मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 चन्द्रकान्ता सन्तति - 4देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...
दूसरा बयान
दिन लगभग पहर-भर के चढ़ चुका है। दोनों कुमार स्नान-ध्यान पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाने के लिए जा ही रहे थे कि रास्ते में फिर उसी बुड्ढे से मुलाकात हुई। बुड्ढे ने झुककर दोनों कुमारों को सलाम किया और फिर अपनी जेब में से एक चीठी निकाल कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर बोला, ‘‘देखिए राजा गोपालसिंह के हाथ की सिफारिशी चीठी ले आया हूँ, इसे पढ़कर तब कहिए कि मुझ पर भरोसा करने में अब आपको क्या उज्र है?’’ कुमार ने चीठी पढ़ी और आनन्दसिंह को दिखाने के बाद हँसकर उस बुड्ढे की तरफ देखा।
बुड्ढा : (मुस्कुराकर) कहिए, अब आप क्या कहते हैं? क्या इस पत्र को आप जाली या बनावटी समझते हैं?
इन्द्र : नहीं नहीं, यह चीठी जाली नहीं हो सकती, मगर देखो तो सही-इस (आनन्दसिंह के हाथ से चीठी लेकर चीठी में लिखे हुए एक निशान दिखाकर) इस निशान को तुम पहिचानते हो या इसका मतलब तुम जानते हो?
बुड्ढा : (निशान देखकर) इसका मतलब तो आप जानिए या गोपालसिंह जानें मुझे क्या मालूम, यदि आप बतलायें तो...
इन्द्र : इसका मतलब यही है कि यह चीठी बेशक सच्ची है, मगर इसमें जो कुछ लिखा है, उस पर ध्यान न देना!
बुड्ढा : क्या गोपालसिंह ने आपसे कहा था कि हमारी लिखी जिस चीठी पर ऐसा निशान हो, उसकी लिखावट पर ध्यान न देना।
इन्द्र : हाँ, मुझसे उन्होंने ऐसा ही कहा था, इसलिए जाना जाता है कि यह चीठी उन्होंने अपनी इच्छा से नहीं लिखी, बल्कि जबर्दस्ती किये जाने के सबब से लिखी है।
बुड्ढा : नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आप भूलते हैं, उन्होंने आपसे इस निशान के बारे में कोई दूसरी बात कही होगी।
कुमार : नहीं नहीं, मैं ऐसा भुलक्कड़ नहीं हूँ, अच्छा आपही बताइए यह निशान उन्होंने क्यो बनाया।
बुड्ढा : यह निशान उन्होंने इसलिए स्थिर किया है कि कोई ऐयार उनके दोस्तों को उनकी लिखावट का धोखा न दे सके। (कुछ सोचकर और हँसकर) मगर कुमार, तुम भी बड़े बुद्धिमान और मसखरे हो!
कुमार : कहो अब मैं तुम्हारी दाढ़ी नोच लूँ?
आनन्द : (हँसकर और ताली बजाकर) या मैं नोच लूँ?
बुड्ढा : (हँसते हुए) अब आप लोग तकलीफ न कीजिए, मैं स्वयं इस दाढ़ी को नोचकर अलग फेंक देता हूँ!
इतना कह उस बुड्ढे ने अपने चेहरे से दाढ़ी अलग कर दी, और इन्द्रजीतसिंह के गले से लिपट गया।
पाठक, यह बुड्ढा वास्तव में राजा गोपालसिंह थे, जो चाहते थे कि सूरत बदलकर इस तिलिस्म में कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की मदद करें, मगर कुमार की चालकियों ने उनकी हिकमत लड़ने न दी और लाचार होकर उन्हें प्रकट होना ही पड़ा।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह दोनों भाई राजा गोपालसिंह के गले मिले और उनका हाथ पकड़े हुए नहर के किनारे गये, जहाँ पत्थर की एक चट्टान पर बैठकर तीनों आदमी बातचीत करने लगे।
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