मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 3 चन्द्रकान्ता सन्तति - 3देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...
आठवाँ बयान
भगवानी को भूतनाथ के हवाले करके जब कमलिनी चली गयी तो भूतनाथ एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर सोचने लगा। श्यामसुन्दरसिंह किसी काम के लिए चला गया था। उसके हाथ-पैर खुले थे, मगर भूतनाथ के सामने से भाग जाने की हिम्मत उसे न थी। भूतनाथ क्या सोच रहा था या कि विचार में डूबा हुआ था, इसका पता अभी न लगा, मगर उसके ढंग से इतना जरूर मालूम होता था कि वह किसी गम्भीर चिन्ता में डूबा हुआ है, जिसमें कुछ-कुछ लाचारी और बेबसी की झलक भी मालूम होती थी। वह घण्टो तक न जाने क्या सोचता रहा और बहुत देर बाद लम्बी साँस लेकर धीरे से बोला, "बेशक वही था, और अगर वही था, तो उसने मुझे अपनी आँखों की ओट होने न दिया होगा..."
यह बात भूतनाथ ने इस ढंग से कही, मानो वह स्वयं अपने दिल को सुना रहा और आगे भी कुछ कहा चाहता है, मगर पास ही से किसी ने उसकी अधूरी बात का यह जवाब दिया—"हाँ, आँखों की ओट नहीं होने दिया!"
भूतनाथ चौंक पड़ा और मुड़कर पीछे की तरफ देखने लगा। उसी समय एक आदमी भूतनाथ की तरफ बढ़ता हुआ दिखायी दिया जो तुरन्त भूतनाथ के सामने आकर खड़ा हो गया। चंद्रदेव, जिनको उदय भये अभी आधी घड़ी भी न हुई थी, इस नये आये हुए मनुष्य की सूरत-शक्ल को अच्छी तरह नहीं तो भी बहुत कुछ दिखा रहे थे। इसका कद नाटा, बदन गँठीला और मजबूत था, यद्यपि रंग काला तो न था, मगर गोरा भी न था। चेहरा कुछ लम्बा, सिर पर बड़े-बड़े घुँघराले बाल इतने चमकदार और खूबसूरत थे कि ऐयारों को उन पर नकली या बनावटी होने का गुमान हो सकता था। चुस्त पायजामा और घुटने तक का चपकन, जिसमें बहुत से जेब थे, पहिरे और उस पर रेशमी कमरबन्द बाँधे हुए था, केवल कमरबन्द ही नहीं, बल्कि कमरबन्द के ऊपर बेशकीमती कमन्द इस खूबसूरती के ढंग से लपेटे हुए था कि देखने से औरों को तो नहीं, मगर स्वयं ऐयारों को बहुत ही खूबसूरत जँचती होगी। कमर में बायीं तरफ लटकनेवाली तलवार की म्यान साफ़ कह रही थी कि मैं एक हलकी-पतली तथा नाजुक तलवार की हिफाजत कर रही हूँ, पीठ पर गैंडे की एक छोटी-सी ढाल भी लटक रही थी और हाथ में कोई चीज़ थी, जो कपड़े के अन्दर लपेटी हुई थी। यह सबकुछ था, मगर उसके सर पर टोपी, पगड़ी या मुँड़ासा इत्यादि कुछ भी न था, अर्थात् वह सिर से नंगा था। यह आदमी जिस ढंग और चाल से घूमकर भूतनाथ के सामने आ खड़ा हुआ, उससे साफ़ मालूम होता था कि इसके बदन में फुर्ती और चालाकी कूट-कूटकर भरी हुई है।
कई सायत तक भूतनाथ चुपचाप गौर से उसकी तरफ देखता रहा और वह भी काठ की तरह खड़ा रहा। आखिर भूतनाथ ने कहा, "क्या तुम बहुत देर से हमारे साथ हो?"
आदमी : बहुत देर ही नहीं, बल्कि बहुत दूर से भी।
भूतनाथ : ठीक है, मैंने रास्ते में तुम्हें एक झलक देखा भी था।
आदमी : मगर कुछ बोले नही और मैं भी यह सोचकर छिप गया कि कमलिनी के साथ कहीं तुम्हारी बेइज्जती न हो।
भूतनाथ : और ताज्जुब नहीं कि यह भी सोच लिया हो कि इस समय भूतनाथ अकेला नहीं है।
आदमी : शायद यह भी हो! (हँसकर) मगर सच कहना, क्या तुम्हें विश्वास था कि कभी मुझे फिर अपने सामने देखोगे?
भूतनाथ : नहीं, कभी नहीं, स्वप्न में भी नहीं।
आदमी : अच्छा तो फिर आज का दिन बहुत मुबारक समझना चाहिए। यह कहकर वह बड़े जोर से हँसा।
भूतनाथ : आज का दिन शायद तुम्हारे लिए मुबारक हो, मगर मेरे लिए तो बड़ा ही मनहूस है।
आदमी : इसलिए कि तुम मुझे मरा हुआ समझते थे?
भूतनाथ : केवल मरा ही हुआ नहीं, बल्कि पंचतत्व में मिल गया हुआ!
आदमी : और इसी से तुम चिन्तित थे तथा समझते थे कि तुम्हारे सच्चे दोषों को जाननेवाला दुनिया में कोई नहीं रहा!
भूतनाथ : अब मुझे अपने दोषों के प्रकट होने का डर नहीं है, क्योंकि राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों तथा ऐयारों की तरफ से मुझे माफी मिल गयी है।
आदमी : किसकी बदौलत।
भूतनाथ : कमलिनी की बदौलत।
आदमी : ठीक है, मगर उस सोहागिन की तरफ से तुम्हें माफी न मिली होगी, जिसने अपना नाम तारा रक्खा हुआ है, बल्कि उसे इस बात की खबर भी न होगी कि तुम उसके...
भूतनाथ : ठहरो ठहरो, तुम्हें इसका खयाल रखके कोई नाजुक बात कहनी चाहिए कि मेरे सिवाय कोई और सुनने वाला तो नहीं है!
आदमी : कोई जरूरत नहीं कि मैं इस बात का ध्यान रक्खूँ। मैं अन्धा नहीं हूँ, इसलिए इतना तो तुम्हें विश्वास होना ही चाहिए कि भगवानी मेरी आँखों की आड़ में न होगी!
भूतनाथ : खैर, तो भगवानी के सामने जरा सम्हल से बातें करो।
आदमी : सो कैसे हो सकता है? मैं बिना बातें किये टल नहीं सकता, और तुम कमलिनी के डर से भगवानी को बिदा नहीं कर सकते। अच्छा देखो, मैं तुम्हारी इज्जत का खयाल करके भगवानी को बिदा कर देता हूँ! (भगवानी से) जा रे, तू यहाँ से चली जा! जहाँ तेरा जी चाहे चली जा!
भूतनाथ : (काँपकर) नहीं नहीं, ऐसा न करो!
आदमी : मैं तो ऐसा ही करूँगा! (भगवानी से) जा रे! तैं जाती क्यों नहीं? क्या मौत के पंजे से बचना तुझे अच्छा नहीं लगता!
भूतनाथ : मैं हाथ जोड़ता हूँ, माफ करो, जरा सोचो तो सही।
आदमी : तुमने उस वक्त सोचा था कि अब मैं सोचूँ?
भूतनाथ : अच्छा तब एक काम करो, इसके हाथ-पैर बाँधकर अलग कर दो, फिर हम बातें कर लेंगे।
आदमी : (भगवानी से) क्यों रे, हाथ-पैर बँधवा के जान देना मंजूर है या भाग जाना पसन्द करती है?
इस आदमी और भूतनाथ की बातें सुनकर भगवानी को बड़ा आश्चर्य हो रहा था। वह सोच रही थी कि क्या सबब है, जो यह अद्भुत मनुष्य बात-बात में भूतनाथ को दबाये जाता है? इसके मुँह से जितने शब्द निकलते हैं, सब हुकूमत और लापरवाही के ढंग के होते हैं और इसके विपरीत भूतनाथ के मुँह से निकले हुए शब्द उसकी बेबसी, लाचारी और कमजोरी की सूचना देते हैं। साफ़-साफ़ जान पड़ता है कि भूतनाथ इससे दबता है, और इसका इस समय यहाँ आना भूतनाथ को बहुत बुरा मालूम हुआ है। निःसन्देह इसमें और भूतनाथ में कोई भेद की बात गुप्त है, जिसे भूतनाथ प्रकट नहीं करना चाहता। जो हो, पर मुझे इन बातों से क्या मतलब? सच तो यों है कि इस समय इसका यहाँ आना मेरे लिए बहुत मुबारक है। साफ़ देख रही हूँ कि वह मुझे चले जाने का हुक्म दे रहा है, और भूतनाथ जोर करके, उसका हुक्म टाल नहीं सकता, अतएव विलम्ब करना नादानी है, जहाँ तक जल्द हो सके, यहाँ से भाग जाना चाहिए। यद्यपि कमलिनी ने वादा किया है कि किशोरी, कामिनी और तारा के मिल जाने पर तेरी जान छोड़ दी जायगी—फिर भी पराधीन और खतरे में पड़ी ही रहूँगी। कौन ठिकाना तारा, कामिनी और किशोरी भूख-प्यास की तकलीफ से मर गयी हों और इस सबब से कमलिनी क्रोध में आकर मेरा सिर उतार ले! नहीं नहीं, ऐसा न होना चाहिए। इस समय ईश्वर ने मेरी मदद की है, जो इस आदमी को यहाँ भेज दिया है अस्तु जहाँ तक हो सके भाग जाना ही उचित है।
इन बातों को सोचकर भगवानी उठ खड़ी हुई घने जंगल की तरफ रवाना हो गयी। फिर-फिरकर देखती जाती कि कहीं भूतनाथ मेरे पीछे तो नहीं आता, मगर ऐसा न था वह खुशी-खुशी कदम बढ़ाने लगी। उसने यह भी सोच लिया था कि माधवी, मनोरमा और शिवदत्त मेरी बदौलत छूट गये हैं, इसलिए उन तीनों में से चाहे, जिसके पास मैं चली जाऊँगी, मेरी कदर होगी और मुझे किसी बात की परवाह न रहेगी। भगवानी स्वयं तो चली गयी, मगर घबराहट में उसने उन कीमती जेवरों और जवाहिरात की गठरी उसी जगह छोड़ दी, जो कमलिनी के घर से लूट कर लायी थी। यह गठरी अभी तक उसी जगह एक पत्थर के ढोंके पर पड़ी हुई थी और इस पर किशोरी, कामिनी तथा तारा को छुड़ाने की जल्दी में कमलिनी ने भी विशेष ध्यान न दिया था, तो भी एक तौर पर यह गठरी भी भूतनाथ के ही सुपुर्द थी।
भगवानी को इस तरह चले जाते देख भूतनाथ की आँखों में खून उतर आया और क्रोध के मारे उसका बदन काँपने लगा। उसने जोर से जफील (सीटी) बुलायी और इसके बाद उस आदमी की तरफ देखके बोला— "बेशक तुमने बहुत बुरा किया कि भगवानी को यहाँ से बिदाकर दिया, मैं तुम्हारी इतनी जबर्दस्ती किसी तरह बर्दाश्त नहीं कर सकता!"
आदमी : (जोश के साथ) तो क्या तुम मेरा मुकाबला करोगे? कह दो, कह दो—हाँ, कह दो!!
भूतनाथ : आखिर तुममें क्या सुरखाब का पर लगा हुआ है, जो इतना बढ़े चले जाते हो! मैं भी तो मर्द हूँ!!
आदमी : (बहुत जोर से हँसकर—जिससे मालूम होता था कि बनावट की हँसी है) हाँ हाँ, मैं जानता हूँ कि तुम मर्द हो और इस समय मेरा मुकाबला किया चाहते हो!
यह कहकर उसने पीछे की तरफ देखा, क्योंकि पत्तों की खड़खड़ाहट तेजी के साथ किसी के आने की सूचना देने लगी थी।
पाठकों को याद होगा कि कमलिनी यहाँ पर अकेले भूतनाथ को नहीं छोड़ गयी थी, बल्कि श्यामसुन्दरसिंह को भी छोड़ गयी थी। कमलिनी के चले जाने के बाद श्यामसुन्दरसिंह भूतनाथ की आज्ञानुसार यह देखने के लिए वहाँ से चला गया था कि जंगल में थोड़ी दूर पर कहीं कोई ऐसी जगह है, जहाँ हम लोग आराम से एक दिन रह सकें और किसी आने-जाने वाले मुसाफ़िर को मालूम न हो। यही सबब था कि इस समय श्यामसुन्दरसिंह यहाँ मौजूद था और भूतनाथ ने उसी को बुलाने के लिए जफील दी थी जिसके आने की आहट इन लोगों को मिली।
आदमी : (भूतनाथ से) मैं तो पहिले ही समझ चुका था कि तुम श्यामसुन्दरसिंह को बुला रहे हो, मगर तुम विश्वास करो कि उसके आने से मैं डरता नहीं हूँ, बल्कि तुम्हारी बेवकूफी पर अफसोस करता हूँ। भले आदमी तुमने इतना न सोचा कि जब भगवानी के सामने तुम मेरी बातों को सुन नहीं सकते थे, तो श्यामसुन्दरसिंह के सामने कैसे सुनोगे? खैर, मुझे इन बातों से क्या मतलब, तुम्हें अख्तियार है, चाहे दो सौ आदमी इकट्ठे कर लो!
भूतनाथ : (घबड़ाहट की आवाज़ से) तुम तो इस तरह की बातें कर रहे हो, जैसे अपने साथ एक फौज लेकर आये हो!
आदमी : बेशक ऐसा ही है, (दो कदम आगे बढ़कर और अपने हाथ की वह गठरी दिखाकर, जिसमें कोई चीज़ लपेटी हुई थी) इसके अन्दर एक ऐसी चीज़ है, जिसका होना मेरे साथ वैसा ही है, जैसा तुम्हारे साथ एक हजार बहादुर सिपाहियों का होना। क्या तुम नहीं जानते कि इसके अन्दर क्या चीज़ है? नहीं नहीं, तुम बेशक समझ गये होगे कि इस कपड़े के अन्दर...(कुछ रुककर) हाँ ठीक है, पहिला नाम चाहे कुछ भी हो, मगर अब हमको उसे ‘तारा’ ही कहकर बुलाना चाहिए—अच्छा तो हम क्या कह रहे थे? हाँ याद आया, इस कपड़े अन्दर तारा की किस्मत बन्द है। क्या तुम इसे खोलने के लिए हुक्म देते हो? मगर याद रक्खो कि खुलने के साथ ही इसमें से इतनी कड़ी आँच पैदा होगी कि जिसे देखते ही तुम भस्म हो जाओगे, चाहे वह आँच मेरे दिल को कितना ही ठण्डा क्यों न करे।
भूतनाथ : (काँपकर और दो कदम पीछे हटकर) ठहरो, जल्दी न करो, मैं हाथ जोड़ता हूँ, ज़रा सब्र करो!
आदमी : अच्छा क्या कहते हो, जल्दी कहो?
भूतनाथ : पहिले यह बताओ कि आज ऐसे समय तुम मेरे पास क्यों आये हो?
आदमी : (जोर से हँसकर) क्या बेवकूफ आदमी है! अबे तैं इतना नहीं सोच सकता कि मैं उसी दिन से तुझे खोज रहा होऊँगा, जिस दिन तूने मुझपर सफाई का हाथ फेरा था, मगर लाचार था कि तेरा पता ही नहीं लगता था। मैं नहीं जानता था कि भूतनाथ के चोले के अन्दर वही हरामी सूरत छिपी हुई है, जिसे मैं वर्षों से ढूँढ़ रहा हूँ, अगर जानता तो कभी का तुझसे मिल चुका होता, इतने दिन मुफ्त में गँवाकर आज की नौबत न आयी होती। अच्छा पूछो और क्या पूछते हो!
भूतनाथ : (बहुत देर तक सोचने के बाद सिर नीचा करके) क्या मैं आशा कर सकता हूँ कि थोड़े दिन तक तुम मुझे और छोड़ दोगे? मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि इसके बाद स्वयं तुमसे मुलाकात करूँगा। उस समय तुम खुशी से मेरा सिर उतार लेना, मुझे कुछ भी रंज न होगा।
आदमी : सिर उतार लेना!
भूतनाथ : हाँ, मेरा सिर उतार लेना, मुझे कुछ भी दुःख न होगा।
आदमी : क्या सिर उतार लेने से बदला पूरा हो जायगा?
भूतनाथ : क्यों नहीं, क्या इससे भी बढ़कर कोई सजा है?
आदमी : मैं समझता हूँ कि यह कुछ भी सजा नहीं है! क्या तुम नहीं जानते कि प्रायः बुद्धिमान लोग, जिन्हें नादान भी कह सकते हैं, जरा-सी बात पर अपनी जान अपने हाथ से बरबाद कर देते हैं और अपनी बेइज्जती कराना नहीं चाहते तथा ऐसा करते समय उन्हें कुछ भी दुःख नहीं होता!
भूतनाथ : (काँपकर) तो क्या तुमने इससे भी कड़ी सजा मेरे लिए सोच रक्खी है?
आदमी : बेशक! बदला उसी को कहते हैं, जो उसके बराबर हो, जिसका बदला लिया जाय।
भूतनाथ : (लम्बी साँस लेकर) वास्तव में तुम ठीक कहते हो? मैं भी इसी फेर में मुद्दत से पड़ा हुआ हूँ, (रुककर) खैर, यह बताओ कि हमारे-तुम्हारे बीच में किसी तरह का मामला तै हो सकता है, या तुम थोड़े दिन के लिए मुझे छोड़ सकते हो, जैसा कि मैं पहिले कह चुका हूँ?
आदमी : नहीं, बल्कि तुम्हें इसी समय हमारे साथ चलना होगा।
भूतनाथ : कहाँ?
आदमी : जहाँ, मैं ले चलूँ।
भूतनाथ : जबर्दस्ती?
आदमी : हाँ, जबर्दस्ती!
भूतनाथ : ऐसा नहीं हो सकता!
आदमी : ऐसा ही होगा!
भूतनाथ : तुम अपनी ताकत पर भरोसा करते हो?
आदमी : हाँ, अपनी ताकत पर और तदबीर पर भी!
भूतनाथ : अच्छा फिर देखेंगे।
आदमी : अच्छा तो श्यामसुन्दरसिंह के सामने (गठरी दिखाकर) इसे खोलूँ, तुम डरोगे तो नहीं?
भूतनाथ : कोई हर्ज नहीं, मैं श्यामसुन्दरसिंह को तुम्हारी भूल समझा दूँगा।
आदमी : (हँसकर) ओ हो हो, तब तो मुझे इससे बढ़कर कोई तदबीर करनी चाहिए! अच्छा देखो!
इतना कहकर उस अद्भुत आदमी ने तीन दफे ताली बजायी और साथ ही इसके बगलवाले पेड़ों के झुरमुट में से एक आदमी आता हुआ दिखायी दिया जिसके काले कपड़े से सिर से पैर तक अपने को ढाँक रक्खा था। भूतनाथ काँपकर कई कदम पीछे हट गया, और बड़े गौर से उसकी तरफ देखने लगा और इसके बाद श्यामसुन्दरसिंह की तरफ निगाह फेरी, यह जानने के लिए कि देखें इन बातों का असर उसके ऊपर क्या हुआ, मगर रात का समय और कुछ दूर होने के कारण श्यामसुन्दरसिंह के चेहरे का उतार-चढ़ाव भूतनाथ देख न सका।
भूतनाथ : (जी कड़ा करके) मैं कैसे जान सकता हूँ कि इस खोल के अन्दर कौन छिपा हुआ है?
नया आदमी : ठीक है, तब यदि कहो तो मैं इस कपड़े को उतार दूँ, मगर ताज्जुब नहीं कि मेरी आवाज़ तुम्हारे कानों में...
भूतनाथ : (चौंककर) बस बस, यह आवाज़ ऐसी नहीं है, जिसे मैं भूल जाऊँ। हाय, बेबसी और मजबूरी इसे कहते हैं। (श्यामसुन्दरसिंह से) अच्छा तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ से चले जाओ, जब मैं जफील बुलाऊँगा, तब फिर आ जाना।
श्यामसुन्दरसिंह ने इस समय एक ऐसा नाटक देखा था, जिसका उसे गुमान भी न था। उन दोनों आदमियों के आने से भूतनाथ की क्या हालत हो गयी थी, इसे वह खूब समझ रहा था, मगर उसे इस बात का आश्चर्य था कि भूतनाथ जिसके नाम से लोगों के दिल में हौल पैदा होता है, इस समय ऐसा मजबूर और बेबस क्यों हो रहा है? यद्यपि भूतनाथ का हुक्म वह टाल नहीं सकता था, और उसे वहाँ से टल जाना ही आवश्यक था, मगर साथ ही इसके वह इस सीन को भी छोड़ नहीं सकता था। भूतनाथ की आज्ञा पाकर वह वहाँ से चला तो गया मगर घूम-फिरकर बिल्ली की तरह कदम रखता हुआ लौट आया और एक पेड़ की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया, जहाँ से वह उन तीनों को देख सकता था और बातचीत भी बखूबी सुन सकता था।
जब भूतनाथ ने देखा कि श्यामसुन्दरसिंह चला गया तो उसने उस आदमी से कहा जो पहिले आया था, "क्या हमारे और तुम्हारे बीच में मेल नहीं हो सकता?"
आदमी : नहीं।
भूतनाथ : फिर तुम मुझसे क्या चाहते हो?
आदमी : यही कि चुपचाप हमारे साथ चले चलो।
इस बात को सुनकर भूतनाथ ने सिर झुका लिया और कुछ सोचने लगा। यह अवस्था देखकर उस आदमी ने कहा, "भूतनाथ मालूम होता है कि तुम भागने की तदबीर सोच रहे हो, मगर इस बात को खूब याद रक्खो कि मेरे सामने से तुम्हारा भाग जाना बिल्कुल ही वृथा है, जब तक कि यह चीज़ मेरे पास मौजूद है, और मेरे साथी जीते हैं। मैं तुम्हें फिर कहता हूँ कि मेरे साथ चले चलो और जो कुछ मैं कहूँ, करो!"
भूतनाथ : नहीं नहीं, मैं भागना पसन्द नहीं करता, बल्कि इसके बदले में तुम्हारे साथ लड़कर जान दे देना उचित समझता हूँ।
आदमी : अगर यही इरादा है, तो आओ मैं मुस्तैद हूँ!
यह कहकर उस आदमी ने अपने हाथ की गठरी, उस दूसरे आदमी के हाथ में दे दी जो सिर से पैर तक काले कपड़े से अपने को ढाँके हुए था, और उसे वहाँ से चले जाने के लिए कहा। वह व्यक्ति वहाँ से हटकर पेड़ों की आड़ में गायब हो गया और उस विचित्र मनुष्य ने तलवार म्यान से बाहर खैंच ली। भूतनाथ ने भी तलवार खैंच ली और उसके सामने पैंतरा बदलकर आ खड़ा हुआ और दोनों में लड़ाई शुरू हो गयी। निःसन्देह भूतनाथ तलवार चलाने के फन में बहुत होशियार और बहादुर था, मगर श्यामसुन्दरसिंह ने जो छिपकर यह तमाशा देर रहा था, मालूम कर लिया कि उसका वैरी इस काम में उससे बहुत बढ़-चढ़के है क्योंकि घण्टे-भर की लड़ाई में उसने भूतनाथ को सुस्त कर दिया और अपने बदन में एक जख्म भी न लगने दिया, इसके विपरीत भूतनाथ के बदन में छोटे-छोटे कई जख्म लग चुके थे, और उनमें से खून निकल रहा था। केवल इतना ही नहीं। श्यामसुन्दरसिंह ने यह भी मालूम कर लिया कि उस अद्भुत आदमी ने जो लड़ाई के फन में भूतनाथ से बहुत बढ़-चढ़के हैं, कई-कई मौकों पर जान-बूझ के तरह दे दिया और भूतनाथ को छोड़ दिया, नहीं तो अब तक भूतनाथ को कब का खतम कर चुका होता।
मगर क्या भूतनाथ इस बात को नहीं समझता था? बेशक समझता था! वह खूब जानता था कि आज मेरा दुश्मन मुझसे बहुत जबर्दस्त है, और उसने कई मौकों पर जबकि वह मेरी जान ले सकता था, जान-बूझकर तरह दे दिया या अगर जख्म पहुँचाया तो भी बहुत कम।
सुबह हो चुकी थी। अब वहाँ की चीज़ें बिल्कुल साफ़-साफ़ दिखायी देने लगीं थीं। भूतनाथ बहुत ही थक गया था, इसलिए वह सुस्ताने के लिए ठहर गया और बड़े गौर से अपने वैरी की सूरत देखने लगा, जिसके चेहरे पर थकावट और उदासी का कोई चिन्ह नहीं दीख पड़ता था, बल्कि वह मन्द-मन्द मुसका रहा था और उसकी आँखें भूतनाथ के चेहरे पर इस ढंग से पड़ रही थीं, जैसे ओस्तादों की निगाहें अपने नौसिखे शागिर्दों पर पड़ा करती हैं।
भूतनाथ ठहर गया और उसने धीमी आवाज़ में अपने वैरी से कहा, "अब मैं लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता, विशेष करके इसलिए कि तुम मुझसे उस तरह नहीं लड़ते, जैसे दुश्मनों से लड़ना चाहिए। मैं खूब जानता हूँ कि तुमने कई मौके पर मुझे छोड़ दिया। खैर, अब मैं अपनी भलाई के लिए सिवाय इसके और कोई उपाय नहीं देखता कि अपने हाथ से अपनी जान दे दूँ।"
आदमी : नहीं नहीं, भूतनाथ, तुम अपने हाथ से अपनी जान नहीं दे सकते, क्योंकि तुम्हारी एक बहुत ही प्यारी चीज़ मेरे कब्जे में है, जो तुम्हारे बाद बड़ी तकलीफ में पड़ जायगी और जिसे तुम ‘लामाघाटी’ में छोड़ आये थे। मुझे विश्वास है कि तुम उसकी बेइज्जती कबूल न करोगे।
यह एक ऐसी बात थी, जिसने भूतनाथ के दिल को एकदम से ही मसल डाला और इस तकलीफ को वह सह न सका। उसका सिर घूमने लगा, वह धीरे से जमीन पर बैठ गया, और वह विचित्र आदमी इस ढंग से उसे देखने लगा, जैसे व्याध अपने शिकार को काबू कर लेने के बाद आशा और प्रसन्नता की दृष्टि से उसकी तरफ देखता है।
श्यामसुन्दरसिंह इस दृष्ट को गौर और ताज्जुब से देख रहा था। बीच में एक दफे उसकी यह इच्छा भी हुई कि झाड़ी में से बाहर निकले और भूतनाथ के पास पहुँचकर उसकी मदद करे, मगर दो बातों को सोचकर वह रुक गया, एक तो यह कि भूतनाथ ने उसे वहाँ से बिदा कर दिया था, और कह दिया था कि ‘जब हम जफील बुलाएँ तब आना’ मगर इतनी लड़ाई होने और हार मानने पर भी भूतनाथ ने उसे नहीं बुलाया, इससे साफ़ मालूम होता है कि भूतनाथ श्यामसुन्दरसिंह का उस जगह आना पसन्द नहीं करता, दूसरे यह कि उसने कमलिनी की जुबानी भूतनाथ की बहुत तारीफ सुनी थी, कमलिनी जोर देकर कहती थी कि लड़ाई के फन में भूतनाथ बहुत ही तेज और होशियार है, मगर इस जगह उस विचित्र मनुष्य के सामने उसने भूतनाथ को ऐसा पाया, जैसे काबिल ओस्ताद के सामने एक नौसिखा लड़का। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि भूतनाथ नादान है, बल्कि भूतनाथ ने जिस चालाकी और तेजी से अपने वैरी का मुकाबिला किया, वह साधारण आदमी का काम नहीं था, असल तो यह है कि भूतनाथ का वैरी ही कोई विचित्र व्यक्ति था। उसकी चालाकी, फुर्ती और वीरता देखकर श्यामसुन्दरसिंह यद्यपि सिपाही था, मगर डर गया और मन में कहने लगा कि यह मनुष्य नहीं है, इसके सामने जाकर मैं भूतनाथ की कुछ भी मदद नहीं कर सकता।
इन्हीं दो बातों को सोचकर श्यामसुन्दरसिंह जहाँ-का-तहाँ रह गया और कुछ न कर सका।
श्यामसुन्दरसिंह छिपा हुआ इन सब बातों को सोच रहा था, भूतनाथ हताश होकर जमीन पर बैठ गया था, और उसका वैरी आशा और प्रसन्नता की दृष्टि से उसे देख रहा था कि इसी बीच में एक आदमी ने श्यामसुन्दरसिंह के मोढ़े पर हाथ रक्खा।
श्यामसुन्दरसिंह चौंक पड़ा और उसने फिरकर देखा तो एक नकाबपोश पर निगाह पड़ी, जिसका कद नाटा तो न था, मगर बहुत लम्बा भी न था, उसका चेहरा स्याह रंग के नकाब से ढका हुआ था, और उसके बदन का कपड़ा चुस्त था कि मजबूती, गठन और सुडौली साफ़ मालूम होती थी। उसका कोई अंग ऐसा न था, जो कपडे़ अन्दर छिपा हुआ न हो। कमर में खंजर, तलवार और पीठ पर लटकती हुई एक छोटी-सी ढाल के अतिरिक्त वह हाथ में दो हाथ का एक डण्डा भी लिये हुए था। हाँ, यह कहना तो हम भूल ही गये कि उसकी कमर में कमन्द और ऐयारी का बटुआ भी लटकता दिखायी दे रहा था।
श्यामसुन्दरसिंह ने बड़े गौर से उसकी तरफ देखा और कुछ बोला ही चाहता था कि उसने चुप रहने और अपने पीछे चले आने का इशारा किया। श्यामसुन्दरसिंह चुप तो रह गया, मगर उसके पीछे जाने की हिम्मत न पड़ी। यह देख नकाबपोश ने धीरे से कहा, "डरो मत, हमको अपना दोस्त समझो और चुपचाप चले आओ। देखो देर मत करो, नहीं तो पछताओगे।" इतना कहकर नकाबपोश ने श्यामसुन्दरसिंह की कलाई पकड़ ली, और अपनी तरफ खैंचा।
श्यामसुन्दरसिंह को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे लौहे के हाथ ने कलाई पकड़ ली हो, जिसका छुड़ाना कठिन ही नहीं असम्भव था। अब श्यामसुन्दर में इनकार करने की हिम्मत न रही, और वह चुपचाप उसके पीछे-पीछे चला गया। दस-बारह कदम से ज्यादे न गया होगा कि नकाबपोश रुका और उसने श्यामसुन्दरसिंह से कहा, "इतना देखने पर भी तुम कमलिनी के नमक की इज्जत करते हो या नहीं?"
श्यामसुन्दर : बेशक इज्जत करता हूँ।
नकाबपोश : अच्छा तो तुम उस मैदान में जाओ, जहाँ भूतनाथ बैठा अपनी बदनसीबी पर विचार कर रहा है, और उस गठरी को उठा लाओ, जिसे भगवनिया चुरा लायी थी। तुम जानते हो कि उसमें लाखों रुपये का माल है। कहीं ऐसा न हो कि वैरी उसे उठा ले जाँय। अगर ऐसा हुआ तो तुम्हारे मालिक का बहुत नुकसान होगा।
श्यामसुन्दर : ठीक है, मगर मैं डरता हूँ कि ऐसा करने से कहीं भूतनाथ रंज न हो जाय।
नकाबपोश : तुम्हें भूतनाथ के रंज होने का खयाल न करना चाहिए, बल्कि अपने मालिक के नफे-नुकसान को विचारना चाहिए। इसके सिवाय मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि भूतनाथ कुछ भी कहेगा, हाँ, उसका वैरी कुछ भी बोले तो ताज्जुब नहीं, मगर नहीं, जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह भी कुछ न बोलेगा, क्योंकि वह नहीं जानता कि गठरी में क्या चीज़ है।
श्यामसुन्दर : अगर रोके तो?
नकाबपोश : मैं छिपकर देखता रहूँगा, अगर वह तुम्हें रोकना चाहेगा तो मैं झट से पहुँच जाऊँगा, और उससे लड़ने लगूँगा, तब तक तुम गठरी उठाकर चल देना।
श्यामसुन्दर : अगर ऐसा ही है तो आप ही पहिले वहाँ जाकर उससे लड़िए, बीच में मैं पहुँचकर गठरी उठा लूँगा।
नकाबपोश : (हँसकर) मालूम होता है कि तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं और तुम उस आदमी से बहुत डरते हो?
श्यामसुन्दर : बेशक, ऐसा ही है, क्योंकि मैं देख चुका हूँ कि भूतनाथ ऐसे जवाँ मर्द और बहादुर को उसने कैसा नीचा दिखाया और जहाँ तक मैं समझता हूँ, आप भी उसका मुकाबला नहीं कर सकते। मालूम होता है कि आपने उसकी लड़ाई नहीं देखी, अगर देखते तो लड़ने की हिम्मत न करते।
नकाबपोश : नहीं नहीं, मैं उसकी लड़ाई देख चुका हूँ, और इसी से उसके साथ लड़ने के इच्छा होती है।
श्यामसुन्दर : अगर ऐसा है तो विलम्ब न कीजिए, जाकर उससे लड़ाई शुरू कर दीजिए, फिर मैं जाकर गठरी उठा लूँगा और चल दूँगा। मगर यह तो बताइए कि आप कौन हैं, और कमलिनी जी के लिए इतनी तकलीफ क्यों उठा रहे हैं?
नकाबपोश : इसका जवाब मैं कुछ भी न दूँगा! (कुछ सोचकर) तो यह बताओ कि गठरी उठा लेने के बाद, तुम कहाँ चले जाओगे?
श्यामसुन्दर : इसका जवाब मैं क्या दे सकता हूँ? जहाँ मौका मिलेगा चल दूँगा।
नकाबपोश : नहीं ऐसा न करना चाहिए, जहाँ तुम्हें जाना चाहिए, मैं बताता हूँ।
श्यामसुन्दर : (चौंककर) अच्छा बताइए!
नकाबपोश : तुम सीधे दक्खिन की तरफ चले जाना, थोड़ी दूर जाने बाद एक पीपल का पेड़ दिखायी देगा, उसके नीचे पहुँचकर बायीं तरफ घूम जाना, एक पगडण्डी मिलेगी, उसी को अपना रास्ता समझना। थोड़ी दूर जाने बाद फिर एक पीपल का पेड़ दिखायी देगा, उसके नीचे चले जाना। वहाँ एक नकाबपोश बैठा हुआ दिखायी देगा, और उसी के पास हाँथ-पैर बाँधी हुई हरामजादी भगवानी को भी बँधे हुए पाओगे, जो मौका पाकर यहाँ से भाग गयी थी।
श्यामसुन्दर : (ताज्जुब में आकर) अच्छा फिर?
नकाबपोश : फिर तुम भी उसके पास जाकर बैठ जाना, जब मैं उस जगह आऊँगा तो देखा जायगा, या जैसा वह नकाबपोश कहेगा, वैसा ही करना। डरना मत, उसे अपना दोस्त समझना। तुम देखते हो कि मैं जो कुछ कहता या करता हूँ, उसमें तुम्हारे मालिक ही की भलाई है।
श्यामसुन्दर : मालूम तो ऐसा ही होता है।
नकाबपोश : मालूम होता है नहीं, बल्कि यह कहो कि बेशक ऐसा ही है। अच्छा अब तुम्हें एक और बात कहना है।
श्यामसुन्दर : वह क्या?
नकाबपोश : यह तो देख ही चुके हो कि उस अद्भुत आदमी ने भूतनाथ को अपने कब्जे में कर लिया है।
श्यामसुन्दर : सो तो प्रकट ही है।
नकाबपोश : अब तो वह भूतनाथ को अपने साथ ले जायगा।
श्यामसुन्दर : अवश्य ले जायगा, इसी के लिए तो इतना बखेड़ा मचाये हुए है।
नकाबपोश : मैं भी उसके साथ-साथ चला जाऊँगा।
श्यामसुन्दर : अच्छा तब?
नकाबपोश : तब रात को तुम अपने साथी नकाबपोश और भगवानी को लेकर उस समय इसी जगह आ जाना, जिस समय कमलिनी ने तुमसे मिलने की प्रतिज्ञा की है, और सब हाल ठीक-ठीक उससे कह देना और यह भी कह देना कि कल शाम को अपने तिलिस्मी मकान के पास मेरी बाट जोहे।
श्यामसुन्दर : अच्छा ऐसा ही करूँगा, मगर आप भी तो विचित्र आदमी मालूम पड़ते हैं।
नकाबपोश : जो हो, लो अब मेरे साथ-साथ चले आओ, मैं उसके मुकाबिले में जाता हूँ।
नकाबपोश और श्यामसुन्दरसिंह की बातचीत बहुत जल्द हुई थी, इसमे आधी घड़ी से ज्यादे न लगी होगी, बल्कि इससे भी कम समय लगा होगा। आखिरी बात कहकर नकाबपोश उस तरफ रवाना हुआ, जहाँ भूतनाथ बैठा हुआ सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए! श्यामसुन्दरसिंह भी उसके पीछे-पीछे गया, मगर आगे जाकर पेड़ों की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया, जहाँ से वह सब कुछ देख और सुन सकता था।
भूतनाथ अभी तक उसी तरह अपने विचार में निमग्न था और वह अद्भुत व्यक्ति उसकी तरफ बड़े गौर से देख रहा था। इस बीच नकाबपोश भी उसी जगह जा पहुँचा, और उस चट्टान पर बैठ गया, जिस पर गठरी रक्खी हुई थी।
पहिले तो भूतनाथ ने समझा कि यह भी उसी विचित्र मनुष्य का साथी होगा, जिसने मुझे हर तरह से दबा रक्खा है, मगर जब उस आदमी को भी नकाबपोश के यकायक आ जाने से अपनी तरह आश्चर्य में डूबे हुए देखा तो उसे बड़ा ताज्जुब हुआ, और वह बड़े गौर से उसकी तरफ देखने लगा। इसके पहिले कि भूतनाथ कुछ कहे उसकी दुश्मन नकाबपोश की तरफ बढ़ गया और जरा कड़क आवाज़ में उससे बोला, "तुम यहाँ क्यों आये हो और क्या चाहते हो?"
नकाबपोश : तुम्हें मेरे आने और चाहने से कोई मतलब नहीं, तुम लोग अपना-अपना काम करो।
यह जवाब कुछ ऐसी लापरवाही के साथ दिया गया था कि भूतनाथ और उसका वैरी दोनों ही दंग रह गये। आखिर उस आदमी ने भूतनाथ से कहा, "खैर, हमें इनसे कोई मतलब नहीं, तुम उठो और मेरे साथ चलो।"
नकाबपोश : (दिल्लगी के ढंग पर) न जाय तो गोद में उठाकर ले जाओ!
आदमी : क्योंजी, तुम हमारे बीच में बोलने वाले कौन!
नकाबपोश : कोई नहीं, हम तो केवल राय देते हैं कि जिसमें तुम दोनों का बखेड़ा जल्द निपट जाय और किसी तरह इस जगह का पिण्ड छूटे।
आदमी : (चिढ़कर) मालूम होता है कि तुम हमसे मसखरापन कर रहे हो!
नकाबपोश : अगर ऐसा भी समझ लो तो हमारा कोई हर्ज नहीं, मगर यह तो बताओ कि तुम दूसरे की अमलदारी में क्या हुल्लड़ मचाये हुए हो, यहाँ से जाते क्यों नहीं।
आदमी : अहा, मालूम होता है, आप ही के यहाँ के राजा हैं!
नकाबपोश : नहीं, मगर इस जमीन के ठीकेदार हैं, और इतनी हिम्मत रखते हैं कि तुम लोग बारह पल के अन्दर यहाँ से न चले जाओ तो कान पकड़के इस जंगल से बाहर कर दें, या लिबड़ी बरताना* उतारकर दो लात जमावें और दक्खिन का रास्ता दिखाएँ! (* लिबड़ी बरताना—कपड़ा-लत्ता सामान इत्यादि।)
नकाबपोश की इन बातों को बर्दाश्त करके चुप रहने की ताकत उस विचित्र मनुष्य में न थी, झट से तलवार खैंचकर सामने आ खड़ा हुआ, और बोला, "बस खबरदार जो अब एक शब्द भी मुँह से निकाला। चुपचाप उठ के चला जा, नहीं तो अभी दो टुकड़े कर दूँगा!!
नकाबपोश भी फुर्ती के साथ सामने खड़ा हो गया और बोला, "मालूम होता है, तुझे मेरी बातों का विश्वास नहीं हुआ, इसी से ढिठाई करने के लिए सामने आ खड़ा हुआ है। मैं फिर कहता हूँ कि यहाँ से चला जा, और विश्वास रख कि यद्यपि मैं तेरे ऐसे नौसिखे लौंडों को सामने तलवार खैंचना उचित नहीं समझता, तथापि केवल लात और हाथ से दुरुस्त करके रख दूँगा।"
इतना सुनते ही उस आदमी ने तलवार का एक भरपूर हाथ नकाबपोश पर जमाया, जो अपने हाथ में केवल एक डण्डा लिए उसके सामने खड़ा था, मगर इसका नतीजा वैसा न निकला जैसा कि वह समझे हुआ था, क्योंकि नकाबपोश ने फुर्ती से पैंतरा बदलकर अपने को बचा लिया, और पीछे की तरफ जाकर उस आदमी की कमर पर एक ऐसी लात जमायी कि वह मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ा।
भूतनाथ जो दुःख और शोक से कातर हो जाने पर भी आश्चर्य के साथ इस तमाशे को देख रहा था, नकाबपोश की यह फुर्ती और चालाकी देखकर हैरान हो गया और एकदम सो बोल उठा, "वाह बहादुर, क्या बात है! वास्तव में तुम्हारे सामने यह नौसिखा लौंडा ही है!!"
इस कैफियत और भूतनाथ के आवाज़ कसने से वह आदमी चुटीले साँप की तरह पेंच खाकर पुनः लड़ने के लिए तैयार हो गया, क्योंकि उसने इस तरह शर्मिन्दगी उठाने की बनिस्बत अपनी जान दे देना उत्तम समझ लिया था।
पुनः लड़ाई होने लगी और अबकी दफे उस आदमी ने बड़ी फुर्ती, मुस्तैदी और बहादुरी दिखायी, मगर नकाबपोश ने अब भी अपनी कमर से तलवार निकालने का कष्ट स्वीकार न किया, और लकड़ी के डण्डे से ही उसका मुकाबला किया, हाँ, उसने इतना अवश्य किया कि बायें हाथ में अपनी ढाल ले ली जिसके सहारे अपने वैरी की चोटों को बचाता जाता था। इसी बीच में श्यामसुन्दरसिंह वहाँ आ पहुँचा और गठरी उठाकर चलता बना।
थोड़ी ही देर में मौका पाकर नकाबपोश ने बैरी की उस कलाई पर, जिसमें तलवार का बेशकीमत कब्जा था, एक डण्डा ऐसा जमाया कि वह बेकाम हो गयी और तलवार उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी। उसी समय भूतनाथ पुनः चिल्ला उठा, "वाह ओस्ताद, क्या कहना है! तुम-सा बहादुर मैंने आज तक न देखा और न देखने की आशा ही है!!"
अब उस आदमी को हर तरह से नाउम्मीदी हो गयी, और उसने समझ लिया कि इस बहादुर नकाबपोश का मुकाबला मैं किसी तरह नहीं कर सकता और यह नकाबपोश मुझे जान से मारने की ही इच्छा करेगा। वह आश्चर्य, लज्जा और निराशा की निगाह से नकाबपोश की तरफ देखने लगा।
नकाबपोश : मैं पुनः कहता हूँ कि मुझसे मुकाबला करने का इरादा छोड़ दो, और जो कुछ मैं हुक्म देता हूँ, उसे मानो, अर्थात् यहाँ से चले जाओ। हाँ, तुम्हारे और भूतनाथ के मामले में मैं किसी तरह की रुकावट न डालूँगा, तुम दोनों में जो कुछ पटे, पटा लो।
आदमी : अच्छा ऐसा ही होगा।
यह कहकर वह भूतनाथ के पास गया और बोला, "अब बोलो मेरे साथ चलोगे या नहीं! जो कुछ कहना हो साफ़ -साफ़ कह दो!!"
भूतनाथ : मैं तुम्हारे साथ चलने पर राजी नहीं हूँ।
आदमी : अच्छा तो फिर मुझे भी जो कुछ कहना है, इस बहादुर नकाबपोश के सामने ही कह डालता हूँ, क्योंकि ऐसा बहादुर गवाह मुझे फिर न मिलेगा।
यह कहकर उसने बड़े जोर से ताली बजायी। भूतनाथ समझ गया कि इसने फिर उस आदमी को बुलाया है, जो सिर से पैर तक अपने को ढँके हुए था, और जिसके हाथ में वह पुलिंदा भी इसने दे दिया है, जिसमें इसके कथनानुसार तारा की किस्मत बन्द है।
जो कुछ भूतनाथ ने सोचा वास्तव में वही बात थी, मगर थोड़ी देर तक राह देखने पर भी वह आदमी न आया, जिसे उस विचित्र मनुष्य ने ताली बजाकर बुलाया था, इसलिए उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा, और वह स्वयं उसकी खोज में चला गया। थोड़ी देर तक चारों तरफ खोजता रहा, इसके बाद उसने एक झाड़ी के अन्दर उस आदमी को विचित्र अवस्था में देखा, अर्थात् अब वह कपड़ा उसके ऊपर न था, जिसने सिर से पैर तक उसे छिपा रक्खा था, और इसलिए वह साफ़ औरत मालूम पड़ती थी। वह जमीन पर पड़ी हुई थी, रस्सी से हाथ-पैर बँधे हुए थे। एक कपड़ा उसके मुँह पर इस तरह बँधा हुआ था कि हजार उद्योग करने पर भी वह कुछ बोल नहीं सकती थी, और वह गठरी भी उसके पास इधर-उधर कहीं नहीं दिखायी देती थी, जिसमें तारा की किस्मत बन्द थी और जो उस आदमी ने लड़ाई करते समय उसके हाथ में दे दी थी।
विचित्र मनुष्य ने झटपट उसके हाथ-पैर खोले, मुँह पर से कपड़ा दूर किया और उसकी इस बेइज्जती का कारण पूछा। कुछ शान्त होने पर उसने कहा, "जिस समय तुम भूतनाथ से लड़ रहे थे, उसी समय एक नकाबपोश यहाँ आया, और उसने एक कपड़ा इस फुर्ती के साथ मेरे मुँह में डाल दिया, और मुझे बेकाबू कर दिया कि मैं कुछ भी न कर सकी। उसके बाद उसने मेरे मुँह पर मजबूती से कपड़ा बाँधा, और रस्सी से हाथ-पैर बाँधने के बाद वह गठरी लेकर चला गया, जो तुमने मुझे दी थी, और जो इस घबड़ाहट में मेरे हाथ से छूटकर जमीन पर जा रही थी।"
आदमी : आह, तो मुझे अब मालूम हुआ कि वह शैतान नकाबपोश मेरा बहुत कुछ नुकसान करने के बाद मैदान में गया, और मुझसे लड़ा था। हाय, उसने तो मुझे चौपट ही कर दिया, भूतनाथ पर काबू पाने का जो कुछ जरिया मेरे पास था, उसमें से बारह आना जाता रहा।
औरत: शायद ऐसा ही हो, क्योंकि मैं नहीं जानती कि किस नकाबपोश से तुमसे लड़ाई हुई, और नतीजा क्या निकला।
आदमी : जो नकाबपोश मुझसे लड़ा था, वह अभी तक अखाड़े में बैठा हुआ है। जहाँ तक मुझे विश्वास होता है, मैं कह सकता हूँ कि उसी ने तुम्हें तकलीफ दी है, मगर अफसोस, लड़ाई का नतीजा अच्छा न निकला, क्योंकि वह मुझसे बहुत जबर्दस्त है।
औरत : (आश्चर्य से) क्या लड़ाई में उसने तुम्हें दबा लिया।
आदमी : बेशक, ऐसा ही हुआ, और इस समय मैं उसका कुछ भी नहीं कर सकता।
औरत : तो क्या वह भूतनाथ का पक्षपाती है।
आदमी : कहता तो वह यही है कि मैं तुम्हारे और भूतनाथ के बीच में कुछ भी न बोलूँगा, तुम अगर चाहो तो भूतनाथ को ले जाओ या जैसा चाहो, उसके साथ बर्ताव करो।
औरत : मगर मेरे प्यारे मजनूँ! तुम किसी बात की चिन्ता मत करो, क्योंकि मैं उसे पहिचान गई हूँ, इसलिए आज नहीं तो फिर कभी जब तुम्हें मौका मिलेगा, तुम इस बेइज्जती का बदला उससे ले सकोगे।
आदमी : (खुश होकर) हाँ, तुमने उसे पहिचान किया! किस तरह पहिचाना?
औरत : जब वह मेरे हाथ-पैर बाँध रहा था, उसी समय इत्तिफाक से उसके चेहरे पर से नकाब हट गया और मैंने उसे अच्छी तरह पहिचान लिया।
आदमी : यह बहुत अच्छा हुआ, हाँ, तो वह कौन है?
इसके जवाब में औरत ने धीरे-से उसके कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही वह चौंक पड़ा और सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। कई पल के बाद वह बोला, "आह, मुझे गुमान भी न था कि उस नकाब के अन्दर एक ऐसे की सूरत छिपी हुई है, जो अपना सानी नहीं रखता, मगर बहुत बुरा हुआ। वह चीज़ मेरे हाथ में होती तो भूतनाथ को इतना डर न था, जितना अब है। खैर, क्या हर्ज है, जब पता लग गया तो जाता कहाँ है, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, एक-न-एक दिन बदला ले लूँगा। मगर सुनो तो सही, मुझे एक नयी बात सूझी है।"
विचित्र मनुष्य ने उस औरत से धीरे-धीरे कुछ कहा, जिसे वह बड़े गौर से सुनती रही और जब बात पूरी हो गयी तो बोली, "ठीक है ठीक है, मैं अभी जाती हूँ, निश्चय रक्खो कि मेरी सवारी का घोड़ा घण्टे-भर के अन्दर अपनी पीठ खाली कर देगा और बहुत जल्द...
आदमी : बस बस, मैं समझ गया, तुम जाओ और मैं भी अब उसके पास जाता हूँ।
उस औरत को बिदा करके वह विचित्र मनुष्य फिर उसी जगह आया, जहाँ भूतानाथ अभी तक सिर झुकाये हुए बैठा था, मगर उस नकाबपोश का कहीं पता न था।
आदमी : (भूतनाथ से) वह नकाबपोश कहाँ गया?
भूतनाथ : (इधर-उधर) मालूम नहीं कहाँ चला गया।
आदमी : क्या तुम उसे जानते हो?
भूतनाथ : नहीं।
आदमी : मगर वह तुम्हारा पक्ष क्यों करता है?
भूतनाथ : मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं देखी, जिससे मालूम हो कि वह मेरा पक्ष करता था।
आदमी : तुमने कोई ऐसी बात नहीं देखी तो मैं कह देना उचित समझता हूँ कि वह नकाबपोश वह गठरी बेगम के हाथ से जबर्दस्ती ले गया, जिसमें तारा की किस्मत बन्द थी।
भूतनाथ : चलो अच्छा हुआ, एक बला से तो छुटकारा मिला!
आदमी : छुटकारा नहीं मिला, बल्कि तुम और भी आफत में फँस गये, यदि वास्तव में तुम उसे नहीं जानते!
भूतनाथ : हाँ, ऐसा भी हो सकता है, खैर, जो कुछ किस्मत में बदा है, होगा, मगर तुम यह बताओ कि अब मुझसे क्या चाहते हो? किसी तरह मेरा पिण्ड छोड़ोगे या नहीं?
आदमी : क्या हुआ अगर वह गठरी चली गयी, मगर फिर भी तुम खूब समझते होगे कि अभी तक तुम पूरी तरह से मेरे कब्जे में हो और तुम्हारी वह प्यारी चीज़ भी मेरे कब्जे में है, जिसका इशारा मैं पहिले ही कर चुका हूँ। अस्तु, मैं हुक्म देता हूँ कि तुम उठो और मेरे साथ चलो!
भूतनाथ : खैर, चलो मैं चलता हूँ।
इतना कहकर भूतनाथ ने आसमान की तरफ देखा और एक लम्बी साँस ली।
इस समय दिन अनुमान पहर-भर के चढ़ चुका था और धूप में हरारत क्रमशः बढ़ती जाती थी। भूतनाथ को साथ लिए हुए वह विचित्र मनुष्य पूरब की तरफ रवाना हो गया।
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