मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 2 चन्द्रकान्ता सन्तति - 2देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
ग्यारहवाँ बयान
ऊपर के बयान में जो कुछ लिख आये हैं, उस बात को कई दिन बीत गये, आज भूतनाथ को हम फिर मायारानी के पास बैठे हुए देखते हैं। रंग-ढंग से जाना जाता है कि भूतनाथ की कार्रवाइयों से मायारानी बहुत ही प्रसन्न हैं और वह भूतनाथ को कद्र और इज्जत की निगाह से देखती है। इस समय मायारानी के सामने सिवाय भूतनाथ के कोई दूसरा आदमी मौजूद नहीं है।
माया : इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुमने मेरी जान बचा ली।
भूतनाथ : गोपालसिंह को धोखा देकर गिरफ़्तार करने में मुझे बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आज दो दिन से केवल पानी के सहारे मैं जान बचाये हूँ। अभी तक तो कोई ऐसी बात नहीं हुई, जिसमें कमलिनी या राजा बीरेन्द्रसिंह के पक्षवाले किसी को मुझ पर शक हो। राजा गोपालसिंह के साथ केवल देवीसिंह था, जिसको मैंने किसी ज़रूरी काम के लिए रोहतासगढ़ जाने की सलाह दे दी और उसके जाने के बाद गोपालसिंह को बातों में उलझाकर दारोगावाले मकान में ले जाकर क़ैद कर दिया।
माया : तो तुमने उसे खतम ही क्यों न कर दिया?
भूतनाथ : केवल तुम्हारे विश्वास के लिए उसे जीता रख छोड़ा है।
माया : (हँसकर) केवल उसका सिर ही काट लाने से मुझे पूरा विश्वास हो जाता! पर जो हुआ, सो हुआ, अब उसके मारने में विलम्ब न करना चाहिए।
भूतनाथ: ठीक है, जहाँ तक हो अब इस काम में जल्दी करना ही उचित है क्योंकि अबकी दफे यदि वह छूट जायगा तो मेरी बड़ी दुर्गती होगी।
माया : नहीं नहीं, अब वह किसी तरह नहीं बच सकता। मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ और अपने हाथ से उसका सिरकाटकर सदैव के लिए टण्टा मिटाती हूँ। घण्टे-भर और ठहर जाओ, अच्छी तरह अँधेरा हो जाने पर ही यहाँ से चलना उचित होगा, बल्कि तब तक तुम कुछ भोजन भी कर लो, क्योंकि दो दिन के भूखे हो। यह तो कहो कि किशोरी और कामनी को तुमने कहाँ छोड़ा?
भूतनाथ : किशोरी और कामिनी को मैं एक ऐसी खोह में रख आया हूँ, जहाँ से सिवाय मेरे कोई दूसरा उन्हें निकाल ही नहीं सकता। बहुत दिनों से मैं स्वयं उस खोह में रहता हूँ और मेरे आदमी भी अभी तक वहाँ मौजूद हैं। अब केवल एक बात का खुटका मेरे जी में लगा हुआ है।
माया : वह क्या?
भूतनाथ : यदि कमलिनी मुझसे पूछेगी कि किशोरी और कामिनी को कहाँ रख आये तो मैं क्या जवाब दूँगा? यदि यह कहूँगा कि रोहतासगढ़ या तुम्हारे तालाबवाले मकान में रख आया हूँ, तो बहुत जल्द झूठा बनूँगा और सब भण्डा फूट जायगा।
माया : हाँ, सो तो ठीक है, मगर तुम चालाक हो, इसके लिए भी कोई-न-कोई बात ज़रूर सोच लोगे।
भूतनाथ : ख़ैर, जो होगा देखा जायगा। अब कहिए कि आपका काम तो मैंने कर दिया, अब इसका इनाम क्या मिलता है? आपका कौल है कि जो माँगोगे वही मिलेगा।
माया : हाँ हाँ, जो कुछ तुम माँगोगे वही मिलेगा। ज़रा दारोगावाले मकान में चलकर उसे मारकर निश्चिन्त हो जाऊँ तो तुम्हें मुँहमाँगा इनाम दूँ। अच्छा यह तो कहो कि तुम चाहते क्या हो?
भूतनाथ : दारोगा वाला मकान मुझे दे दीजिए और उसमें जो अजायबघर है, उसकी ताली मेरे हवाले कर दीजिए।
माया : (चौंककर) उस अजायबघर का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?
भूतनाथ : कमलिनी की जुबानी मैंने सुना था कि वह भी तिलिस्म ही है और उसमें बहुत अच्छी-अच्छी चीज़ें भी हैं?
माया : ठीक है, मगर उसमें बहुत-सी ऐसी चीज़ें हैं, जो यदि मेरे दुश्मनों के हाथ लगे तो आफ़त ही हो जाय।
भूतनाथ : मैं उस जगह को अपने लिए चाहता हूँ, किसी दूसरे के लिए नहीं, मेरे रहते कोई दूसरा आदमी उस मकान से फायदा नहीं उठा सकता।
माया : (देर तक सोचकर) ख़ैर, मैं दूँगी, क्योंकि तुमने मुझपर भारी एहसान किया है, मगर उस ताली को बड़ी हिफ़ाज़त से रखना। यद्यपि उसका पूरा-पूरा हाल मुझे मालूम नहीं है, तथापि मैं समझती हूँ कि वह कोई अनूठी चीज़ है, क्योंकि गोपालसिंह उसे बड़े यत्न से अपने पास रखता था, हाँ, अगर तुम उस अजायबघर की ताली मुझसे न लो तो मैं बहुत ज़्यादे दौलत, तुम्हें देने के लिए तैयार हूँ।
भूतनाथ : आप तरद्दुद न कीजिए, उस चीज़ को आपका कोई दुश्मन मेरे कब्जे से नहीं ले जा सकता और आप देख लेंगी कि महीने-भर के अन्दर-ही-अन्दर मैं आपके दुश्मनों का नाम-निशान मिटा दूँगा और खुल्लम-खुल्ला अपनी प्यारी स्त्री को लेकर उस मकान में रहकर आपकी बदौलत खुशी से जिन्दगी बिताऊँगा।
माया : (ऊँची साँस लेकर) अच्छा दूँगी।
भूतनाथ : तो अब उसके देने में विलम्ब क्या है?
माया : बस, उस काम से निपट जाने की देर है।
भूतनाथ : वहाँ भी केवल आप के चलने ही की देर है।
माया : मैं कह चुकी हूँ कि तुम भोजन कर लो, तब तक अँधेरा भी हो जाता है।
मायारानी ने घण्टी बजायी, जिसकी आवाज़ सुनते ही कई लौंडियाँ दौड़ी हुई आयीं और हाथ जोड़ सामने खड़ी हो गयीं। मायारानी ने भूतनाथ के लिए भोजन का सामान ठीक करने को कहा और यह बहुत जल्द हो गया। भूतनाथ ने भोजन किया और अँधेरा होने पर मायारानी के साथ दारोगा वाले मकान में चलने के लिए तैयार हुआ। मायारानी ने धनपति को भी साथ लिया और तीनों आदमी चेहरे पर नकाब डाले घोड़े पर सवार हो, वहाँ से रवाना हुए तथा बात-की-बात में दारोगावाले मकाने के पास जा पहुँचे*। पेड़ों के साथ घोड़ों को बाँध तीनों आदमी उस मकान के अन्दर चले। (*इस मकान का ज़िक्र कई दफे आ चुका है, नानक इसी मकान में बाबाजी से मिला था।)
हम ऊपर लिख आये हैं कि मायारानी ने इस मकान की ताली भूतनाथ को देदी थी और मकान का भेद भी उसे बता दिया था, इसलिए भूतनाथ सबके आगे हुआ और उसके पीछे धनपति और मायारानी जाने लगीं। भूतनाथ उस मकान के दाहिनी तरफ़ वाले दालान में पहुँचा, जिसमें एक कोठरी बन्द दरवाज़े की थी, मगर यह नहीं जान पड़ता था कि यह दरवाज़ा क्योंकर खुलेगा या ताली लगाने की जगह कहाँ है। दरवाज़े के पास पहुँचकर भूतनाथ ने बटुए में से एक ताली निकाली और दरवाजे के दाहिनी तरफ़ की दीवार में जो लकड़ी की बनी हुई थी, पैर से धक्का देना शुरू किया। चार-पाँच ठोकर के बाद लकड़ी का एक छोटा-सा तख्ता अलग हो गया और उसके अन्दर हाथ जाने लायक सूराख दिखायी दिया। ताली लिए हुए, उसी छेद के अन्दर भूतनाथ ने हाथ डाला और किसी गुप्त ताले में ताली लगायी। कोठरी का दरवाज़ा तुरत खुल गया और तीनों अन्दर चले गये। भीतर जाकर यह दरवाज़ा पुनः बन्द कर लिया, जिससे वह लकड़ी का टुकड़ा भी पुनः ज्यों-का-त्यों बराबर हो गया, जिसके अन्दर हाथ डालकर भूतनाथ ने ताला खोला था।
कोठरी के अन्दर बिल्कुल अँधेरा था, इसलिए भूतनाथ ने अपने बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलायी। अब मालूम हुआ कि कोठरी के बीचोबीच में लोहे का एक गोल तख्ता ज़मीन में गड़ा हुआ है, जिस पर लगभग चार-पाँच आदमी खड़े हो सकते थे। उस तख्ते के बीचोबीच में तीन हाथ ऊँचा लोहे का एक खम्भा था और उसके ऊपर एक चर्खी लगी हुई थी। तीनों आदमी उस खम्भे को थामकर खड़े हो गये और भूतनाथ ने दाहिने हाथ से चर्खी के घुमाना शुरू किया, साथ ही घड़घड़ाहट की आवाज़ आयी और खम्भे के सहित वह लोहे का टुकड़ा ज़मीन के अन्दर घुसने लगा, यहाँ तक कि लगभग बीस हाथ के नीचे जाकर ज़मीन पर ठहर गया और तीनों आदमी उस पर से उतर पड़े। अब ये तीनों एक लम्बी चौड़ी कोठरी के अन्दर घुसे। कोठरी के पूरब तरफ़ दीवार में एक सुरंग बनी हुई थी, पश्चिम तरफ़ कूँआ था, उत्तर तरफ़ चार सन्दूक पड़े हुए थे और दक्षिण तरफ़ एक जँगलेदार कोठरी बनी हुई थी, जिसके अन्दर एक आदमी ज़मीन पर औँधा पड़ा हुआ था और पास की ज़मीन खून से तरबतर हो रही थी। उसे देखते ही भूतनाथ चौंककर बोला–
भूतनाथ : ओफ, मालूम होता है कि इसने सिर पटककर जान देदी, (मायारानी की तरफ़ देखके) क्योंकि तुम्हारा सामना करना इसे मंजूर न था!
माया : शायद ऐसा ही हो! आख़िर मैं भी तो इसे मारने ही को आयी थी, अच्छा हुआ इसने अपनी जान आप ही दे दी, मगर अब यह क्योंकर निश्चय हो कि यह अभी जीता है या मर गया?
धनपति : (ग़ौर से गोपालसिंह को देखकर) साँस लेने की आहट नहीं मालूम होती, जहाँ तक मैं समझती हूँ, इसमे अब दम नहीं है।
भूतनाथ : (मायारानी से) आप इस जंगले में जाकर इसे अच्छी तरह देखिए, कहिए तो ताला खोलूँ।
माया : नहीं नहीं, मुझे अब भी इसके पास जाते डर मालूम होता है, कहीं नकल न किये हो! (गोपालसिंह को अच्छी तरह देखके) वह तिलिस्मी खंजर इसके पास नहीं दिखायी देता?
भूतनाथ: वह खंजर देवीसिंह ने एक सप्ताह के लिए इससे माँग लिया था और इस समय उसी के पास है।
माया : तब तो तुम बेखौफ इसके अन्दर जा सकते हो, अगर जीता भी होगा तो कुछ न कर सकेगा, क्योंकि इसका हाथ खाली है और तुम्हारे पास तिलिस्मी खंजर है!
भूतनाथ : बेशक, मैं इसके पास जाने में नहीं डरता।
उस जँगले के दरवाज़े में एक ताला लगा हुआ था, जिसे भूतनाथ ने खोला और अन्दर जाकर गोपालसिंह की लाश को सीधा किया, तब मायारानी की तरफ़ देखकर कहा, "अब इसमें दम नहीं है, आप बेखौफ चली आवें और इसे देखें।" मायारानी धनपति का हाथ थामे हुए उस कोठरी के अन्दर गयी और अच्छी तरह गोपालसिंह को देखा। सिर फट जाने और खून निकलने के साथ ही दम निकल जाने से गोपालसिंह का चेहरा कुछ भयानक सा हो गया था। मायारानी को जब निश्चय हो गया कि इसमें दम नहीं है तब वह बहुत खुश हुई और भूतनाथ की तरफ़ देखकर बोली, "अब मैं इस दुनिया में निश्चिन्त हुई, मगर इस लाश का भी नाम-निशान मिटा देना ही उचित है।"
भूतनाथ : यह कौन बड़ी बात है। इसे ऊपर ले चलिए और जंगल में से लकड़ियाँ बटोरकर फूँक दीजिए।
माया : नहीं नहीं, रात के वक्त जंगल में विशेष रोशनी होने से ताज्जुब नहीं कि किसी को शक हो या राजा बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार ही इधर आ निकले और देख ले।
भूतनाथ : ख़ैर, जाने दीजिए, इसकी भी एक सहज तरकीब बताता हूँ।
माया : वह क्या?
भूतनाथ : इसे ऊपर ले चलिए और टुकड़े-टुकड़े कर नहर में डाल दीजिए, बात-की-बात में मछलियाँ खा जायेंगी।
माया : हाँ, यह राय बहुत ठीक है, अच्छा इसे ले चलो।
भूतनाथ ने उस लाश को उठाकर उस लोहे के तख्ते पर रक्खा और तीनों आदमी खम्भे को थामकर खड़े हो गये। भूतनाथ ने उस चर्खी को उल्टा घुमाना शुरू किया। बात-की-बात में वह तख्ता ऊपर की ज़मीन के साथ बराबर मिल गया। भूतनाथ ने अन्दर से कोठरी का दरवाज़ा खोला और उस लाश को बाहर दालान में लाकर पटक दिया, इसके बाद उस कोठरी का दरवाज़ा, जिसे पहिले खोला था, उसी तरह बन्द कर दिया। मायारानी के इशारे से धनपति ने कमर से खंजर निकालकर लाश के टुकड़े किये और हड्डी और माँस नहर में डालने के बाद नहर से जल लेकर ज़मीन धो डाली। इसके बाद हर तरह से निश्चिन्त हो अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर, तीनों आदमी तिलिस्मी बाग की तरफ़ रवाना हुए और आधी रात जाने के पहिले ही वहाँ पहुँचकर भूतनाथ ने कहा, "बस लाइए अब मेरा इनाम दे दीजिए!"
माया : हाँ हाँ, लीजिए, इनाम देने के लिए मैं तैयार हूँ। (मुस्कुराकर) लेकिन भूतनाथ, अगर इनाम में अजायबघर की ताली मैं तुम्हें न दूँ तो तुम क्या करोगे? क्योंकि मेरा काम तो हो ही चुका है!
भूतनाथ: करें क्या, बस अपनी जान दे देगें!
माया : अपनी जान दे दोगे तो मेरा क्या बिगड़ेगा?
भूतनाथ : (खिलखिलाकर हँसने के बाद) क्या तुम समझती हो कि मैं सहज ही में अपनी जान दे दूँगा? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। पहिले तो मैं कमलिनी के पास जाकर अपना कसूर साफ़-साफ़ कह दूँगा, इसके बाद तुम्हारे सब भेद खोल दूँगा, जो तुमने मुझे बताये हैं। इतना ही नहीं, बल्कि तुम्हारी जान लेकर तब कमलिनी के हाथ से मारा जाऊँगा। इस बाग का, दारोगावाले मकान का और मनोरमा के मकान का, रत्ती-रत्ती भेद मुझे मालूम हो चुका है और तुम खुद समझ सकती हो कि मैं कहाँ तक उपद्रव मचा सकता हूँ! तुम यह भी न सोचना कि इस समय इस बाग में रहने के कारण,. मैं तुम्हारे कब्जे में हूँ, क्योंकि वह…
माया : बस बस, बहुत जोश में न आओ, मैं तो दिल्लगी के तौर पर इतना कह गयी और तुम सच ही समझ गये! इस बात का पूरा-पूरा विश्वास रखना कि मायारानी वादा पूरा करने से हटनेवाली नहीं है और इनाम देने में भी किसी से कम नहीं है, बैठो मैं अभी अजायबघर की ताली ला देती हूँ।
भूतनाथ : लाइए और मुझे भी अपने कौल का सच्चा ही समझिए, ऐसे काम कर दिखाऊँगा कि खुश हो जाइयेगा और ताज्जुब कीजियेगा!
माया : देखो रंज न होना, मैं तुमसे एक बात और पूछती हूँ।
भूतनाथ: (हँसकर) पूछिए! पूछिए!!
माया : अगर मैं धोखा देकर कोई दूसरी चीज़ तुम्हें दे दूँ तो तुम कैसे समझोगे कि अजायबघर की ताली यही है?
भूतनाथ : भूतनाथ को निरा मौलवी न समझ लेना। उस ताली को जो किताब की सूरत में है और जिसे दोनों तरफ़ से भौरों ने घेरा हुआ है, भूतनाथ अच्छी तरह पहिचानता है।
माया : शाबाश, तुम बहुत ही होशियार और चालाक हो, किसी के फरेब में आनेवाले नहीं, मालूम होता है कि इतनी जानकारी तुम्हें उसी कम्बख्त कमलिनी की बदौलत...
भूतनाथ : जी हाँ, बेशक ऐसा ही है, मगर हाय, जिस कमलिनी ने मेरी इतनी इज्जत की, मैं आपके लिए उसी के साथ दुश्मनी कर रहा हूँ और सो भी केवल इस अजायबघर की ताली के लिए!
माया : अजायबघर की ताली तो तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हें देती ही हूँ, इसके बाद इससे भी बढ़कर एक चीज़ तुम्हें दूँगी, जिसे देखकर तुम भी कहोगे कि मायारानी ने कुछ दिया।
भूतनाथ : बेशक, मुझे आपसे बहुत कुछ उम्मीद है।
भूतनाथ को उसी जगह बैठाकर मायारानी कहीं चली गयी, मगर आधे घण्टे के अन्दर हाथ में एक जड़ाऊ डिब्बा लिए हुए आ पहुँची और वह डिब्बा भूतनाथ के सामने रखकर बोली, "लीजिए वह अनौखी चीज़ हाजिर है।" भूतनाथ ने डिब्बा खोला। उसके अन्दर गुटके की तरह एक छोटी-सी पुस्तक थी, जिसे उलट-पुलटकर भूतनाथ ने अच्छी तरह देखा और तब कहा, "बेशक यही है। अच्छा अब मैं जाता हूँ, ज़रा कमलिनी से मिलकर ख़बर लूँ कि उधर क्या हो रहा है।"
भूतनाथ अजायबघर की ताली लेकर मायारानी से बिदा हुआ और तिलिस्मी बाग के बाहर होकर खुशी-खुशी उत्तर की तरफ़ चल निकला, मगर थोड़ी दूर जाकर खड़ा हो गया और इधर-उधर देखने लगा। पेड़ की आड़ में से दो आदमी निकलकर भूतनाथ के सामने आये और एक ने आगे बढ़कर पूछा, "टेम गिन चाप१?" इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा, "चेह२!" इतना सुनकर उस आदमी ने भूतनाथ को गले से लगा लिया। इसके बाद तीनों आदमी एक साथ आगे की तरफ़ रवाना हुए।
1.(टेम गिन चाप) मिली वह ताली?
2.(चेह) हाँ।
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