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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


दिन ढल चुका था, जब देवीसिंह विचित्र मनुष्य की गठरी और दोनों घोड़ों को लिए वहाँ पहुँचे थे, जहाँ किशोरी, कामिनी, तारा, कमलिनी, लाडिली और भैरोसिंह को छोड़ा था। तीतर का शोरबा पीने से किशोरी, कामिनी और तारा की तबीयत ठहरी हुई थी, और वे इस योग्य हो गयी थीं कि दीवार से सहारे कुछ देर तक बैठ सकें, अस्तु, इस समय जब देवीसिंह वहाँ पहुँचे तो वे तीनों पत्थर की चट्टान के सहारे बैठी हुईं, कमलिनी और भैरोसिंह से बातचीत कर रही थीं। वहाँ जंगली पेडो़ की घनी छाया थी, जिनकी टहनियाँ तेज हवा के झपेटों से झोंकें खा रही थीं, और पत्तों की खड़खड़ाहट की मधुर-ध्वनि बहुत ही भली मालूम देती थी।

जिस समय भैरोसिंह ने देखा कि देवीसिंह के साथ दोनों घोड़ ही नहीं हैं, बल्कि एक गठरी भी है, बल्कि एक गठरी भी है, वह उठकर आगे बढ़ गया और विचित्र मनुष्य की गठरी अपनी पीठ पर लादकर कमलिनी के पास ले आया। उस समय सभी की निगाहें उसी गठरी की तरफ पड़ गयी थीं। दोनों घोड़ों को पेड़ से बाँधकर जब देवीसिंह कमलिनी के पास पहुँचे तो उन्होंने अपने पास की गठरी खोली और सभों ने बड़े गौर से विचित्र मनुष्य के चेहरे पर नजर डाली। यद्यपि देवीसिंह ने उसके फटे हुए सिर पर कपड़ा बाँध दिया था, मगर थोड़ा-थोड़ा खून अभी तक बह रहा था।

कमलिनी: इसे आप कहाँ से ले आये और यह कौन है?

देवी : मुझे अभी तक न मालूम हुआ कि यह कौन है?

कमलिनी : (आश्चर्य से) क्या खूब! अगर ऐसा ही था तो इसे कैद क्योंकर लाये?

देवी : इसका किस्सा बड़ा ही विचित्र है। मुझे अब निश्चय हो गया कि भूतनाथ निःसन्देह किसी भारी घटना का शिकार हो रहा है, जैसा कि आपने कहा था।

कमलिनी : अच्छा अब मैं टूटी-फूटी बातें नहीं सुनना चाहती, जो कुछ हाल हो खुलासा-खुलासा कह जाइए।

इस जगह पुनः उन बातों को दोहराना पाठकों का समय नष्ट करना है, अतएव इतना ही कह देना काफी है कि देवीसिंह ने अपना पूरा हाल तथा भूतनाथ की जुबानी इस विचित्र मनुष्य और नकाबपोश वगैरह का जो कुछ हाल सुना था, कमलिनी से कह सुनाया, जिसे सुनकर कमलिनी को बड़ा ही ताज्जुब हुआ। कमलिनी से भी ज्यादा ताज्जुब तारा को हुआ, जब उसने सुना कि इस विचित्र मनुष्य के हाथ में एक गठरी थी, जिसके विषय में यह कहता था कि इसके अन्दर तारा की किस्मत बन्द है, और गठरी घूमती-फिरती किसी नकाबपोश के हाथ में चली गयी, मालूम नहीं वह नकाबपोश कौनं था, या कहाँ चला गया।

कमलिनी : (तारा से) जब तुम्हारी किस्मत की गठरी इस आदमी के हाथ में थी तो मालूम होता है कि तुम इसे जानती भी होगी!

तारा : कुछ भी नहीं, बल्कि जहाँ तक मैं कह सकती हूँ, मालूम होता है कि मैंने इसकी सूरत भी कभी नहीं देखी होगी।

कमलिनी : ठीक है, इस समय इसके विषय में तुमसे कुछ पूछना है क्योंकि साफ़ मालूम होता है कि इस आदमी की सूरत वास्तव में वैसी नहीं है, जैसी हम देख रहे हैं। जरूर इसने अपनी सूरत बदली है, और इसके बाल भी असली नहीं हैं, बल्कि बनावटी हैं, जब वे अलग किये जायँगे और इसका चेहरा धोया जायगा तब शायद तुम इसे पहिचान सको।

तारा : कदाचित ऐसा ही हो।

कमलिनी : अच्छा तो पहिले इसका चेहरा साफ़ करना चाहिए।

देवी : मैं भी यही मुनासिब समझता हूँ, इसके बाद इसे होश में लाकर जो कुछ पूछना हो पूछा जायगा।

इतना कहकर देवीसिंह ने अपने बटुए में से लोटा निकाला, भैरोसिंह का लोटा भी उठा लिया और जल भरने के लिए चश्मे के किनारे गये। चश्मा बहुत दूर न था, इसलिए बहुत जल्द लौट आये और बाल दूर करके उसका चेहरा धोने लगे। आश्चर्य की बात है कि जैसे-जैसे उस विचित्र का चेहरा साफ़ होता जाता था, तैसे-तैसे तारा के चेहरे की रंगत बदलती जाती थी, यहाँ तक कि उसका चेहरा अच्छी तरह साफ़ भी न हुआ था कि तारा ने एक चीख मारी और ‘हाय’ कहके गिरने के साथ ही बेहोश हो गयी। उस वक्त सभों का खयाल तारा की तरफ जा रहा और कमलिनी ने कहा, "निःसन्देह इस मनुष्य को तारा पहिचानती है।

उसी समय भैरोसिंह की निगाह सामने की तरफ जा पड़ी और एक नकाबपोश को अपनी तरफ आते हुए देखकर उसने कहा, "देखिए, एक नकाबपोश हम लोगों की तरफ आ रहा है! आश्चर्य है कि उसने यहाँ का रास्ता कैसे देख लिया! कदाचित् चाचाजी के पीछे छिपकर चला आया हो। बेशक ऐसा ही है, नहीं तो इस भूलभुलैया रास्ते का पता लगाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है! जो हो मगर मैं कसम खाकर सकता हूँ कि यह वही नकाबपोश है, जिसका हाल इस समय सुनने में आया है। और देखो उसके हाथ में एक गठरी भी है। हाँ, यह वही गठरी होगी, जिसके विषय में कहा जाता है कि इसमें तारा की किस्मत बन्द है!!"

कमलिनी : बेशक ऐसा ही है।

देवी : हाँ, इसके लिए तो मैं कसम खा सकता हूँ।

 


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