मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 2 चन्द्रकान्ता सन्तति - 2देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
बारहवाँ बयान
आज से आठ-दस दिन के पहिले मायारानी कैसी परेशान और घबराई हुई थी कि जिसका कुछ हिसाब नहीं। वह जीते-जी अपने को मुर्दा समझने लगी थी। राजा गोपालसिंह के छूट जाने के डर, चिन्ता, बेचैनी और घबराहट ने चारों तरफ़ से उसे घेर लिया था, यहाँ तक कि राजा बीरेन्द्रसिंह के पक्षवालों और कमलिनी का ध्यान भी उसके दिल से जाता रहा था, जिनके लिए सैकडों ऊटक-नाटक उसे रचने पड़े थे और ध्यान था केवल गोपालसिंह का। कहीं ऐसा न हो कि गोपालसिंह का असल भेद रिआया को मालूम हो जाय, इसी सोच ने उसे बेकार कर दिया था। मगर आज वह भूतनाथ की बदौलत अपने को हर तरह से बेफिक्र मानती है, आयी हुई बला को टला समझती है और उसे विश्वास है कि अब कुछ दिन तक चैन से गुजरेगी। अब उसे केवल यही फिक्र रह गयी कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के हाथ से तिलिस्म टूटने न पावे और कमलिनी को जो यहाँ का बहुत कुछ हाल जानती है और उन दोनों कुमारों से मिली हुई है, किसी-न-किसी तरह गिरफ़्तार करना या मार डालना चाहिए, जिसमें तिलिस्म तोड़ने में वह दोनों कुमारों को मदद न पहुँचा सके। वह समझती है कि इस समय इस तिलिस्म की बदौलत ही हरएक पर मैं अपना रुआब जमा सकती हूँ, और बड़े-बड़े महाराजों के दिल में डर पैदा कर सकती हूँ इतना ही नहीं, बल्कि जो चाहे कर सकती हूँ और जब तिलिस्म ही न रहेगा, तो मैं एक मामूली जमींदार के बराबर भी न समझी जाऊँगी, इत्यादि।
वास्तव में मायारानी का सोचना बहुत ठीक था लेकिन फिर भी आज उसका दिमाग फिर आसमान पर चढ़ा हुआ है। भूतनाथ ऐसा ऐयार पाकर वह बहुत प्रसन्न है और उसे निश्चय है कि मैं जो चाहूँगी, कर गुजरूँगी, हाँ, लाडिली के चले जाने का उसे ज़रूर बहुत बड़ा रंज है।
जिस समय अजायबघर की ताली लेकर भूतनाथ उससे बिदा हुआ, उस समय रात बहुत कम बाकी थी और मायारानी रात-भर की थकी और जागी हुई थी इसलिए चारपाई पर जाते ही सो गयी और पहर-भर दिन चढ़े तक सोई रही। जब धनपति ने आकर जगाया तो उठी और मामूली कामों से छुट्टी पाकर हँसी-दिल्लगी में उसके साथ समय बिताने लगी। दिन तो हँसी-दिल्लगी में बीत गया मगर रात को उसने आश्चर्यजनक घटना देखी, जिससे वह बहुत परेशान और दुखी हुई।
आधी रात जा चुकी है, मायारानी अपने कमरे में, जो कीमती चीज़ों से भरा था, खूबसूरत जड़ाऊ पावों की मसहरी पर गाढ़ी नींद में सोयी हुई है। कमरे के बाहर हाथ में नंगी तलवार लिये नौजवान और कमसिन लौंडियाँ पहरा दे रही हैं। जिस समय सोने के इरादे से पलँग पर जाकर मायारानी ने आँखें बन्द कीं, उस समय केवल एक बिल्लौरी हाँडी के अन्दर खुशबूदार तेल से भरे हुए बिल्लौरी गिलास में हलकी रोशनी हो रही थी और कमरे का दरवाज़ा भिड़काया हुआ था, मगर इस समय न जाने वह रोशनी क्यों गुल हो गयी थी और कमरे के अन्दर अन्धकार हो गया था।
मायारानी यद्यपि रानी, नौजवान और हर तरह से सुखिया थी, मगर उसकी नींद बहुत ही कच्ची थी, ज़रा खुटका पाते ही वह उठ बैठती थी। इस समय यद्यपि वह गहरी नींद में सोयी थी, मगर शीशे के एक शमादान के टूटने और झन्नाटे की आवाज़ आने से चौंककर उठ बैठी। कमरे में अन्धकार देख, वह चारपाई से नीचे उतरी और टटोलती हुई दरवाज़े के पास पहुँची, मगर दरवाज़ा खोलना चाहा तो मालूम हुआ कि उसमें ताला लगा हुआ है। यह अद्भुत मामला देख वह बहुत घबरायी और डर के मारे उसका कलेजा धक-धक करने लगा। "हैं, ऐसा क्यों हुआ! इस कमरे के अन्दर कौन आया, जिसने दरवाज़े में ताला लगा दिया? क्या बाहर पहरा नहीं पड़ता है! ज़रूर पड़ता होगा, फिर बिना इत्तिला किये, इस कमरे के अन्दर आने का साहस किसको हुआ! अगर कोई आया है तो अवश्य ही इस कमरे के अन्दर ही है, क्योंकि दरवाज़े में अभी तक ताला बन्द है। क्या यह काम धनपति का तो नहीं है, मगर इतना हौसला वह नहीं कर सकती!"
ऐसे-ऐसे सोच-विचार ने मायारानी को घबड़ा दिया। वह यहाँ तक डरी कि मुँह से आवाज़ निकलना मुश्किल हो गया और वह अपनी लौंडियों को पुकार भी न सकी। अन्त में वह लाचार होकर दरवाज़े के पास ही बैठ गयी और आँखों से आँसू की बूँदे टपकने लगी। इतने ही में पैर की आहट जान पड़ी। मालूम हुआ कि कोई आदमी अन्य आदमी इस कमरे के अन्दर टहल रहा है। अब मायारानी और भी डरी और दरवाज़े से कुछ हटकर दीवार के पास चिपक गयी। साफ़ मालूम होता था कि कोई आदमी पैर पटकाता हुआ कमरे में घूम रहा है।
मायारानी यद्यपि दीवार के साथ दुबकी हुई थी, मगर पैर पटककर चलने वाला आदमी पल-पल में उसके पास होता जाता था। अन्त में एक मजबूत हाथ ने मायारानी की कलाई पकड़ ली। मायारानी चिल्ला उठी और इसके साथ ही उस आदमी ने, जिसने कलाई पकड़ी थी, मायारानी के गाल में ज़ोर से एक तमाचा मारा, जिसकी तकलीफ वह बर्दाश्त न कर सकी और बेहोश होकर ज़मीन की ओर झुक गयी।
उस आदमी ने अपने बगल से चोर लालटेन निकाली, जिसके आगे से ढक्कन हटाते ही कमरे में उजाला हो गया। इस समय यदि मायारानी होश मे आ जाती तो भी उस आदमी को न पहिचान सकती, क्योंकि वह अपने मुँह पर नकाब डाले हुए था। इस कमरे के चारों तरफ़ की दीवार आबनूस की लकड़ी से बनी हुई थी और उस पर उत्तम रीति से पालिश की हुई थी। पलँग के पायताने की तरफ़ दीवार में एक आदमी के घुसने लायक रास्ता हो गया था, अर्थात् लकड़ी का तख्ता पल्ले की तरफ़ घूमकर बगल में हट गया था। उस आदमी ने बेहोश मायारानी को धीरे से उठाकर उसकी चारपाई पर डाल दिया, इसके बाद कमरे के दरवाज़े में जो ताला लगा हुआ था, खोलकर अपने पास रक्खा और फिर पायताने की तरफ़ जाकर, उसी दरार की राह दीवार के अन्दर घुस गया। उसके जाने के साथ ही लकड़ी का तख्ता भी बराबर हो गया।
घण्टे-भर के बाद मायारानी होश में आयी और आँख खोलकर देखने लगी मगर अभी तक कमरे में अन्धेरा ही था।
हाथ से टटोलने और जाँच करने से मालूम हो गया कि वह चारपाई पर पड़ी हुई है। डर के मारे देर तक चारपाई पर पड़ी रही, जब किसी के पैरों की आहट न मालूम हुई तो जी कड़ा करके उठी और दरवाज़े के पास आयी। कुण्डी खुली हुई थी, झट से दरवाज़ा खोलकर कमरे के बाहर निकल आयी। कई लौंडियों को नंगी तलवार लिये दरवाज़े पर पहरा देते पाया। उसने लौंडियों से पूछा, "कमरे के अन्दर कौन गया था!" जिसके जवाब में उन्होंने ताज्जुब के साथ कहा, "कोई नहीं।"
लौंडियों के कहने का विश्वास मायारानी को न हुआ, वह देर तक उन लोगों पर गुस्सा करती और बकती-झकती रही। उसे शक हो गया कि इन लोगों ने मेरे साथ दगा की और कुल लौंडियाँ दुश्मनों से मिली हुई हैं, मगर कसूर साबित किये बिना उन सभों को सजा देना भी उसने उचित न जाना।
डर के मारे मायारानी उस कमरे के अन्दर न गयी, बाहर ही एक आराम कुर्सी पर बैठकर उसने बची हुई रात बितायी। रात तो बीत गयी, मगर सुबह की सुफेदी ने आसमान पर अपना दखल नहीं जमाया था कि एक मालिन का हाथ पकड़े धनपति आ पहुँची और मायारानी को बाहर बैठे हुए देख ताज्जुब के साथ बोली, "इस समय आप यहाँ क्यों बैठी हैं?"
माया : (घबड़ाई हुई आवाज़ में) क्या कहूँ, आज ईश्वर ने ही मेरी जान बचायी नहीं तो मरने में कुछ बाकी न था!
धनपति : (ताज्जुब के साथ चौंककर) सो क्या?
माया : पहिले यह तो कहो कि इस मालिन को कैदियों की तरह पकड़कर यहाँ लाने का क्या सबब है?
धनपति : नहीं, मैं पहिले आपका हाल सुन लूँगी तो कुछ कहूँगी।
मायारानी ने धीरे-धीरे अपना पूरा हाल विस्तार के साथ धनपति से कहा, जिसे सुनकर धनपति भी डरी और बोली, "इन लौंडियों पर शक करना मुनासिब नहीं है, हाँ, जब इस कम्बख्त मालिन का हाल आप सुनेंगी, जिसे मैं गिरफ़्तार कर लायी हूँ, तो आपका जी अवश्य दुखेगा और इस पर शक करना, बल्कि यह निश्चय कर लेना अनुचित न होगा कि यह दुश्मनों से मिली हुई है। ये लौंडियाँ, जिनके सुपुर्द पहरे का काम है और जिनपर आप शक करती हैं, बहुत ही नेक और ईमानदार हैं, मैं इन लोगों को अच्छी तरह आजमा चुकी हूँ।"
माया : (ख़ैर, मैं इस विषय में अच्छी तरह सोचकर और इन सभों को आजमाकर निश्चय करूँगी, तुम यह कहो कि इस मालिन ने क्या कसूर किया है? यह तो अपने काम में बहुत तेज़ और होशियार है!
धनपति : हाँ, बाग की दुरुस्ती और गूलबूटों के सँवारने का काम तो यह बहुत ही अच्छी तरह जानती है, मगर इसका दिल नुकीले और विषैले काँटों से भरा हुआ है। आज रात को नींद न आने और कई तरह की चिन्ता के कारण मैं चारपाई पर आराम न कर सकी और यह सोचकर बाहर निकली कि बाग में टहलकर दिल बहलाऊँगी। मैं चुपचाप बाग टहलने लगी, मगर मेरा दिल तरह-तरह के विचारों से खाली न था, यहाँ तक कि सिर नीचे किये टहलते मैं हम्माम के पास जा पहुँची और वहाँ अँगूर की टट्टी में पत्तों की खड़खड़ाहट पाकर घबड़ाके रुक गयी। थोड़ी ही देर में जब चुटकी बजाने की आवाज़ मेरे कान में पड़ी, तब तो मैं चौंकी और सोचने लगी कि बेशक, यहाँ कुछ दाल में काला है।
माया: उस समय तू अँगूर की टट्टी से कितनी दूर और किस तरफ़ थी?
धनपति : मैं टट्टी के पूरब तरफ़ पास ही वाली चमेली की झाड़ी तक पहुँच चुकी थी, जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी तो रुक गयी और जब चुटकी की आवाज़ कानों में पड़ी तो झट झाड़ी के अन्दर छिप गयी और बड़े ग़ौर से अँगूर की टट्टी की तरफ़ ध्यान देकर देखने लगी। यद्यपि रात अँधेरी थी, मगर मेरी आँखों ने चुटकी की आवाज़ के साथ ही दो आदमियों को टट्टी के अन्दर घुसते देख लिया।
माया : चुटकी बजाने की आवाज़ कहाँ से आयी थी?
धनपति : अँगूर की टट्टी के अन्दर से।
माया : अच्छा तब क्या हुआ?
धनपति : मैं ज़मीन पर लेटकर धीरे-धीरे टट्टी की तरफ़ घसकने लगी और उसके बहुत पास पहुँच गयी, अन्त में किसी की आवाज़ मेरे भी कान में पड़ी और मैं ध्यान देकर सुनने लगी। बातें धीरे-धीरे हो रही थीं, मगर मैं बहुत पास पहुँच जाने के कारण साफ़-साफ़ सुन सकती थी। सबसे पहिले जिसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी वह यही कम्बख्त मालिन थी।
माया : हाँ! अच्छा इसने क्या कहा?
धनपति : इसने केवल इतना कहा कि 'मैं बड़ी देर से तुम लोगों की राह देख रही हूँ'। इसके जवाब में आये हुए दोनों आदमियों में से एक ने कहा, बेशक, तूने अपना वादा पूरा किया, जिसका इनाम मैं इसी समय तुझे दूँगा, मगर आज किसी कारण से कमलिनी यहाँ न आ सकी, हम लोग केवल इतना ही कहने आये हैं कि कल आधी रात को आज ही की तरह फिर चोर दरवाज़ा खोल दीजियो, तुझे आज से ज़्यादे इनाम दिया जायगा।" यह कम्बख्त 'बहुत अच्छा' कहकर चुप हो गयी और फिर किसी के बातचीत की आवाज़ न आयी। थोड़ी ही देर में उन आदमियों को अंगूर की टट्टी से निकलकर, दक्खिन की तरफ़ जाते हुए मैंने देखा, उन्हीं के पीछे-पीछे यह मालिन भी चली गयी और मैं चुपचाप उसी जगह खड़ी रही।
माया : तुमने गुल मचाकर उन दोनों को गिरफ़्तार क्यों न किया?
धनपति : मैं यह सोचकर चुप रही कि यदि दोनों आदमी गिरफ़्तार हो जायेंगे तो कल रात को इस बाग में कमलिनी का आना न होगा।
माया : ठीक हैं, तुमने बहुत अच्छा सोचा, हाँ, तब क्या हुआ?
धनपति : थोड़ी देर बाद मैं वहाँ से उठी और पीछे की तरफ़ लौटकर बाग में होशियारी के साथ टहलने लगी। आधी घड़ी न बीती थी कि यह मालिन लौटकर अपने डेरे की तरफ़ जाती हुई मिली। मैंने झट इसकी कलाई पकड़ ली और यह देखने के लिए दरवाज़े की तरफ़ गयी कि इसने दरवाज़ा बन्द कर दिया या नहीं। वहाँ पहुँचकर मैंने दरवाज़ा बन्द पाया, तब इस कमीनी को लिये हुए आपके पास आयी।
माया : (मालिन की तरफ़ देखकर) क्यों री! तुझ पर जो कुछ दोष लगाया गया है, वह सच है या झूठ?
मालिन ने मायारानी की बात का कुछ जवाब न दिया। तब मायारानी ने पहरे देने वाली लौंडियों की तरफ़ देख के कहा, "आज रात को तुम लोगों की मदद से अगर कमलिनी गिरफ़्तार हो गयी तो ठीक है, नहीं तो मैं समझूँगी कि तुम लोग भी इस मालिन की तरह नमकहराम होकर दुश्मनों से मिली हुई हो!"
पहरा देनेवाली लौंडियों ने मायारानी को दण्डवत् किया और एक ने कुछ आगे बढ़कर और हाथ जोड़कर कहा, "बेशक आप हम लोगों को नेक और ईमानदार पावेंगी (धनपति की तरफ़ इशारा करके) आपकी बात से निश्चय होता है कि आज रात को कमलिनीजी इस बाग में ज़रूर आवेंगी। अगर ऐसा हुआ तो हम लोग उन्हें गिरफ़्तार किये बिना कदापि न रहेंगे!!"
मायारानी ने कहा, "हाँ, ऐसा ही होना चाहिए! मैं खुद भी इस काम में तुम लोगों का साथ दूँगी और आधी रात के समय अपने हाथ से चोर दरवाज़ा खोलकर उसे बाग के अन्दर आने का मौका दूँगी। देखो, होशियार और ख़बरदार, यह बात किसी के कान में न पड़ने पावे!'
।।समाप्त।।
आगे का हाल चन्द्रकान्ता सन्तति-3 में पढ़ें
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