुराकर) क्योंकि यहाँ की रानी के मर जाने से यह बाग एक सुघड़ रानी के अधिकार में आ गया है और उसने आपकी खातिर में रोशनी जरूर कर रक्खी होगी।

इन्द्रजीत : (कुछ शर्मिन्दगी के साथ) बस रहने दीजिए, मैं यहाँ की रानियों का मेहमान नहीं बनता, जोकुछ बनना था, सो बन चुका, अब तो तुम्हारी दिल्लगी का निशाना बनूँगा।

कमलिनी : (हाथ जोड़के) मेरी क्या मजाल कि आपसे दिल्लगी करूँ अच्छा, आप मेरे मेहमान बनिए और यहाँ से उठिए।

इन्द्रजीत : क्या तुम नहीं जानती कि यहाँ अपने भी पराये होकर दुःख देने के लिए तैयार हो जाते हैं?

भैरो : (कमलिनी से) आपने खयाल किया या नहीं? यह मेरी पूजा हो रही है।

कमलिनी : होनी ही चाहिए, आप इसी योग्य हैं, (इन्द्रजीतसिंह से) मगर आप मुझ लौंडी पर किसी तरह शक न करें। यदि आप यह समझते हों कि मैं वास्तव में कमलिनी नहीं हूँ तो मैं बहुत-सी बातें उस जमाने की आपको याद दिलाकर अपने पर विश्वास करा सकती हूँ, जिस जमाने में आप तालाबवाले तिलिस्मी मकान में मेरे साथ रहते थे। (उस समय की दो-तीन गुप्त बातों का इशारा करके) कहिए अब भी मुझ पर शक है?

इन्द्रजीत : (बनावटी मुस्कुराहट के साथ) नहीं, अब तुम पर शक तो किसी का नहीं है, मगर रंज जरूर है।

कमलिनी : रंज! सो किस बात का?

इन्द्रजीत : इस बात का कि यहाँ आने पर तुमने जान-बूझके अपने को मुझसे छिपाया और मुझे तरद्ददु में डाला।

कमलिनी : (हँसकर और कुमार का हाथ पकड़ के) अच्छा आप यहाँ से उठिए और उस कमरे में चलिए तो मैं आपकी सब बातों का जवाब दूँगी। आप तो जरा-सी बातों में रंज हो जाते हैं। अगर आपके साथ किसी तरह का मसखरापन किया या हम लोगों को आपसे मिलने नहीं दिया तो आपकी भावज साहेबा ने। अस्तु, आपकी ऐसी बातों का जवाब भी वे ही देंगी और उनसे भी उसी कमरे मे मुलाकात होगी।

इन्द्रजीत : मेरी भावज साहेबा! सो कौन क्या लक्ष्मीदेवी?

कमलिनी : जी हाँ, वे उसी कमरे में बैठी आपका इन्तजार कर रही हैं, चलिए।

इन्द्रजीत : हाँ, उनसे तो मैं जरूर मिलूँगा। जब से मैंने यह सुना है कि ‘तारा लक्ष्मीदेवी है' तभी से मैं उनसे मिलने के लिए बेताब हो रहा हूँ। यह कहकर इन्द्रजीतसिंह उठ खड़े हुए और अपने सूखे हुए कपड़े पहिरकर कमलिनी के साथ उसी कमरे की तरफ चले, जिसमें पहिले भी कई दफे आराम कर चुके थे। उनके पीछे-पीछे आनन्दसिंह और भैरोसिंह भी गये।

इस समय कमलिनी मामूली ढंग में न थी, बल्कि बेशकीमत पोशाक और गहनों से अपने को सजाये हुए थी। एक तो यों ही किशोरी के मुकाबिले की खूबसूरत और हसीन थी, तिस पर इस समय की बनावट और श्रृंगार ने उसे और भी उभाड़ रक्खा था। यद्यपि आज उससे मिलने के पहिले कुमार तरह-तरह की बातें सोच रहे थे, और इन्द्रानी तथा आनन्दीवाले मामले से शर्मिन्दा होकर जल्दी उससे मिलना नहीं चाहते थे, मगर जब सामने आकर खड़ी हो गयी तो सब बातें एक तरह पर थोड़ी देर के लिए भूल गये, और खुशी-खुशी उसके साथ चलकर उस कमरे में जा पहुँचे।

इस कमरे का दरवाजा मालूली ढंग पर बन्द था, जो कमलिनी के धक्का देने से खुल गया और ज्यादे रोशनी के सबब से भीतर के जगमगाते हुए सामान तथा कई औरतों पर दोनों कुमारों की निगाह पड़ी, जो उन्हें देखते ही उठ खड़ी हुई और जिनसे एक को छोड़ बाकी की सभों ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह को और कई ने आनन्दसिंह को भी प्रणाम किया।

वह औरत, जिसने कुमार को सलाम नहीं किया लक्ष्मीदेवी थी, और वह राजा गोपालसिंह की जुबानी सुन चुकी थी कि दोंनो कुमार उनके छोटे भाई हैं अस्तु, दोनों कुमारों ने स्वयं लक्ष्मीदेवी को सलाम किया और उनकी पिछली अवस्था पर अफसोस करके पुनः जमानिया की रानी बनने पर प्रसन्नता के सात मुबारकबाद देने बाद और विषयों में भी देर तक उनसे बातें करते रहे। इसके बाद किशोरी, कमलिनी इत्यादि से बातचीत की नौबत पहुँची। किशोरी और इन्द्रजीतसिंह में तथा कामिनी और आनन्दसिंह में सच्ची और बढ़ी-चढ़ी मुहब्बत थी, परन्तु धर्म, लज्जा और सभ्यता का पल्ला भी उन लोगों ने मजबूती के साथ पकड़ा हुआ था, इसलिए यहाँ  पर कोई बड़ी-बूढ़ी औरत मौजूद न थी, जिससे विशेष लज्जा करनी पड़ती, तथापि इन चारों ने इस समय बनिस्बत जुबान के विशेष करके आँखों के इशारे तथा भावों ही में अपने दुःख-दर्द और जुदाई के सदमें को झलकाकर उपस्थित अवस्था तथा इस अनोखे मेल-मिलाप पर प्रसन्नता प्रकट की। कमलिनी, लाडिली, कमला, सर्यू और इन्दिरा आदि से भी कुशल क्षेम पूछने बाद इन लोगों में यों बातें होने लगीं।

इन्द्रजीत : (लक्ष्मीदेवी से) आपको इस बात की शिकायत तो जरूर होगी कि आपको हद्द से ज्यादे दुःख भोगना पड़ा, मगर यह जानकर आप अपना दुःख जरूर भूल गयीं होगीं कि भाई साहब ने कमबख्त मायारानी की बदौलत जो कुछ कष्ट भोगा, उसे भी कोई साधाराण मनुष्य सहन नहीं कर सकता।

लक्ष्मीदेवी : निःसन्देह ऐसा होता है, क्योंकि मुझे तो किसी-न-किसी तरह अजादी की हवा मिल भी रही थी, मगर उन्हें अँधेरी कोठरी में जिस तरह रहना पड़ा वैसा ईश्वर न करे किसी दुश्मन को भी नसीब हो।

इन्द्रजीत : (मुस्कुराकर) मगर मैंने तो सुना था कि आप उनसे नाराज हो गयी हैं, और जमानिया जाने में...

कमलिनी : (हँसकर) ये बननिस्बत उनके जिन्न को ज्यादे पसन्द करती थीं

लक्ष्मीदेवी : वास्तव में उन्होंने बड़ा भारी धोखा दिया था।

इन्द्रजीत : जैसाकि आपने तारा बनकर कमलिनी को धोखा दिया था।

कमला : आपने ठीक कहा, क्योंकि ऐयारी दोनों ही ने की थी।

कमलिनी : ओफ, जब मैं वह समय याद करती हूँ, जब ये तारा बनकर मेरे यहाँ रहतीं और ऐयारी का काम करती थीं, तो मुझे आश्चर्य होता है। वास्तव में इनकी ऐयारी बहुत अच्छी होती थी और ये दुश्मनों का पता खूब लगाती थीं, रोहतासगढ़ पहाड़ी के नीचे जब मायारानी का ऐयार कंचनसिंह को मारकर आपको रथ पर सुलाके ले गया था, तब भी इन्होंने मुझे वह खबर कुछ ही देर पहिले पहुँचायी थी।

इन्द्रजीत : (ताज्जुब से) हाँ! तब तो इनका बहुत बड़ा अहसान मेरी गर्दन पर भी है! ओफ, वह जमाना भी कैसा भयानक था! मजा तो यह था कि दुश्मन लोग आपुस में लड़-मरते थे पर एक दूसरे को खबर नहीं होती थी। देखो रोहतासगढ़ में मायारानी की चमेली ने तो माधवी पर वार किया और माधवी को मरते दम तक इस बात का पता न लगा। अगर पता लग जाता तो क्या आज दिन माधवी, मायारानी के साथ मिलकर यहाँ के तिलिस्मी बाग में आने की हिम्मत कभी करती?

कमलिनी : कदापि नहीं, (हँसकर) मगर आश्चर्य तो यह है कि जिस माधवी और मायारानी ने इतना ऊधम मचा रक्खा था, उन्हीं दोनों से आपने शादी कर ली। अफसोस तो यही कि उनके पापों ने उन्हें बचने न दिया और हम लोगों को मुबारकबाद देने का मौका न मिला।

इन्द्रजीत : (शरमाकर) तुम तो...!

लक्ष्मीदेवी : (कुमार की बात काटकर कमलिनी से) बहिन तुम भी कैसी शोख हो! कई दफे तुमसे कह चुकी कि इस बात का जिक्र न करना, मगर आखिर, तुमने न माना! खैर अगर कुमार ने शादी किया तो किया फिर तुम्हें क्या? तुम ताना मारनेवाली कौन? और फिर भूलचूक की बात ही क्या है, इन्होंने कुछ जान-बूझके तो शादी की ही नहीं, धोखे में पड़ गये। खबरदार! अब इस बात का जिक्र कोई करने न पाये। (कुमार से) हाँ तो बताइए कि हमलोगों का हाल आपको कुछ मालूम हुआ या नहीं?

इन्द्रजीत : मैं तो बहुत दिनों से तिलिस्म के अन्दर हूँ, मगर बाहर का हाल जिसमें आपलोगों का हाल भी मिला हुआ था, भाई साहब (गोपालसिंह) बराबर सुना दिया करते थे और जोकुछ नहीं मालूम वह अब मालूम हो जायगा, क्योंकि ईश्वर की कृपा से आप लोगों का बहुत अच्छा समागम हुआ है, एक-दूसरे की बीती कहने-सुनने का मौका आज से बढ़कर फिर न मिलेगा। साथ ही इसके मैं यह कहूँगा कि आप (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इन्हें बात-बात में डाँटने या दबाने की तकलीफ न करें, ये जितना और जोकुछ मुझे कहें, कहने दीजिए क्योंकि मैं इनके हाथ बिका हुआ हूँ, इन्होंने हम लोगों के साथ जो कुछ सलूक किया है, वह किसी से छिपा नहीं है और न उसका बोझ हमलोगों के सर से कभी उतर सकता है...

कमलिनी : बस बस बस, ज्यादे तारीफों की भरमार न कीजिए। अगर आप ‘सर्यू की तरफ देखके' चाची क्षमा कीजिए और जरा इस कमरे में जाकर (दोनों कुमारों और भैरोसिंह की तरफ बताकर) इन लोगों के लिए खाने का इन्तजाम कीजिए।

सर्यू : कमलिनी का मतलब समझ गयी कि उसके सामने हँसी-दिल्लगी की बातें करते इन लोगों को शर्म मालूम होती है और उचित भी यही है। अस्तु, वह उठकर दूसरे कमरे में चली गयी और तब कमलिनी ने पुनः इन्द्रजीतसिंह से कहा—"हाँ, अगर आप मेरे हाथ बिके हुए हैं तो कोई चिन्ता नहीं, मैं आपको बड़ी खातिर के साथ अपने पास रक्खूँगी।"

किशोरी : (मुस्कुराती हुई) इनकी ताबीज बनाके गले में पहिर लेना।

कमलिनी : जी नहीं, गले तो ये तुम्हारे मढ़े जायेंगे मैं तो इन्हें हाथों पर लिये फिरूँगी।

लक्ष्मीदेवी : बल्कि चुटकियों पर, क्योंकि तुम ऐसी ही शोख और मसखरी हो! (कुमार से) आज हम लोगों के लिए बड़ी खुशी का दिन है, ईश्वर ने बड़े भागों से यह दिन दिखाया है, अतएव अगर हम लोग हँसी-दिल्लगी में कुछ विशेष कह जाँय तो रंज न मानियेगा।

इन्द्रजीत : ताज्जुब है कि आप रंज होने का जिक्र करती हैं! क्योंकि आप इस बात को नहीं जानतीं कि इन्हीं बातों के लिए हम लोग कब से तरस रहे हैं! (कमलिनी की तरफ देखके और मुस्कुरा के) मगर आशा है कि अब तरसाना न पड़ेगा।

कमलिनी : यह तो (किशोरी की तरफ बता के) इन्हें कहिए, तरसने की बात का जवाब तो यह दें सकेंगी।

किशोरी : ठीक है, क्योंकि आदमी जब किसी के हाथ बिक जाता है तो आजादी की हवा खाने के लिए उसे तरसना ही पड़ता है।

इन्द्रजीत : (बात का ढंग दूसरी तरफ बदलने की नीयत से कमलिनी की तरफ देखकर) हाँ, यह तो बताओ कि नानक से और तुम लोगों से मुलाकात हुई थी या नहीं?

कमलिनी: जी नहीं, उस पर तो आपको बड़ा रंज होगा!

इन्द्रजीत : हाँ, इसलिए कि उसने अपनी चाल-चलन को बहुत बिगाड़ रक्खा है। (कमला से) तुमने यह तो सुना ही होगा कि नानक भूतनाथ का लड़का है और भूतनाथ तुम्हारा पिता है!

कमला : जी हाँ, मैं सुन चुकी हूँ, मगर वे (लम्बी साँस लेकर) आजकल अपनी भूलों के सबब आप लोगों के मुजरिम बन रहे हैं!

इन्द्रजीत : चिन्ता मत करो, पिछले जमाने में अगर भूतनाथ से किसी तरह का कसूर हो गया हो तो क्या हुआ, आजकल हम लोगों का काम बड़ी खूबी और नेकनीयती के साथ कर रहा है और तुम विश्वास रक्खो कि उसका सब कसूर माफ किया जायगा।

कमला : यदि आपकी कृपा हो तो सब अच्छा ही होगा, (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इन्होंने भी मुझे ऐसी ही आशा दिलायी है।

लक्ष्मीदेवी : इनका तो वह ऐयार ही ठहरा इन्हीं के दिये हुए तिलिस्मी खंजर की बदौलत उसने बड़े-बड़े काम किये और कर रहा है। हाँ, खूब याद आया, (इन्द्रजीत से) मैं आपसे एक बात पूछूँगी।

इन्द्रजीत : पूछिए।

लक्ष्मीदेवी : तालाबवाले तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर जंगल में एक खूबसूरत नहर है और वहीं किसी योगिराज की समाधि है...

इन्द्रजीत : हाँ हाँ, मैं उस स्थान का हाल जानता हूँ। यद्यपि मैं वहाँ कभी गया नहीं, मगर ‘रिक्तगन्थ' की बदौलत मुझे वहाँ का हाल बखूबी मालूम हो गया है, (कमलिनी की तरफ देखकर) इन्हें तो मालूम ही होगा, क्योंकि वह ‘रिक्तगन्थ' बहुत दिनों तक इनके पास था।

कमलिनी : जी हाँ, उसी रिक्तगन्थ की बदौलत मुझे उसका कुछ हाल मालूम हुआ था और उसी जगह से वह तिलिस्मी खंजर और नेजा मैंने निकाला था, मगर मैं उस रिक्तगन्थ की लिखावट अच्छी तरह समझ नहीं सकती थी, इसलिए उसका ठीक-ठीक और पूरा हाल मैं न जान सकी। (१. देखिए छठवाँ भाग, तीसरा बयान।)

लक्ष्मीदेवी : इसी सबब से मेरी बातों का ठीक जवाब न दे सकी, तब मैंने सोचा कि आपसे मुलाकात होने पर पूँछूँगी कि क्या यहाँ भी कोई तिलिस्म है?

इन्द्रजीत : जी नहीं, वहाँ कोई तिलिस्म नहीं है। जिस दार्शनिक महात्मा की वह समाधि है, उन्होंने यह तिलिस्मी तथा रोहतासगढ़ का तहखाना, तालाबवाला तिलिस्म खँडहर, जिसमें मैं मुर्दा बनाकर पहुँचाया गया था, अथवा जिसमें किशोरी, कामिनी और भैरोसिंह वगैरह फँस गये थे बनवाया है और चुनारगढ़वाला तिलिस्म उनके गुरू का बनवाया हुआ है, यहाँ के राजा जिन्होंने यह तिलिस्म बनवाया था, उन्हीं के शिष्य थे। उन महात्मा ने जीते-जी समाधि ले ली थी और उन्होंने अपना योगाश्रम भी उसी स्थान में बनवाया था। कमलिनी ने तिलिस्मी खंजर भी उसी योगाश्रम से निकाला होगा, क्योंकि वहाँ भी बड़ी-बड़ी अनूठी चीजें हैं।

कमलिनी : जी हाँ, और उसी जगह मैंने इस बात की कसम भी खायी थी कि ‘भूतनाथ और नानक को अपना भाई समझूँगी, अगर ये लोग हम लोगों के साथ दगा न करेंगे'। यद्यपि यह आश्चर्य की बात है कि भूतनाथ के भेदों का सही-सही पता नहीं लगता फिर भी चाहे जो हो, यह तो मैं जरूर कहूँगी कि भूतनाथ ने हम लोगों के साथ बड़ी नेकियाँ की हैं।

इन्द्रजीत : इसमें किसी को क्या शक हो सकता है? भूतनाथ वास्तव में बड़ा भारी ऐयार है। हाँ, यह तो बताओ कि नानक यहाँ कैसे आ पहुँचा?

कमलिनी : भला मैं इस बात को क्या जानूँ?

आनन्द : (मुस्कुराते हुए) अपनी रामभोली को खोजता हुआ आया होगा।

लाडिली : उसे मालूम हो चुका है कि उसकी रामभोली को मरे मुद्दत हो गयी।

आनन्द : खैर, उसकी तस्वीर खोजने आया होगा!

लाडिली : या किसी की बारात में आया होगा!

लाडिली की इस आखिरी बात ने सभों को हँसा दिया और आनन्दसिंह शरमाकर चुप हो रहे।

इन्द्रजीत : (कमलिनी से) इस बात का कुछ पता न लगा कि अग्निदत्त को किसने मारा था। (किशोरी से) शायद इसका जवाब तुम दे सकती हो?

किशोरी : अग्निदत्त को मायारानी के ऐयारों ने मारा था और उन्हीं लोगों ने जाकर उस तिलिस्मी खँडहर में कैद किया था। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, पाँचवाँ भाग, चौथा बयान।)

भैरो : (कमलिनी से) हाँ, खूब याद आया, हमने सुना था कि उस समय जब हम लोग शाहदरवाजा बन्द हो जाने कारण दुःखी हो रहे थे, तब आपने ही विचित्र ढंग से वहाँ पहुँचकर हमलोगों की सहायता की थी। आपको इन बातों की खबर कैसे मिली? (२. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, छठवाँ भाग, पहिला बयान।)

कमलिनी : (लक्ष्मीदेवी की तरफ इशारा करके) उन दिनों ये ऐयारी कर रही थीं और इन्होंने ही उन बातों की खबर पहुँचायी थी तथा यह भी कहा था कि खँडहरवाली बावली साफ हो गयी है'। उस बावली में पहुँचने का रास्ता उसी योगिराज की समाधि के पास ही से है। अगर वह बावली खुदकर साफ न हो गयी तो मैं शाहदरवाजा खोल न सकती क्योंकि ऊपर की तरफ से खँडहर के अन्दर पहुँचना कठिन हो रहा था और भीतर मायारानी के आदमी उस तहखाने में जा पहुँचे थे। वह भी बड़ा कठिन समय था।

कमला : उसी समय राजा शिवदत्त भी वहाँ आकर...

कमलिनी : हाँ, उस समय भी भूतनाथ ने बड़ी मदद दी, रूहा बनकर अगर वह राजा शिवदत्त को पकड़ न लिये होता तो गजब ही हो जाता।३ (३. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, छठवाँ भाग, दूसरा बयान।)

भैरो : मैं तो कुमार की जिन्दगी से बिल्कुल ही नाउम्मीद हो गया था।

कमलिनी : (कुमार से) हाँ, यह तो बताइए कि आप वहाँ किस तरह पहुँचाये गये थे! इसमें तो कोई शक नहीं कि आपको मायारानी के आदमी ने गिरफ्तार किया था, मगर इस बात का पता अभी तक न लगा कि उस मकान के अन्दर आप तथा देवीसिंह वगैरह ने क्या देखा कि हँसते-हँसते उसके अन्दर कूद गये और कूदने के बाद फिर क्या हुआ? (४. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, छठवाँ बयान, चौथा बयान।)

इन्द्रजीत : कूद पड़ने बाद फिर मुझे तनोबदन की सुध न रही और यही हाल उन सभों का भी हुआ जो मेरे पहिले उसके अन्दर कूद चुके थे, मगर यह अभी न बताऊँगा कि उसके अन्दर कौन-सी हँसानेवाली चीज थी।

कमलिनी : यही बात हमलोगों ने जब देवीसिंह से पूछी थी तो उन्होंने भी इनकार करके कहा था कि ‘माफ कीजिए' उस विषय में तब तक कुछ न कहूँगा, जब तक इन्द्रजीतसिंह मेरे सामने मौजूद न होंगे, क्योंकि उन्होंने इस बात को छिपाने के लिए मुझे सख्त ताकीद कर दी है। ताज्जुब है कि आपने-अपने साथियों को भी इस तरह की ताकीद कर दी और आज स्वयं भी उसके बताने से इनकार करते हैं। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2 दसवाँ भाग, तीसरा बयान।)

इन्द्रजीत : उसमें कोई ऐसी बात नहीं थी, जिसके बताने से मुझे परहेज हो, मगर मैं चाहता हूँ कि वही तमाशा तुम लोगों को तथा और अपने सभों को दिखाकर बताऊँ कि उस मकान के अन्दर बस यही था, निःसन्देह तुम लोगों की भी वही दशा होगी।

कमलिनी : तो आज ही वह तमाशा क्यों नहीं दिखाते?

इन्द्रजीत : आज वह तमाशा मैं नहीं दिखा सकता, हाँ, भाई साहब (गोपालसिंह) अगर चाहें तो दिखा सकते हैं, मगर इसके लिए जल्दी ही क्या है?

लक्ष्मीदेवी : खैर, जाने दीजिए, आखिर एक-न-एक दिन मालूम हो ही जायगा। अच्छा यह बताइए कि आप जब इस तिलिस्म में या इसके बगलवाले बाग में आये थे तो बुड्ढे तिलिस्मी दारोगा से मुलाकात हुई थी या नहीं?

 इन्द्रजीत : हाँ हुई थी, बड़ा ही शौतान है, क्या तुम लोगों से वह नहीं मिला?

लक्ष्मीदेवी : भला वह कभी बिना मिले रह सकता है? उसने तो हम लोगों को भी धोखे में डालना चाहा था, मगर तुम्हारे भाई साहब ने पहिले ही उसकी शैतानी से हम लोगों को होशियार कर दिया था, इसलिए हमलोगों का वह कुछ बिगाड़ न सका।

कमलिनी : मगर आपने उसकी बात मान ली और इसलिए उसने भी आपसे खुश होकर आपकी शादी करा दी। आपको तो उसका अहसान मानना चाहिए....

लक्ष्मीदेवी : (कमलिनी को झिड़ककर) फिर तुम उसी रास्ते पर चलीं!

इन्द्रजीत : अबकी अगर वह मुझे मिले तो उसे बिना मारे कभी न छोड़ू चाहे जो हो।

इन्द्रजीतसिंह की इस बात पर सब हँस पड़े और इसके बाद लक्ष्मीदेवी ने कुमार से कहा, "अच्छा अब यह बताइए कि मेरे चले जाने बाद आपने तिलिस्म में क्या किया और क्या देखा?"

इसी समय सर्यू भी वहाँ आ पहुँची और बोली, "चलिए पहले खा-पी लीजिए तब बातें कीजिए।"

लक्ष्मीदेवी के जिद्द करने से दोनों कुमारों को उठना पड़ा और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाने बाद फिर उसी ठिकाने बैठकर गप्पें उड़ने लगीं। कुमार ने अपना हाल बिल्कुल बयान किया और वे सब आश्चर्य से सब कथा सुनती रहीं। इसके बाद कुमार ने इन्दिरा से उसका बाकी किस्सा पूछा।

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