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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

तीसरा बयान


अब हम रोहतासगढ़ का हाल लिखते हैं। जिस समय बाहर यह खबर आयी कि लक्ष्मीदेवी की तबीयत ठीक हो गयी, और वे सब पर्दे के पास आकर बैठ गयीं, उस समय राजा बीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और कहा, लक्ष्मीदेवी से पूछना चाहिए कि उसकी तबीयत यह कलमदान देखने के साथ ही क्यों खराब हो गयी?’’

इसके पहिले के तेजसिंह राजा बीरेन्द्रसिंह की बात का जवाब दें या उठने का इरादा करें जिन्न ने कहा, ‘‘आश्चर्य है कि आप इसके लिए जल्दी करते हैं!’’

जिन्न की बात सुनकर राजा बीरेन्द्रसिंह मुस्कुराकर चुप हो रहे और भूतनाथ का कागज पढ़ने के लिए तेजसिंह को इशारा किया। आज भूतनाथ का मुकदमा फैसला होनेवाला है, इसलिए भूतनाथ और कमला का रंज और तरदुद तो बाजिब ही है, मगर इस समय भूतनाथ से सौगुनी बुरी हालत बलभद्रसिंह की हो रही है। चाहे सभों का ध्यान उस कागज के मुट्ठे की तरफ पर लगा हो, जिसे अब तेजसिंह पढ़ा चाहते हैं, मगर बलभद्रनाथसिंह का खयाल किसी दूसरी तरफ है। उसके चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छायी है, और वह छिपी निगाहों से चारों तरफ इस तरह देख रहा है, जैसे कोई मुजरिम निकल भागने के लिए रास्ता ढूँढ़ता हो, मगर भैरोसिंह को मुस्तैदी के साथ अपने ऊपर तैनात पाकर सिर नीचा कर लेता है।

हम यह लिख चुके हैं कि तेजसिंह पहिले उन चीठियों को पढ़ गये, जिनका हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है, अब तेजसिंह ने उसके आगेवाला पत्र पढ़ना आरम्भ किया, जिसमें यह लिखा हुआ था–

‘‘मेरे प्यारे दोस्त,

आज मैं बलभद्रसिंह की जान ले ही चुका था, मगर दरोगा साहब ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया। मैंने सोचा था कि बलभद्रसिंह के खतम हो जाने पर लक्ष्मीदेवी की शादी रुक जायगी, और उसके बदले में मुन्दर को भरती कर देने का अच्छा मौका मिलेगा, मगर दारोगा साहब की यह राय न ठहरी। उन्होंने कहा कि गोपालसिंह को भी लक्ष्मीदेवी के साथ शादी करने की जिद्द हो गयी है, ऐसी अवस्था में यदि बलभद्रसिंह को तुम मार डालोगे तो राजा गोपालसिंह दूसरी जगह शादी करने के बदले में बरस दिन अटक जाना मुनासिब समझेंगे, और शादी का दिन टल जाना अच्छा नहीं है, इससे यही उचित होगा कि बलभद्रसिंह को कुछ न कहा जाय, लक्ष्मीदेवी की माँ को मरे ग्यारह महीने हो ही चुके हैं, महीना-भर और बीत जाने दो, जो कुछ करना होगा शादीवाले दिन किया जायगा। शादीवाले दिन जो कुछ किया जायगा, उसका बन्दोबस्त भी हो चुका है। उस दिन मौके पर लक्ष्मीदेवी गायब कर दी जायगी, और उसकी जगह मुन्दर बैठा दी जायगी और उसके कुछ देर पहिले ही बलभद्रसिंह ऐसी जगह पहुँचा दिया जायगा, जहाँ से पुनः लौट आने की आशा नहीं है, बस फिर किसी तरह का खटका न रहेगा। यह सब तो हुआ, मगर आपने अभी तक फुटकर खर्च के लिए रुपये न भेजे। जिस तरह हो सके, उस तरह बन्दोबस्त कीजिए और रुपये भेजिए नहीं तो सब काम चौपट हो जायेगा, आगे आपकी अख्तियार है।

वही–
भूतनाथ’’

बीरेन्द्र : (भूतनाथ की तरफ देखके) क्यों भूतनाथ यह चीठी तुम्हारे हाथ की लिखी हुई है!

भूतनाथ : (हाथ जोड़कर) जी हाँ महाराज, यह कागज मेरे हाथ का लिखा हुआ है।

बीरेन्द्र : तुमने यह पत्न हेलासिंह के पास भेजा था?

भूतनाथ : जी नहीं।

बीरेन्द्र : तुम अभी कह चुके हो कि यह पत्र मेरे हाथ का लिखा है और फिर कहते हो कि नहीं!

भूतनाथ : जी मैं यह नहीं कहता कि यह कागज मेरे हाथ का लिखा हुआ नहीं बल्कि मैं यह कहता हूँ कि यह पत्र हेलासिंह के पास मैंने नहीं भेजा था।

बीरेन्द्र : तब किसने भेजा था?

भूतनाथ : (बलभद्रसिंह की तरफ इशारा करके) इसने भेजा था और इसी ने अपना नाम भूतनाथ रक्खा था, क्योंकि यह वास्तव में लक्ष्मीदेवी का बाप बलभद्रसिंह नहीं है।

बीरेन्द्र : अगर यह चीठी (बलभद्रसिंह की तरह इशारा करके) इन्होंने हेलासिंह के पास भेजी थी तो फिर तुमने इसे अपने हाथ से क्यों लिखा? क्या तुम इनके नौकर या मुहर्रिर थे?

भूतनाथ : जी नहीं, इसका कुछ दूसरा ही सबब है, मगर इसके पहिले कि मैं आपकी बातों का पूरा-पूरा जवाब दूँ, इस नकली बलभद्रसिंह से दो-चार बातें पूछने की आज्ञा चाहता हूँ।

बीरेन्द्र : क्या हर्ज है, जो कुछ पूछना चाहते हो पूछो।

भूतनाथ : (बलभद्रसिंह की तरफ देखके) इस कागज के मुट्ठे को तुम शुरू से आखिर तक पढ़ चुके हो या नहीं!

बलभद्र : हाँ, पढ़ चुका हूँ।

भूतनाथ : जो चीठी अभी पढ़ी गयी है, इसके आगेवाली चीठियाँ, जो अभी पढ़ी नहीं गयीं, तुम्हारे इस मुकद्दमे से कुछ सम्बन्ध रखती हैं!

बलभद्र : नहीं।

भूतनाथ : सो क्यों!

बलभद्र : आगे की चीठियों का मतलब हमारी समझ में नहीं आता।

भूतनाथ : तो अब आगेवाली चीठियों को पढ़ने की कोई आवश्यकता न रही!।

बदभद्र : तेरा कसूर साबित करने के लिए क्या इतनी चीठियाँ कम हैं, जो पढ़ी जा चुकी हैं!

भूतनाथ : बहुत हैं, बहुत हैं, अच्छा तो अब मैं यह पूछता हूँ कि लक्ष्मीदेवी के शादी के दिन तुम कैद के लिए गये थे।

बलभद्र : हाँ।

भूतनाथ : उस समय बालासिंह कहाँ था और बालासिंह कहाँ है!

भूतनाथ के इस सवाल ने बलभद्रसिंह की अवस्था फिर बदल दी। वह और भी घबड़ाना-सा होकर बोला, ‘‘इन सब बातों के पूछने से क्या फायदा निकलेगा?’’ इतना कहकर उसने दरोगा और मायारानी की तरफ देखा। मालूम होता था कि बालासिंह के नाम ने मायारानी और दारोगा पर भी अपना असर किया, जो मायारानी के बगल ही में एक खम्भे के साथ बँधा हुआ था। बीरेन्द्रसिंह और उनके बुद्धिमान ऐयारों ने भी बलभद्र और दारोगा तथा मायारानी के चेहरे और उन तीनों की इस देखा-देखी पर गौर किया और बीरेन्द्रसिंह ने मुस्कुराकर जिन्न की तरफ देखा।

जिन्न : मैं समझता हूँ कि इस बलभद्रसिंह के साथ अब आपको बेमुरौवती करनी होगी।

बीरेन्द्र : बेशक, मगर आप क्या समझते हैं कि यह मुकदमा आज फैसला हो जायगा?

जिन्न : नहीं, यह मुकद्दमा इस लायक नहीं कि आज फैसला हो जाय। यदि आप इस मुकद्दमें की कलई अच्छी तरह खोला चाहते हैं, तो इस समय इसे रोक दीजिए और भूतनाथ को छोड़कर आज्ञा दीजिए कि महीने-भर के अन्दर जहाँ से हो सके, वहाँ से असली बलभद्रसिंह को खोज लावे नहीं तो उसके लिए बेहतर न होगा।

बीरेन्द : भूतनाथ को किसकी जमानत पर छोड़ दिया जाय।

जिन्न : मेरी जमानत पर।

बीरेन्द्र : जब आप ऐसा कहते हैं तो हमें कोई उज्र नहीं है, यदि लक्ष्मीदेवी और लाडिली तथा कामलिनी इसे स्वीकार करें।

जिन्न : उन सभों को भी कोई उज्र नहीं होनी चाहिए।

इतने में पर्दे के अन्दर से कमलिनी ने कहा, ‘‘हम लोगों को कोई उज्र न होगा, हमारे महाराज को अधिकार है, जो चाहें करें!’’

बीरेन्द्र : (जिन्न की तरफ देखके) तो फिर कोई चिन्ता नहीं, हम आपकी बात मान सकते हैं। (भूतनाथ से) अच्छा तुम यह तो बताओ कि जब वह चीठी तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई है, तो तुम इसे हेलासिंह के पास भेजने से क्यों इनकार करते हो।

भूतनाथ : इसका हाल भी उसी समय मालूम हो जायगा, जब मैं असली बलभद्रसिंह को छुड़ाकर ले आऊँगा।

जिन्न : आप इस समय इस मुकद्दमें को रोक दीजिए, जल्दी न कीजिए क्योंकि इसमें अभी तरह-तरह के गुल खिलने वाले हैं।

बलभद्र : नहीं नहीं, भूतनाथ को छोड़ना उचित न होगा, यह बड़ा भारी बेईमान, जालिया, धूर्त और बदमाश है। यदि इस समय छूटकर चल देगा तो फिर कदापि न आवेगा।

तेज : (घुड़ककर बलभद्र से) बस चुप रहो तुमसे इस बारे में राय नहीं ली जाती।

बलभद्र : (खड़े होकर) तो फिर मैं जानता हूँ, जिस जगह ऐसा अन्याय हो, वहाँ ठहरना भले आदमियों का काम नहीं।

बलभद्रसिंह उकर खड़ा हुआ ही था कि भैरोसिंह ने उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, ‘‘ठहरिए, आप भले आदमी हैं, आपको क्रोध न करना चाहिए, अगर ऐसा कीजियेगा तो भलमनसी में बट्टा लग जायगा। यदि आपको हम लोगों की सोहबत अच्छी नहीं मालूम पड़ती तो आप मायारनी और दारोगा की सोहबत में रक्खे जायेंगे, जिसमें आप खुश रहें, हम लोग वही करेंगे।’’

भैरोसिंह ने बलभद्रसिंह की कलाई पकड़ के कोई नस ऐसी दबायी कि वह बेताब हो गया, उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसके तमाम बदन की ताकत किसी ने खैंच ली हो, और वह बिना कुछ बोले इस तरह बैठ गया जैसे कोई गिर पड़ता है। उसकी यह अवस्था देख सभों ने मुस्कुरा दिया।

जिन्न : (बीरेन्द्रसिंह से) अब मैं आपसे और तेजसिंह से दो-चार बातें एकान्त में कहा चाहता हूँ।

बीरेन्द्र : हमारी भी इच्छा है

इतना कहकर बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह, देवीसिंह से कुछ इशारा करके उठ खड़े हुए और दूसरे कमरे की ओर चले गये।

राजा बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और जिन्न आधे-घण्टे तक एकान्त में बैठकर बातचीत करते रहे। सभों को जिन्न के बिषय में जितना आश्चर्य था, उतना ही इस बात का निश्चय भी हो गया था कि जिन्न का हाल राजा बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और भैरोसिंह को मालूम हो गया है, परन्तु वह किसी से न कहेंगे और न कोई उनसे पूछ सकेगा।

आधे घण्टे के बाद तीनों आदमी कमरे के बाहर निकलकर अपने-अपने ठिकाने आ पहुँचे और तेजसिंह देवीसिंह की तरफ देखके कहा, ‘‘भूतनाथ को छोड़ देने की आज्ञा हुई है। तुम भूतनाथ और जिन्न के साथ जाओ, और हिफाजत के साथ पहाड़ के नीचे पहुँचाकर लौट आओ।’’

इतना सुनते ही देवीसिंह ने भूतनाथ की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी और उसको तथा जिन्न को साथ लिये वहाँ से बाहर चले गये। इसके बाद तेजसिंह पर्दे के अन्दर गये और लक्ष्मीदेवी, कमलिनी तथा लाडिली को कुछ समझा-बुझाकर बाहर निकल आये। बलभद्रसिंह को खातिरदारी और चौकसी के साथ हिफाजत में रखने के लिए भैरोसिंह के हवाले किया गया, और बाकी कैदियों को कैदखाने में पहुँचाने की आज्ञा देकर, राजा बीरेन्द्रसिंह बाहर चले आये तथा अदालत बरखास्त कर दी गयी।

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