लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

107 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

।। बारहवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

हम ग्यारहवें भाग के अन्त में लिख आये हैं कि जब देवीसिंह ने उस विचित्र मनुष्य का चेहरा धोकर साफ़ किया तो शायद तारा ने उसे पहिचान लिया और इस घटना का उस पर ऐसा असर हुआ कि वह चिल्ला उठी, उसका सर घूमने लगा और वह जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गयी। उसी समय सामने से वह नकाबपोश भी आता हुआ दिखायी दिया, जिसने उस विचित्र मनुष्य को हैरान और परेशान कर दिया था, और उस गठरी को भी अपने कब्जे में कर लिया था, जिसमें विचित्र मनुष्य के कहे मुताबिक तारा की किस्मत बन्द थी। इस बयान में भी हम उसी सिलसिले को जारी रखना उचित समझते हैं।

बात-की-बात में नकाबपोश उस जगह आ पहुँचा, जहाँ वह विचित्र मनुष्य और उसके सामने एक पत्थर की चट्टान पर तारा बेहोश पड़ी हुई थी, तथा कमलिनी बड़ी मुहब्बत से तारा का सर थामे ताज्जुब भरी निगाहों से हरएक को देख रही थी।

देवी : (नकाबपोश से) आप यहाँ कैसे आये? क्या यहाँ का रास्ता आपको मालूम था?

नकाबपोश : नहीं नहीं, मैं तुम्हारे पीछे-पीछे यहाँ तक आया हूँ।

इतना कहकर नकाबपोश ने अपने चेहरे से नकाब उठाकर पीछे की तरफ उलट दी, और सभों ने तेजसिंह को पहिचानकर बड़ा ही आश्चर्य किया। भैरोसिंह ने दौड़कर अपने पिता का चरण छुआ, देवीसिंह भी तेजसिंह से गले मिले और किशोरी, कामिनी, लाडिली तथा कमलिनी ने भी उन्हें प्रणाम किया।

देवी : (तेजसिंह से) क्या आप ही वह नकाबपोश हैं, जिसका विचित्र हाल भूतनाथ की जुबानी सुना है?

तेज : हाँ मैं ही था, मगर भूतनाथ को इस बात का शक भी न हुआ होगा कि नकाबपोश वास्तव में तेजसिंह है। (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) इसके और भूतनाथ के बीच जो-जो बातें या घटनाएँ हुईं, वह भूतनाथ की जुबानी तुमने सुनी होंगी?

देवी : हाँ, सुनी तो हैं मगर, मुझे विश्वास नहीं है कि भूतनाथ ने जो कहा सब सच कहा होगा।

तेज : ठीक है, रात से मेरा ख्याल भी भूतनाथ की तरफ से ऐसा ही हो रहा है, खैर, मैं स्वयं सब हाल तुम लोगों को कहता हूँ। मैं तारासिंह को लिए हुए रोहतासगढ़ जा रहा था, जब यह खबर पहुँची कि कमलिनी के तिलिस्मी मकान को दुश्मनों ने घेर लिया है, और उस पर अपना दखल जमाया ही चाहते हैं। मैंने तुरन्त थोड़े-से फौजी सिपाहियों को दुश्मन से मुकाबला करने के लिए रवाना किया और दो घण्टे बाद तारा सिंह को साथ लेकर, सूरत बदले हुए खुद भी उसी तरफ रवाना हुआ। रात की पहिली अँधेरी थी, जब हम दोनों एक जंगल में पहुँचे, और उसी समय घोड़े के टापों की आवाज़ आने लगी। यह आवाज़ पीछे की तरफ से आ रही थी, और क्रमशः पास होती जाती थी। हम दोनों यह सोचकर पेड़ की आड़ में खड़े हो गये कि जब यह सवार आगे निकल जाँय, तब हम लोग चलेंगे, मगर जब यह घोड़ा उस पेड़ के पास पहुँचा, जिसकी आड़ में हम दोनों छिपे खड़े थे जिसकी आड़ में हम लोग छिपे खड़े थे, तो हमने देखा कि उस घोड़े पर एक नहीं, बल्कि दो आदमी सवार हैं, जिसमें से एक औरत है, जो पीछे की तरफ बैठी हुई है। उसका औरत होना मुझे इस तरह मालूम हुआ कि जब घोड़ा उस पेड़ के पास पहुँचा, जिसकी आड़ में हम लोग छिपे हुए थे तो उस औरत ने कहा, "जरा ठहर जाइए, मैं इस जगह उतरूँगी और दस-बारह पल के लिए आपसे जुदा होऊँगी।" बस इस आवाज़ ही से मुझे निश्चय हो गया कि वह औरत है। घोड़ा रोककर सवार उतर पड़ा, और हाथ का सहारा देकर उस औरत को भी उसने उतारा।

इतना कहकर तेजसिंह रुक गये और कमलिनी की तरफ देखकर बोले, "मगर मुझे इस समय अपना किस्सा कहते अच्छा नहीं मालूम होता।"

कमलिनी : सो क्यों?

तेज : इसलिए कि मैं एक तरफ बेचारी तारा को बेहोश देखता हूँ, दूसरी तरफ किशोरी और कामिनी को ऐसी अवस्था में पाता हूँ, जैसे वर्षों की बीमार हों और तुमको भी सुस्त और उदास देखता हूँ, इन कारणों से मेरी यह इच्छा होती है कि पहिले इस तरफ का हाल सुन लूँ।

कमलिनी : आपका कहना बहुत ठीक है, फिर भी मैं यही चाहती हूँ कि पहिले आपका हाल सुन लूँ।

तेज : खैर, मैं भी अपना किस्सा मुख्तसर ही में पूरा करता हूँ।

इतना कहकर तेजसिंह ने फिर कहना शुरू किया—

"जब वह औरत उस काम से छुट्टी पा चुकी जिसके लिए उतरी थी, तो घोड़े के पास आयी और अपने साथी से बोली, "भूतनाथ ने जिस समय आपको देखा उसके चेहरे पर मुर्दानी छा गयी।" इसका जवाब उस आदमी ने जो वास्तव में (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) यही हजरत थे, यों दिया, "बेशक ऐसा ही है क्योंकि भूतनाथ मुझे मुर्दा समझे हुए था। देखो तो सही आज मेरे और उसके बीच कैसी निपटती है। मैं उसे अवश्य अपने साथ ले आऊँगा और नहीं तो आज ही उसका भण्डा फोड़ दूँगा जो बड़ा अच्छा, नेक और बहादुर बना फिरता है!!" इतना कह दोनों पुनः घोड़े पर सवार हुए और आगे की तरफ चले। मेरे दिल में तरह-तरह के खुटके पैदा हो रहे थे, और मैं अपने को उनके पीछे जाने से किसी तरह रोक नहीं सकता था। लाचार हम दोनों भी उनके पीछे तेजी के साथ रवाना हुए। इस बात की फिक्र मेरे दिल से बिल्कुल जाती रही कि हमारे फौजी सिपाही दुश्मनों के मुकाबले में कब पहुँचेंगे और क्या करेंगे। अब तो यह फिक्र पैदा हुई कि यह आदमी कौन है, और इससे तथा भूतनाथ से क्या सम्बन्ध है, इस बात का पता लगाना चाहिए, और इसी लिए हम लोग अपना रास्ता छोड़कर घोड़े के पीछे-पीछे रवाना हुए, मगर हम लोगों को बहुत देर तक सफर न करना पड़ा और शीघ्र ही हम लोग उस जंगल में जा पहुँचे, जिसमें भगवानी और श्यामसुन्दर की कहा-सुनी हो रही थी, और थोड़ी देर बाद आप लोग भी पहुँच गये थे। मैं जानबूझकर आप लोगों से नहीं मिला और इस विचित्र मनुष्य के पीछे पड़ा रहा, यहाँ तक कि आप लोग चले गये और मुझे वह विचित्र घटना देखनी पड़ी।"

इसके बाद तेजसिंह ने वह सब हाल कहा, जिसे हम ऊपर लिख आये हैं और पुनः इस जगह दोहराकर लिखना वृथा समझते हैं, हाँ, उस दूसरे नकाबपोश के विषय में कदाचित् पाठकों को भ्रम होगा इसलिए साफ़  लिख देना आवश्यक होगा कि वह दूसरा नकाबपोश, जिसने भगवानी को भागने से रोक रक्खा था, और जिसके पास पहुँचने के लिए तेजसिंह ने श्यामसुन्दरसिंह को नसीहत की थी, वास्तव में तारा सिंह था, जिसका हाल इस समय तेजसिंह के बयान करने से मालूम हुआ।

जो कुछ हम ऊपर लिख आये हैं, उतना बयान करने बाद तेजसिंह ने कहा, "जब यह विचित्र मनुष्य भूतनाथ को लेकर रवाना हुआ तो मैं भी इसके पीछे-पीछे चला पर बीच ही में उससे और देवीसिंह से मुलाकात हो गयी, देवीसिंह उसे पकड़के यहाँ ले आये और मैं भी देवीसिंह के पीछे-पीछे चुपचाप यहाँ तक चला आया।"

इतना कहकर तेजसिंह चुप हो गये और तारा की तरफ देखने लगे।

कमलिनी : यह घटना तो बड़ी ही विचित्र है, निःसन्देह इसके अन्दर कोई गुप्त रहस्य छिपा हुआ है।

तेज : जहाँ तक मैं समझता हूँ मालूम होता है कि आज बड़ी-बड़ी गुप्त बातों का पता लगेगा। अब कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए, जिसमें यह (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) अपना सच्चा हाल कह दे।

देवी : तो इसे होश में लाना चाहिए।

तेज : नहीं, इसे अभी इसी तरह पड़ा रहने दो, कोई हर्ज नहीं और पहिले तारा को होश में लाने का उद्योग करो।

देवी : बहुत अच्छा।

अब देवीसिंह तारा को होश में लाने का उद्योग करने लगे, और तेजसिंह ने कमलिनी से कहा, "जब तक तारा होश में आवे तब तक तुम अपना हाल और इस तरफ जो कुछ बीता है, सो सब हाल कह जाओ।" कमलिनी ने ऐसा ही किया अर्थात् अपनी और किशोरी, कामिनी तथा तारा का सब हाल संक्षेप में कह सुनाया, और इसी बीच में तारा भी होश में आकर बातचीत करने योग्य हो गयी।

कमलिनी : (तारा से) क्यों बहिन अब तबीयत कैसी है?

तारा : अच्छी है।

कमलिनी : तुम इस विचित्र मनुष्य को देखकर इतना डरी क्यों? क्या इसे पहिचानती हो?

तारा : हाँ, मैं इसे पहिचानती हूँ, मगर अफसोस कि इसका अशल भेद अपनी जुबान से नहीं कह सकती। (विचित्र मनुष्य की तरफ देखके) हाय, इस बेचारे ने तो किसी का कुछ भी नुकसान नहीं किया, फिर आप लोग क्यों इसके पीछे पड़े हैं?

कमलिनी : बहिन मेरी समझ में नहीं आता कि तुम इसका भेद जानके भी इतना क्यों छिपाती हो? क्या तुमने अभी नहीं सुना कि इसके और भूतनाथ के विषय में क्या बातें हुई हैं? मगर फिर भी ताज्जुब है कि इसे तुम अपनायत के ढंग से देख रही हो!!

तारा : (लम्बी साँस लेकर) हाय, अब मैं अपने दिल को नहीं रोक सकती। उसमें अब इतनी ताकत नहीं कि उन भेदों को छिपा सके, जिन्हें इतने दिनों तक अपने अन्दर इसलिए छिपा रक्खा था कि मुसीबत के दिन निकल जाने पर प्रकट किये जायेंगे। नहीं नहीं, अब मैं नहीं छिपा सकती! बहिन कमलिनी, तू वास्तव में मेरी बहिन है, और सगी बहिन है, मैं तुझसे बड़ी हूँ, मेरा ही नाम लक्ष्मीदेवी है।

कमलिनी : (चौंककर और तारा को गले लगाकर) ओह! मेरी प्यारी बहिन! क्या वास्तव में तुम लक्ष्मीदेवी हो?

तारा : हाँ, और यह विचित्र मनुष्य हमारा बाप है!

कमलिनी : हमारा बाप बलभद्रसिंह!!

तारा : हाँ, यही हमारे-तुम्हारे और लाडिली के बाप बलभद्रसिंह हैं। कमबख्त मायारानी की बदौलत मेरे साथ मेरे बाप को भी कैदखाने की अँधेरी कोठरी में सड़ते रहे। हरामजादा दारोगा इस पर भी सन्तुष्ट न हुआ और उसने इनको जहर दे दिया, मगर ईश्नर ने एक सहायक भेज दिया, जिसकी बदौलत जान बच गयी। पर फिर भी उस जहर के तेज असर ने इनका बदन फोड़ दिया और रंग बिगाड़ दिया, बल्कि इस योग्य तक न रक्खा कि तुम इन्हें पहिचान सको। इतना ही नहीं और भी बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़े। (रोकर) हाय! अब मेरे कलेजे में दर्द हो रहा है। मैं उन मुसीबतों को बयान नहीं कर सकती! तुम स्वयं अपने पिता ही से सब हाल पूछ लो, जिन्हें मैं कई वर्षों के बाद इस अवस्था में देख रही हूँ!

पाठक, आप समझ सकते हैं कि तारा की इन बातों ने कमलिनी के दिल पर क्या असर किया होगा, तेजसिंह और भैरोसिंह की क्या अवस्था हुई होगी और देवीसिंह कितना शर्मिंदा हुए होंगे, जिन्होंने पत्थर मारकर उस विचित्र मनुष्य का सर तोड़ डाला था। कमलिनी दौड़ी हुई अपने बाप के पास गयी और उसके गले से चिपटकर रोने लगी। तेजसिंह भी लपककर उनके पास गये और लखलखे की डिबिया उनके नाक से लगायी। बलभद्रसिंह होश में आकर उठ बैठे और ताज्जुब-भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे। तारा, कमलिनी और लाडिली पर निगाह पड़ते ही, उद्योग करने पर भी न रुकने वाले आँसू उनकी आँखों में डबडबा आये और उन्होंने कमलिनी की तरफ देखकर काँपती हुई आवाज़ में कहा, "क्या तारा ने मेरे या अपने विषय में कोई बात कही? तुम लोग जिस निगाह से मुझे देख रही हो उससे साफ़ मालूम होता है कि तारा ने मुझे पहिचान लिया और मेरे तथा अपने विषय में कुछ कहा है!!"

कमलिनी : (गद्गद होकर) जी हाँ, तारा ने अपना और आपका परिचय देकर मुझे बड़ा ही प्रसन्न किया है।

बलभद्र : तो बस, अब मैं अपने को क्योंकर छिपा सकता हूँ, और इस बात से क्यों इनकार कर सकता हूँ कि मैं तुम तीनों बहिनों का बाप हूँ। आह! मैं अपने दुश्मनों से बदला स्वयं लेने की नीयत से थोड़े दिन तक अपने को छिपाना चाहता था, मगर समय ने ऐसा न करने दिया! खैर, मर्जी परमात्मा की! अच्छा कमलिनी सच कहियो, क्या तुझे इस बात का गुमान भी न था कि तेरा बाप जीता है?

कमलिनी : मैं अफसोस के साथ कहती हूँ कि कई पितृपक्ष ऐसे बीत गये, जिसमें मैं अपने नाम की तिलांजली दे चुकी हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास दिलाया गया था कि हम लोगों के सर पर से हमारे प्यारे बाप का साया जाता रहा, और इस बात को भी एक जमाना गुजर गया। जो हो, मगर आज हमारी खुशी का अन्दाजा कोई भी नहीं कर सकता।

बलभद्रसिंह उठकर तारा के पास गया, जिसमें चलने-फिरने की ताकत अभी तक नहीं आयी थी, तारा उनके गले से लिपट गयी और फूट-फूटकर रोने लगी। उसके बाद लाडिली की नौबत आयी, और उसने भी रो-रोकर अपने कपड़े भिगोये और मायारानी को गालियाँ देती रही। आधे घण्टे तक यही हालत रही, अन्त में तेजसिंह ने सभों को समझा-बुझाकर शान्त किया और फिर बातचीत होने लगी।

देवी : (बलभद्रसिंह से) मैं आपसे माफी माँगता हूँ, मुझसे जो कुछ भूल हुई, वह अनजाने में हुई!

बलभद्रसिंह : (हँसकर) नहीं नहीं, मुझे इस बात का रंज कुछ भी नहीं है, बल्कि सच तो यों है कि अब मुझे केवल आप ही लोगों का भरोसा रह गया, मगर अफसोस इतना ही है कि भूतनाथ आप लोगों का दोस्त है, और मैं उसे किसी तरह भी माफ नहीं कर सकता।

तेज : हम लोगों को बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है और बिल्कुल समझ में नहीं आता कि आपके और भूतनाथ के बीच में किस बात की ऐंठन पड़ी हुई है।

बलभद्रसिंह : (तेजसिंह से) मालूम होता है कि अभी तक आपने वह गठरी नहीं खोली, जो आपने एक औरत के हाथ से छीनी थी, और जो इस समय भी मैं आपके पास देख रहा हूँ।

तेज : (गठरी दिखाकर) नहीं, मैंने इसे अभी तक नहीं खोला।

बलभद्र : तभी आप ऐसे पूछते हैं, अच्छा अब इसे खोलिए।

कमलिनी : वह औरत कौन थी?

बलभद्र : उसका भी हाल मालूम हो जायगा, जरा सब्र करो! (तेजसिंह से) हाँ, साहब अब वह गठरी खोलिए।

"बहुत अच्छा" कहकर तेजसिंह उठे और गठरी लिए हुए उस तरफ बढ़ गये, जहाँ किशोरी, कामिनी और तारा पड़ी थीं। इसके बाद सभों को तरफ देखके बोले, "इस गठरी में क्या है, सो देखने के लिए सभों का जी बेचैन हो रहा होगा, बल्कि मैं कह सकता हूँ कि तारा सबसे ज्यादा बेचैन होगी, इसलिए मैं किशोरी, कामिनी और तारा ही के पास बैठकर यह गठरी खोलता हूँ, जिन्हें उठने और चलने में तकलीफ होगी, आइए आप लोग भी इसी जगह आ बैठिए।"

इतना कहकर तेजसिंह बैठ गये, बलभद्रसिंह उनके बगल में जा बैठे, और बाकी सभो ने तेजसिंह को इस तरह घेर लिया, जैसे किसी मदारी को खेल करते समय मनचले लड़के घेर लेते हैं। तेजसिंह ने गठरी खोली और सभों की निगाह उसके अन्दर की चीज़ों पर पड़ी।

इस गठरी में पीतल की एक छोटी-सी सन्दूकड़ी थी, जिसे कमलदान भी कह सकते हैं, और एक मुट्ठा कागजों का था। बलभद्रसिंह ने कहा, "पहिले इस कागज के मुट्ठे को खोलो।" तेजसिंह ने ऐसा ही किया और जब कागज का मुट्ठा खोला गया तो मालूम हुआ कि कई चीठियों को आपस में एक दूसरे के साथ जोड़ के वह मुट्ठा तैयार किया गया है।

तेज : (मुट्ठा खोलते हुए) इसे शैतान की आँत कहें या विधाता की जन्मपत्री!

बलभद्र : (हँसकर) आप जो चाहें कह सकते हैं। इन चीठियों और पुर्जों को मैंने क्रम के साथ जोड़ा है, आप शुरू से एक-एक करके पढ़ना आरम्भ कीजिए।

तेज : बहुत अच्छा।

तेजसिंह ने पहिला पुर्जा पढ़ा, उसमें ऊपर की तरफ यह लिखा हुआ था—

"श्रीयुत् रघुबरसिंह योग्य लिखी हेलासिंह का राम राम।" और बाद में यह मजमून था—

"मेरे प्यारे दोस्त,

आपको मालूम है कि राजा गोपालसिंह की शादी बलभद्रसिंह की लड़की लक्ष्मीदेवी के साथ होनेवाली है, मगर मैं चाहता हूँ कि आप कृपा करके कोई ऐसा बन्दोबस्त करें, जिसमें वह शादी टूट जाय और उसके बदले में मेरी लड़की मुन्दर की शादी राजा गोपालसिंह के साथ हो जाय। अगर ऐसा हुआ तो मैं जन्म-भर आपका अहसान मानूँगा और जो कुछ आप कहेंगे करूँगा। मुझे आपकी दोस्ती पर बहुत भरोसा है। शुभम्"

बलभद्र : लीजिए पहिले नम्बर की चीठी समाप्त!

तारा : रघुबरसिंह किसका नाम है?

तेज : इस भूतनाथ का नाम रघुबरसिंह है, और नानक इसी का लड़का है, (बलभद्रसिंह से) क्या हेलासिंह मायारानी के बाप का नाम है?

बलभद्र: जी हाँ, और मायारानी का असल नाम मुन्दर है।

कमलिनी : अच्छा आगे पढ़िए।

तेजसिंह ने दूसरी चीठी पढ़ी। उसमें यह लिखा था—

"मेरे प्यारे दोस्त हेलासिंह,

आपका पत्र पहुँचा। मैं इस बात का उद्योग कर सकता हूँ, मगर इस काम में हद से ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। खुल्लम-खुल्ला तो आपकी लड़की की शादी राजा गोपालसिंह के साथ नहीं हो सकती, क्योंकि राजा गोपालसिंह को आपकी लड़की का विधवा होना मालूम है, हाँ, उनका दारोगा अगर हमारे साथ मिल जाय तो कोई तरकीब निकल सकती है, लेकिन उसमें भी यह कठिनाई है कि दारोगा लालची है, और आप गरीब हैं।

— रघुबरसिंह"

देवी : वाह वाह, भूतनाथ तो बड़ा शैतान मालूम होता है! यह सब काँटे क्या उसी के बोये हुए हैं!

कमलिनी : मगर अफसोस है कि आप उसे अपना दोस्त बनाने के लिए कसम खा चुके हैं!

बलभद्र : मैं ठीक कहता हूँ कि थोड़ी देर बाद देवीसिंहजी को अपने किये पर पछताना पड़ेगा।

लाडिली : खैर, जो होगा देखा जायगा, आप तीसरी चीठी पढ़िए।

बलभद्र : मालूम नहीं कि भूतनाथ की चीठी की जवाब हेलासिंह ने क्या दिया था, क्योंकि वह चीठी मेरे हाथ नहीं लगी। यह तीसरी चीठी जो आप पढ़ेंगे वह भी भूतनाथ ही की लिखा हुई है।

तेजसिंह तीसरी चीठी पढ़ने लगे। उसमें लिखा हुआ था—

"प्रियवर हेलासिंह,

आपने लिखा कि ‘यद्यपि मुन्दर विधवा है और उसकी उम्र भी ज्यादे है परन्तु नाटी होने के सबब से वह ज्यादे उम्र की मालूम नहीं पड़ती’ ठीक है, मगर बहुत-सी बातें ऐसी हैं, जो औरों को चाहें मालूम न हों, मगर उससे किसी तरह छिपी नहीं रह सकतीं, जिसके साथ उसकी शादी होगी और इसी बात से राजा गोपालसिंह का दारोगा भी डरता है, मगर मैंने भविष्य के लिए उसके खयाल में ऐसे-ऐसे सरसब्ज बाग पैदा कर दिये हैं कि जिसकी बेसुध और मदहोशी कर देने वाली खुशबू को वह अभी से सूँघने लग गया है, तिस पर भी मैं इस बात का तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि यह शादी प्रकट रूप से नहीं हो सकती। इसके लिए उस ब्याहवाले दिन ही कोई अनोखी चाल चलनी पड़ेगी। अस्तु, दारोगा साहब ने यह कहा कि आज के आठवें दिन गुरुवार को सन्ध्या के समय दारोगा साहब के बँगले में आप उनसे मिलें, मैं भी वहाँ मौजूद रहूँगा फिर जो कुछ तै हो जाय वही ठीक है।

वही रघुबर।"

कमलिनी : मुझे यह नहीं मालूम था कि भूतनाथ के हाथ से ऐसे-ऐसे अनुचित कार्य हुए हैं। उसने यही कहा था कि मैं राजा बीरेन्द्रसिंह का दोषी हूँ और इस बात का सबूत मायारानी और उसकी सखी मनोरमा के कब्जे में है। जहाँ तक मुझसे बना मैंने भूतनाथ का पक्ष करके उन सबूतों को गारत कर दिया, मगर मैं हैरान थी कि भूतनाथ को धमकाने, कब्जे में रखने, या तबाह करने के लिए मायारानी ने इतने सबूत क्यों बटोर रक्खे हैं, या उसे भूतनाथ की परवाह इतनी क्यों हुई! मगर आज उस बात का असल भेद खुल गया। इस समय मालूम हो गया कि लक्ष्मीदेवी और गोपालसिंह के साथ दगा करने में भूतनाथ शरीक था, और इस बात का डर केवल भूतनाथ और दारोगा ही को नहीं था, बल्कि मायारानी को भी था और वह भी अपने को भूतनाथ और दारोगा के कब्जे में समझती थी। राजा गोपालसिंह को कैद करने के बाद यह डर और भी बढ़ गया होगा और भूतनाथ ने भी उसे कुछ डराया-धमकाया या रुपये वसूल करने के लिए तंग किया होगा, और उस भूतनाथ को अपने आधीन करने के लिए मायारानी ने यह कार्रवाई की होगी, अर्थात् भूतनाथ को राजा बीरेन्द्रसिंह का दोषी ठहराने के लिए बहुत से सबूत इकट्ठे किये होंगे।

भैरो : मैं भी यही सोचता हूँ।

तेज : निःसन्देह ऐसा ही है।

कमलिनी : ओफ ओह! अगर मैं पहिले ही ऐसा जान गयी होती तो भूतनाथ का इतना पक्ष न करती, और न उसे अपना साथी ही बनाती।

देवी : मगर इधर तो उसने आपके कामों में बड़ी मेहनत की है, इसलिए कुछ मुरौवत तो करनी पड़ेगी!

कमलिनी : नहीं नहीं, मैं उसका कसूर कभी माफ नहीं कर सकती, चाहे जो हो!

देवी : मगर फिर वह भी आप ही लोगों का दुश्मन हो जायगा। जहाँ तक मैं समझता हूँ, इस समय वह अपने किये पर आप पछता रहा है।

कमलिनी : जो हो, मगर यह कसूर ऐसा नहीं है, जिसे मैं माफ कर सकूँ। ओह, आह! क्रोध के मारे मेरा अजब हाल हो रहा है!

तेज : उसने कसूर भी भारी किया है।

बलभद्र : अभी क्या है, अभी तो कुछ देखा ही नहीं! उसने जो किया है, उसका हजारवाँ भाग भी अभी तक आपको मालूम नहीं हुआ है! जरा आगे की चीठियाँ तो पढ़िए, और इसके बाद जब वह पीतलवाला कमलदान खुलेगा तब हम देवीसिंहजी से पूछेंगे कि ‘कहिए भूतनाथ के साथ कैसा सलूक करना चाहिए!!

इस समय बेचारी तारा (जिसको आगे से हम लक्ष्मीदेवी के नाम से लिखा करेंगे) चुपचाप बैठी लम्बी-लम्बी साँसे ले रही थी। बाप के शर्म से वह इस विषय में कुछ बोल नहीं सकती थी, मगर भूतनाथ से बदला लेने का खयाल उसके दिल में मजबूती के साथ जड़ पकड़ता जा रहा था, और क्रोध की आँच उसके अन्दर इतनी ज्यादे तेज होकर सुलग रही थी कि उसका तमाम बदन गर्म हो रहा था, इस तरह जैसे बुखार चढ़ आया हो। आज के पहिले वह भूतनाथ को लायक और नेक समझती थी, मगर इस समय यकायक जो बातें मालूम हुईं, उन्होंने उसे अपने आपे से बाहर कर दिया था।

तेजसिंह ने चौथी चीठी पढ़ी। उसमें यह लिखा हुआ था—

"प्रिय बन्धु हेलासिंह,

बहुत दिनों से पत्र न भेजने के कारण आपको उदास न होना चाहिए। मैं इस फिक्र में लगा हुआ हूँ कि किसी तरह बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी को खपा डालूँ, मगर अभी तक मैं कुछ न कर सका, क्योंकि एक तो बलभद्रसिंह स्वयं ऐयार है दूसरे आजकल राजा गोपालसिंह की आज्ञानुसार बिहारीसिंह और हरनामसिंह भी उसके घर की हिफाजत कर रहे हैं। खैर, कोई चिन्ता नहीं, देखिए तो सही क्या होता है! मैंने बलभद्रसिंह के पड़ोस में हलवाई की दुकान खोली है और अच्छे-अच्छे कारीगर हलवाई नौकर रक्खे हैं। बहुत-सी मिठाइयाँ मैंने ऐसी तैयार की हैं जिनमें दारोगा साहब का दिया हुआ अनूठा जहर बड़ी खूबी के साथ मिलाया गया है। यह जहर ऐसा है कि जिसे खाने के साथ ही आदमी नहीं मर जाता, बल्कि महीनों तक बीमार रहके जान देता है। जहर खाने वाले का बिल्कुल बदन फूट जायगा, और वैद्य लौग उसे देखके सिवाय इसके और कुछ भी नहीं कह सकेंगे कि यह गर्मी की बीमारी से मरा है, जहर का तो किसी को गुमान भी न होगा। मैं उस घर की लौंडियों और नौकरों से भी मेलजोल पैदा कर लिया है। अस्तु, चाहे वे लोग कैसे होशियार और धूर्त क्यों न हों, मगर एक-न-एक दिन हमारी जहरीली मिठाई बलभद्रसिंह के पेट में उतर ही जायगी। आपकी लड़की बड़ी होशियार और चांगली है। वह सुजान के घर में बहुत अच्छे ढंग से रहती है। सुजान ने उसे अपनी भतीजी कहकर मशहूर किया है, और उसकी भी बातचीत चल रही है, मगर गोपालसिंह का बूढ़ा बाप बड़ा ही शैतान है। दारोगा साहब उनका नाम-निशान भी मिटाने के उद्योग में लगे हुए हैं। सब्र करो, घबड़ाओ मत, काम अवश्य बन जायगा। आज से मैं अपना नाम बदल देता हूँ, मुझे अब भूतनाथ कहके पुकारना।

वही—भूत।"

इस चीठी ने सभों के दिल पर बड़ा ही भयानक असर किया, यहाँ तक कि देवीसिंह की आँखें भी मारे क्रोध के लाल हो गयीं और तमाम बदन काँपने लगा।

तेज : बेईमान! दुष्य! इतनी बढ़ी-चढ़ी बदमाशी!!

भैरो : इस हरामजदगी का कुछ ठिकाना है!

लाडिली : इस समय मेरा कलेजा फुँका जाता है। यदि भूतनाथ यहाँ मौजूद होता तो इसी समय अपने हृदय की आँच में उसे आहुति दे देती। परमेश्वर, ऐसे-ऐसे पापियों के साथ तू...

कमलिनी : हाय! कमबख्त भूतनाथ ने तो ऐसा काम किया है कि यदि वह कुत्ते से भी नुचवाया जाय तो उसका बदला नहीं हो सकता।

बलभद्र : ठीक है, मगर मैं उसकी जान कदापि न मारूँगा। मैं वही काम करूँगा, जिससे मेरे कलेजे की आग ठण्डी हो। ओफ...

देवी : इधर हम लोगों के साथ मिलके भूतनाथ ने जो-जो काम किये हैं, उनसे विश्वास हो गया था कि वह हम लोगों का खैरखाह है। हम लोग उससे बहुत ही प्रसन्न थे और...

बलभद्र : नहीं नहीं, वह ऐसे काले साँप का जहरीला बच्चा है, जिसके काटे का मन्त्र ही नहीं है। उसका कोई ठिकाना नहीं। बेशक, वह कुछ दिन में आप लोगों को अपने अधीन करके मायारानी से मिल जाता। यह काम भी वह कभी का कर चुका होता, मगर जब से उसने मेरी सूरत देख ली है, और उसे निश्चय हो गया कि मैं मरा नहीं, बल्कि जीता हूँ, तब से उसकी अक्ल ठिकाने नहीं है, वह घबड़ा गया है, और अपने बचाव की तरकीब सोच रहा है। (तेजसिंह से) खैर, आगे पढ़िए, देखिए और क्या बात मालूम होती है!

तेजसिंह ने अगली चीठी पढ़ी, उसमें यह लिखा हुआ था—

"मेरे लंगोटिया यार हेलासिंह,

मालूम होता है, तुम्हारा नसीब बड़ा जबर्दस्त है। राजा गोपालसिंह का बुड्ढा बाप बड़ा ही चांगला और काँइयाँ था। जब कमबख्त अपने ही मन की करता था। अगर वह जीता रहता तो लक्ष्मीदेवी की शादी गोपालसिंह से अवश्य हो जाती, क्योंकि वह बलभद्रसिंह की बहुत इज्जत करता था। बलभद्रसिंह की जाति उत्तम है और वह हर जाति-पाँति का खयाल बहुत करता था। खैर, आज तुम्हें इस बात की बधाई देता हूँ कि मेरी और दारोगा की मेहनत ठिकाने लगी, और वह इस दुनिया से कूट कर गया। सच तो यों है कि बड़ा भारी काँटा निकल गया। अब साल-भर के लिए शादी रुक गयी, और इस बीच में हम लोग बहुत-कुछ कर गुजरेंगे।

वही भूत।"

चीठी पूरी करने के साथ ही तेजसिंह की आँखों से आँसू की बूँदें टपकने लगीं और उन्होंने एक लम्बी साँस लेकर कहा, "अफसोस! यह बात किसी को भी मालूम न हुई कि राजा गोपालसिंह का बाप इन दुष्टों की चाल बाजियों का शिकार हुआ था।"

तारा यद्यपि बड़ी मुश्किल से अपने दिल को रोके हुए यह सब तमाशा देख और सुन रही थी, मगर इस चीठी ने उसके साहस में विघ्न में डाल दिया और उसे सभों की आँखें बचाकर आँचल के कोने से अपने आँसूँ पोंछने पड़े। किशोरी, कमलिनी, लाडिली, कामिनी और ऐयारों का दिल भी हिल गया, और भूतनाथ की सूरत घृणा के साथ उनकी आँखों के सामने घूमने लगी। तेजसिंह ने कागज का मुट्ठा जमीन पर रख दिया और अपने दिल को सम्हालने की नीयत से सर उठाकर सरसब्ज पहाड़ियों की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा, इसके बाद तेजसिंह ने कागज का मुट्ठा उठा लिया और पढ़ने लगे।

"मेरे भाग्याशाली मित्र हेलासिंह,

मुबारक हो! आज हमारी जहरीली मिठाई बलभद्रसिंह के घर में जा पहुँची। इसका जो कुछ नतीजा देखूँगा, अगली चीठी में लिखूँगा। वास्तव में तुम किस्मतवार हो!

वही—भूत।"

कमलिनी : हाय कमबख्त, तेरा सत्यानाश हो!

लाडिली : चाण्डाल कहीं का, ऐसा सत्यानाशी और हम लोगों के साथ रहे! छी : छी :!!

तारा : (तेजसिंह से) हाय, मेरा जी डूबा जा रहा है, मैं हाथ जोड़ती हूँ इसके बाद वाली चीठी शीघ्र पढ़िए, जिसमें मालूम हो उस विश्वासघाती की मिठाई का क्या नतीजा निकला।

सब : हाँ हाँ, यहाँ पर हम लोग नहीं रुक सकते, शीघ्र पढ़िए।

तेज : मैं पढ़ता हूँ—

"श्रीमान प्यारे बन्धु हेलासिंह,

खुशी मनाइए कि मेरी मिठाई ने लक्ष्मीदेवी की माँ, लक्ष्मीदेवी के छोटे भाई और दो लौंडियों का काम तमाम कर दिया। बलभद्रसिंह और उसकी लड़कियों ने मिठाई नहीं खायी थी, इसलिए बच गयीं। खैर, फिर सही जाते कहाँ हैं।

वही—भूत।"

इस चीठी ने तो अन्धेर कर दिया। कोई भी ऐसा नहीं था, जिसकी आँख से आँसू न निकलते हों। कमलिनी और लाडिली रोने लगीं, और लक्ष्मीदेवी तो चिल्लाकर बोली, "हाय, इस समय मुझे लड़कपन की सब बातें याद आ रही हैं। वह समा मेरी आँखों के सामने घूम रहा है। मेरे घर में वैद्यों की धूम मची हुई थी, मेरी प्यारी माँ अपनी लड़के की लाश पर पछाड़ें खा रही थी, अन्त में वह भी मर गयी। हम लोग रो-रोकर लाश के साथ चिमटते थे, और हमारा बाप हम लोगों को खैंच-खैंचकर अलग करता था। हाय! क्या दुनिया में कोई ऐसी सजा है, जो इस बात का पूरा बदला कहला सके!!

किशोरी : (रोकर) कोई नहीं, कोई नहीं!

कमलिनी : हाय मेरे कलेजे में दर्द होने लगा! किस दुष्ट का जीवन चरित्र मैं सुन रही हूँ! बस अब मुझमें सुनने की सामर्थ्य नहीं रही, (रोकर) ओफ, इतना जुल्म! इतना अन्धेर!

भैरो : बस रहने दीजिए, अब इस समय आगे न पढ़िए।

तेज : इस समय मैं आगे पढ़ ही नहीं सकता।

तेजसिंह ने कागज का मुट्ठा लपेटकर रख दिया और सभों को दिलासा और तसल्ली देने लगे। तेजसिंह का इशारा पाकर भैरोसिंह और देवीसिंह कई तीतर और बटेर शिकार कर लाये, और उसका कबाब तथा शोरबा बनाने लगे, जिसमें सभों को खिला-पिलाकर शान्त करें।

आज खाने-पीने की इच्छा किसी भी न थी, मगर तेजसिंह के समझाने-बुझाने ने सभों ने कुछ खाया और जब शान्त हुए तो तेजसिंह ने कहा, "अब हमको तालाब वाले मकान में चलना चाहिए।"

बलभद्र : हाँ, अब इस जगह रहना ठीक न होगा, मकान में चलकर जो कुछ पढ़ना या देखना हो पढ़ियेगा।

कमलिनी : मेरी भी यही राय है। मैं देवीसिंहजी से कह चुकी हूँ कि यदि मैं उस मकान में रहती तो, दुश्मन हमारा कुछ भी न बिगाड़ सकते, और तालाब को पाट देना तो असम्भव ही था। खैर, अब भी मैं बिना परिश्रम के उस तालाब की सफाई कर सकती हूँ।

इतना कहकर कमलिनी ने तालाबवाले मकान का बहुत-सा भेद तेजसिंह को बताया, और जिस तरह से तालाब की सफाई हो सकती थी, वह भी कहा जो कि हम ऊपर लिख आये हैं। अन्त में सभों ने निश्चय कर लिया कि घण्टे-भर के अन्दर इस जगह को छोड़ देना, और तालाब वाले मकान में चले जाना चाहिए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book