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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

सातवाँ बयान


रात पहर-भर से कम रह गयी थी, जब किशोरी, कामिनी, कमला, लक्ष्मीदेवी, लाडिली और कमलिनी की बातें पूरी हुईं, और उन्होंने चाहा कि अब उठकर नीचे चलें और दो घण्टे आराम करें। इस समय महल में बिल्कुल सन्नाटा था। लौंडियाँ बेफिक्री के साथ खुर्राटे ले रही थीं, क्योंकि कमलिनी ने सभों को अपने सामने बिदा कर दिया था, और कह दिया था कि बिना बुलाये कोई हम लोगों के पास न आवे।

इस समय ये सब जिस महल में हैं, वह राजमहल के नाम से पुकारा जाता था। महाराज दिग्विजयसिंह की रानी इसी में रहा करती थी। इसके बगल में पीछे की तरफ महल का दूसरा भाग था, जिसमें किशोरी उन दिनों रहती थी, जब दिग्विजयसिंह की जिन्दगी में जबर्दस्ती इस मकान के अन्दर लायी गयी थी, और लाली तथा कुन्दन भी किशोरी की हिफाजत के लिए उसी मकान में रहा करती थीं, जिसका हाल सन्तति के तीसरे भाग के आठवें बयान में लिख आये हैं।

पाठक भूले न होंगे कि उसी महल या बाग में (जिसमें पहिले किशोरी रहा करती थी) एक कोने पर वह इमारत थी जिसका दरवाज़ा हमेशा बन्द रहता था, और जिसकी छत फोड़कर किशोरी को साथ लिये लाली उसके अन्दर चली गयी थी। यद्यपि महल का वह भाग अलग था, मगर राजमहल की छत से वह मकान बखूबी दिखायी देता था। किशोरी, कमला, लाडिली, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और कमलिनी की बात जब समाप्त हुई, और वे सब नीचे जाने की इरादे से उठकर खड़ी हुईं, तो यकायक लाडिली की निगाह उस इमारत पर पड़ी, जिसके अन्दर किशोरी को लेकर वह (लाली) चली गयी थी। आज भी उस मकान का दरवाज़ा उसी तरह बन्द था, जैसे दिग्विजयसिंह के समय में बन्द रहा करता था, हाँ, पहिले की तरह आज उसके दरवाज़े पर पहरा नहीं पड़ता था, उस मकान की छत जिसमें लाली ने सेंध लगायी थी, दुरुस्त कर दी गयी थी! बाग में चारों तरफ सन्नाटा था, क्योंकि आजकल उसमें कोई रहता न था, और यह बात कमलिनी और लाडिली इत्यादि को मालूम थी।

जिस समय लाडिली की निगाह उस मकान की छत पर पड़ी, उसे एक आदमी दिखायी दिया, जो बड़ी मुस्तैदी के साथ चारों तरफ घूम-घूम और देख-देखकर शायद इस बात की टोह ले रहा था कि कोई आदमी दिखायी तो नहीं देता, मगर किशोरी और कामिनी इत्यादि ऐसे ठिकाने पर थीं कि ये सब चारों तरफ सबको देखतीं, मगर इन्हें कोई नहीं देख सकता था, क्योंकि जिस मकान की छत पर ये सब थीं, उसके चारों तरफ पुर्से-भर ऊँची कनाती दीवार थी, और उसमें बहुत से सूराख देखने और तीर मारने के लायक बने हुए थे, और इस समय लाडिली ने भी उस आदमी को ऐसे ही एक सूराख की राह से ही देख लिया था।

लाडिली ने कमलिनी का हाथ पकड़ लिया, और उस इमारत की तरफ देखने का इशारा किया। कमलिनी ने और इसके बाद एक-एक करके सभों ने उस आदमी को देखा, और अब वह क्या करेगा, यह जानने के लिए सभों की निगाह उसी तरफ अटक गयी।

थोड़ी देर बाद छत पर नीचे की तरफ से आती हुई रोशनी दिखायी दी, जिससे मालूम हुआ कि उसकी छत इस समय पुनः तोड़ी गयी है, और नीचे की कोठरी में और भी कई आदमी हैं। रोशनी दिखायी देने के बाद दो आदमी और निकल आये, और तीन आदमी उस छत पर दिखायी देने लगे। अब पूरी तरह निश्चय हो गया कि उस मकान की छत तोड़ी गयी है। उन तीनों आदमियों ने बड़े गौर से उस तरफ देखा, जहाँ किशोरी, कामिनी इत्यादि खड़ी थीं, मगर कुछ दिखायी न दिया, इसके बाद उन तीनों ने झुककर छत के नीचे से एक भारी गठरी निकाली। उसके बाद नीचे से दो आदमी और निकल कर छत पर आ गये तथा अब वहाँ पाँच आदमी दिखायी देने लगे।

कमलिनी ने कमला का हाथ पकड़ के कहा, "बहिन इन शैतानों की कार्रवाई बेशक देखने और जाँचने योग्य है, ताज्जुब नहीं कि कोई अनूठी चीज़ मालूम हो। अस्तु, तू जाकर जल्दी से तेजसिंह को इस मामले की खबर कर दे, फिर जो कुछ उनके जी में आवेगा करेंगे।" इतना सुनते ही कमला तेजसिंह की तरफ चली गयी, और वे सब फिर उसी तरफ देखने लगीं।

थोड़ी देर तक वे पाँचों आदमी बैठकर उस गठरी के साथ न मालूम क्या करते रहे, इसके बाद कमन्द के जरिए वह गठरी बाहर की तरफ बाग में उतार दी गयी। उसके पीछे वे पाँचों आदमी भी बाग में उतर आये, और गठरी को लिए हुए बाग के बीचों-बीच वाले उस कमरे की तरफ चले गये, जिसमें पहिले किशोरी रहा करती थी। उसी समय कमला भी लौटकर आ पहुँची और बोली, "तेजसिंह को खबर कर दी गयी, और वे देवीसिंहजी वगैरह ऐयारों को साथ लेकर किसी गुप्त बाग में गये हैं।"

कमलिनी : मुझे भी वहाँ जाना उचित है।

किशोरी : क्यों?

कमलिनी : उस मकान के गुप्त भेद की खबर तेजसिंह को नहीं है, कदाचित् कोई आवश्यकता पड़े।

किशोरी : कोई आवश्यकता न पड़ेगी, बस चुपचाप खड़ी तमाशा देखो।

लक्ष्मीदेवी : इनमें से अगर एक आदमी को भी तेजसिंह पकड़ लेंगे, तो भी सब भेद खुल जायगा।

कमलिनी : हाँ, सो तो है।

कमला : मैं समझती हूँ कि उस मकान के अन्दर और भी कई आदमी होंगे। अगर वे सब गिरफ्तार हो जाते तो बहुत ही अच्छा होता।

कमलिनी : इसी से तो मैं कहती हूँ कि मुझे वहाँ जाने दो। मेरे पास तिलिस्मी खंजर मौजूद है, मैं बहुत कुछ कर गुजरूँगी।

किशोरी : नहीं बहिन, मैं तुम्हें कदापि न जाने दूँगी, मुझे डर लगता है, तुम्हारे बिना मैं यहाँ नहीं रह सकती।

कमलिनी : खैर, मैं न जाऊँगी, तुम्हारे ही पास रहूँगी।

 अब हम बाग के उस हिस्से का हाल लिखते हैं, जिसमें वे पाँचों आदमी गठरी लिये दिखायी दे चुके हैं।

वे पाँचों आदमी गठरी लिये हुए बाग के बीचोबीच वाले उस मकान में पहुँचे, जिसमें पहिले किशोरी रहती थी। जब उस मकान के अन्दर पहुँच गये तो उन लोगों ने चकमक से आग झाड़ मशाल जलायी, और गठरी को बँधी-बँधायी जमीन पर छोड़कर आपुस में यों बातचीत करने लगे—

एक : अच्छा अब क्या करना चाहिए?

दूसरा : गठरी को इसी जगह छोड़कर राजमहल में पहुँचना, और अपना काम करना चाहिए।

तीसरा : नहीं नहीं, पहिले इस गठरी को ऐसी जगह रखना या पहुँचाना चाहिए, जिसमें सवेरा होते किसी-न-किसी की निगाह इस पर अवश्य पड़े।

चौथा : बाग के इस हिस्से में कोई रहता तो है नहीं, फिर किसी की निगाह इस पर क्यों पड़ने लगी?

पाँचवाँ : अगर ऐसा है तो इसे भी अपने साथ राजमहल में ले चलना।

पहिला : अजब आदमी हो, राजमहल में अपना जाना तो कठिन हो रहा है, तुम कहते हो कि गठरी भी लेते चलो!

दूसरा : फिर इस बाग में इस गठरी का रखना बेकार ही है, जहाँ कोई आदमी रहता ही नहीं!

चौथा : बस अब इसी हुज्जत में रात बिता दो! अभी पहिले अपना असल काम तो कर लो जिसके लिए आये हो, चलो पहिले तहखाना खोलो।

दूसरा : ठीक है, मैं भी यही उचित समझता हूँ।

इतना कहकर वह खड़ा हो गया और अपने साथियों को भी उठने का इशारा किया।

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