मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 2 चन्द्रकान्ता सन्तति - 2देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
चौथा बयान
कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ़ रवाना हुआ, जो एक तालाब के बीचोबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज़ थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लापरवाही के साथ बड़े-बड़े कदम मारता जा रहा था। उसे दो बातों की खुशी थी, एक तो उन काग़ज़ों को वह अपने हाथ से जलाकर खाक कर चुका था, जिनके सबब से वह मनोरमा और नागर के आधीन हो रहा था और जिनका भेद लोगों पर प्रकट होने के डर से अपने को मुर्दे से भी बदतर समझे हुए था, दूसरे उस तिलिस्मी खंजर ने उसका दिमाग आसमान पर चढ़ा दिया था और ये दोनों बाते उसे कमलिनी की बदौलत उसे मिली थीं, एक तो भूतनाथ पहिले ही भारी मक्कार ऐयार और होशियार था, अपनी चालाकी के सामने किसी को कुछ गिनता ही न था, दूसरे आज खंजर का मालिक बनके खुशी के मारे अन्धा हो गया। उसने समझ लिया कि अब न तो उसे किसी का डर है और न किसी की परवाह।
अब हम उसके दूसरे दिन का हाल लिखते हैं, जिस दिन भूतनाथ नागर की गठरी पीठ पर लादे कमलिनी के मकान की तरफ़ रवाना हुआ था। भूतनाथ अपने को लोगों की निगाहों से बचाये हुए आबादी से दूर-दूर जंगल मैदान पगडण्डी और पेचीले रास्ते पर सफ़र कर रहा था। दोपहर के समय वह एक छोटी-सी पहाड़ी के नीचे पहुँचा, जिसके चारों तरफ़ मकोय और बेर इत्यादि कँटीले और झाड़ीवाले पेड़ों ने एक प्रकार का हलका-सा जंगल बना रक्खा था। उसी जगह एक छोटा-सा 'चूआ'* भी था और पास ही में जामुन का एक छोटा-सा पेड़ था। थकावट और दोपहर की धूप से व्याकुल भूतनाथ ने दो-तीन घण्टे के लिए वहाँ आराम करना पसन्द किया। (*'चूआ' - छोटा सा (हाथ-दो हाथ का) गड़हा, जिसमें पहाड़ी पानी धीरे-धीरे दिन-रात बारहो महीना निकला करता है।)
जामुन के पेड़ के नीचे गठरी उतारकर रख दी और आप भी उसी जगह ज़मीन पर चादर बिछाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद जब सुस्ती जाती रही तो उठ बैठा, कूएँ के जल से हाथ-मुँह धोकर कुछ मेवा खाया, जो उसके बटुए में था और इसके बाद लखलखा सुँघाकर नागर को होश में लाया। नागर होश में आकर उठ बैठी और चारों तरफ़ देखने लगी। जब सामने बैठे भूतनाथ पर नज़र पड़ी तो समझ गयी कि कमलिनी की आज्ञानुसार ये मुझे कहीं लिये जाता है।
नागर : यह तो मैं समझ ही गयी कि कमलिनी ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया और उसी की आज्ञा से तू मुझे लिये जाता है, मगर यह देखकर मुझे ताज्जुब होता है कि कैदी होने पर भी मेरे हाथ-पैर क्यों खुले हैं और मेरी बेहोशी क्यों दूर की गयी?
भूतनाथ : तेरी बेहोशी इसलिए दूर की गयी जिसमें तू भी इस दिलचस्प मैदान और यहाँ की साफ़ हवा का आनन्द उठा ले। तेरे हाथ-पैर बँधे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अब मैं तेरी तरफ़ से होशियार हूँ, तू मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, दूसरे तेरे पास वह अँगूठी भी अब नहीं रही, जिसके भरोसे तू फूली हुई थी, तीसरे (खंजर की तरफ़ इशारा करके) यह अनूठा खंजर भी मेरे पास मौजूद है, फिर किसका डर है? इसके इलावे उन काग़ज़ों को भी मैं जला चुका जो तेरे पास थे और जिनके सबब से मैं तुम लोगों के आधीन हो रहा था।
नागर : ठीक है, अब तुझे किसी का डर नहीं है, मगर फिर भी मैं इतना कहे बिना न रहूँगी कि तू हम लोगों के साथ दुश्मनी करके फायदा नहीं उठा सकता और राजा बीरेन्द्रसिंह तेरा कसूर कभी माफ न करेंगे।
भूतनाथ : राजा बीरेन्द्रसिंह मेरा कसूर ज़रूर माफ करेंगे और जब मैं उन काग़ज़ों को जला ही चुका तो मेरा कसूर साबित भी कैसे हो सकता है?
नागर : ऐसा होने पर भी तुझे सच्ची खुशी इस दुनिया में नहीं मिल सकती और राजा बीरेन्द्रसिंह के लिए जान दे देने पर भी तुझे उनसे कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता।
भूतनाथ : सो क्यों? वह कौन सच्ची खुशी है, जो मुझे नहीं मिल सकती?
नागर : तेरे लिए सच्ची खुशी यही है कि तेरे पास इतनी दौलत हो कि तू बेफिक्र होकर अमीरों की तरह जिन्दगी काट सके और तेरे पास, तेरी वही प्यारी स्त्री भी हो, जो काशी में रहती थी और जिसके पेट से नानक पैदा हुआ है।
भूतनाथ : (चौंककर) तुझे यह कैसे मालूम हुआ कि वह मेरी ही स्त्री थी?
नागर : वाह वाह, क्या मुझसे कोई बात छिपी रह सकती है? मालूम होता है नानक ने तुझसे वह सब हाल नहीं कहा, जो तेरे निकल जाने के बाद उसे मालूम हुआ था और जिसकी बदौलत नानक को उस जगह का पता लग गया, जहाँ किसी के खून से लिखी हुई किताब रक्खी हुई थी?
भूतनाथ : नहीं, नानक ने मुझसे वह सब हाल नहीं कहा, बल्कि वह यह भी नहीं जानता कि मैं ही उसका बाप हूँ। हाँ, खून से लिखी किताब का हाल मुझे ज़रूर मालूम है।
नागर : शायद वह किताब अभी तक नानक ही के कब्जे में है।
भूतनाथ : उसका हाल मैं तुझसे नहीं कह सकता।
नागर : ख़ैर, मुझे उसके विषय में कुछ जानने की इच्छा भी नहीं है।
भूतनाथ : हाँ, तो मेरी स्त्री का हाल तुझे मालूम है?
नागर : बेशक, मालूम है।
भूतनाथ : क्या अभी तक वह जीती है?
नागर : हाँ, जीती है मगर अब चार-पाँच दिन के बाद जीती न रहेगी।
भूतनाथ : सो क्यों? क्या बीमार है?
नागर : नहीं, बीमार नहीं है, जिसके यहाँ वह क़ैद है, उसी ने उसके मारने का विचार किया है।
भूतनाथ : उसे किसने क़ैद कर रक्खा है?
नागर : यह हाल तुझसे मैं क्यों कहूँ? जब तू मेरा दुश्मन है और मुझे कैदी बनाकर लिये जाता है तो मैं तेरे साथ नेकी क्यों करूँ?
भूतनाथ : इसके बदले में मैं भी तेरे साथ कुछ नेकी कर दूँगा।
नागर : बेशक, इसमें कोई सन्देह नहीं कि तू हर तरह से मेरे साथ नेकी कर सकता है और मैं भी तेरे साथ बहुत-कुछ भलाई कर सकती हूँ, सच तो यों है कि तुझ पर मेरा दावा है।
भूतनाथ : दावा कैसा?
नागर : (हँसकर) उस चाँदनी रात में मेरी चुटिया के साथ फूल गूँथने का दावा! उस मसहरी के नीचे रूठ जाने का दावा! नाखून के साथ खून निकालने का दावा! और उस कसम की सचाई का दावा, जो रोहतासगढ़ जाती समय नर्मी लिये हुए कठोर पिण्डी पर...! क्या और कहूँ?
भूतनाथ : बस बस बस, मैं समझ गया, विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सब कार्रवाई तुम्हीं लोगों की तरफ़ से हुई थी। ज़रूर नानक की माँ के गायब होने के बाद तू ही उसकी शक्ल बनके बहुत दिनों तक मेरे घर रही और तेरे ही साथ बहुत दिनों तक मैंने ऐश किया।
नागर : और अन्त में वह 'रिक्तगन्थ' तुमने मेरे ही हाथ में दिया था।
भूतनाथ : ठीक है, ठीक है, तो तेरा दावा मुझपर उतना ही हो सकता है, जितना किसी बेईमान और बेमुरौवत रण्डी का अपने यार पर।
नागर : ख़ैर, उतना ही सही, मैं रण्डी तो हूँ ही, मुझे चालाक और अपने काम का समझकर मनोरमा ने अपनी सखी बना लिया और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि उसकी बदौलत मैंने बहुत कुछ सुख भोगा।
भूतनाथ : ख़ैर, तो मालूम हुआ कि यदि तू चाहे तो मेरी स्त्री को मुझसे मिला सकती है?
नागर : बेशक, ऐसा ही है, मगर इसके बदले में तू मुझे क्या देगा?
भूतनाथ : (खंजर की तरफ़ इशारा करके) यह तिलिस्मी खंजर छोड़कर, जो माँगे सो तुझे दूँ।
नागर : मैं तेरा खंजर नहीं चाहती, मैं केवल इतना ही चाहती हूँ कि तू बीरेन्द्रसिंह की तरफ़दारी छोड़ दे और हम लोगों का साथी बन जा। फिर तुझे हर तरह की खुशी मिल सकती है। तू करोड़ों रुपये का धनी हो जायगा और दुनिया में बड़ी खुशी से अपनी जिन्दगी बितावेगा।
भूतनाथ : यह मुश्किल बात है, ऐसा करने से मेरी सख्त बदनामी ही नहीं होगी, बल्कि मैं बड़ी दुर्दशा के साथ मारा जाऊँगा।
नागर : तुम्हारा कुछ न बिगड़ेगा, मैं खूब जानती हूँ कि इस समय जिस सूरत में तुम हो, वह तुम्हारी असली सूरत नहीं है और कमलिनी से तुम्हारी नयी जान-पहिचान है, ज़रूर कमलिनी तुम्हारी असली सूरत से वाकिफ न होगी, इसलिए तुम सूरत बदलकर दुनिया में घूम सकते हो और कमलिनी तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकती।
भूतनाथ : (हँसकर) कमलिनी को मेरा सब भेद मालूम है और कमलिनी के साथ दगा करना अपनी जान के साथ दुश्मनी करना है, क्योंकि वह साधारण औरत नहीं है। वह जितनी ही खूबसूरत है, उतनी ही बड़ी चालाक, धूर्त, विद्वान, और ऐयार भी है और साथ ही इसके नेक और दयावान भी। ऐसे के साथ दगा करना बुरा है। ऐसा करने से दूसरों की क्या कहूँ खास मेरा लड़का नानक ही मुझ पर घृणा करेगा।
नागर : नानक जिस समय अपनी माँ का हाल सुनेगा बहुत ही प्रसन्न होगा, बल्कि मेरा अहसान मानेगा, रहा तुम्हारा कमलिनी से डरना तो वह तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है, महीने-दो-महीने के अन्दर ही तुम सुन लोगे कि कमलिनी इस दुनिया से उठ गयी और यदि तुम हम लोगों की मदद करोगे तो आठ ही दस दिन में कमलिनी का नाम-निशान मिट जायगा। फिर तुम्हें किसी तरह का डर नहीं रहेगा और तुम्हारे इस खंजर का मुकाबला करने वाला भी इस दुनिया में कोई न रहेगा। तुम विश्वास करो कि कमलिनी बहुत जल्द मारी जायगी और तब उसका साथ देने से तुम सूखे ही रह जाओगे। मैं तुम्हें फिर समझाकर कहती हूँ कि हम लोगों की मदद करो। तुम्हारी मदद से हम लोग थोड़े ही दिनों में कमलिनी, राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके दोनों कुमारों को मौत की चारपाई पर सुला देंगे। तुम्हारी खूबसूरत प्यारी ज़ोरू तुम्हारे बगल में होगी, करोड़ों रुपये की सम्पति के तुम मालिक होगे और मैं भी तुम्हारी रण्डी बनकर तुम्हारी बगल गर्म करूँगी, क्योंकि मैं तुम्हें दिल से चाहती हूँ और ताज्जुब नहीं कि तुम्हें विजयगढ़ का राज्य दिला दूँ। मैं समझती हूँ कि तुम्हें मायारानी की ताकत का हाल मालूम होगा।
भूतनाथ : हाँ हाँ, मैं मशहूर मायारानी को अच्छी तरह जानता हूँ, परन्तु उसके गुप्त भेदों का हाल कुछ-कुछ सिर्फ कमलिनी की जुबानी सुना है, अच्छी तरह नहीं मालूम।
नागर : उसका हाल मैं तुमसे कहूँगी, वह लाखों आदमियों को इस तरह मार डालने की कुदरत रखती है कि किसी को कानोंकान मालूम न हो। उसके एक ज़रा-से इशारे पर तुम दीन-दुनिया से बेकार कर दिये गये, तुम्हारी ज़ोरू छीन ली गयी और तुम किसी को मुँह दिखाने के लायक नहीं रहे। कहो जो मैं कहती हूँ, वह ठीक है या नहीं?
भूतनाथ : हाँ, ठीक है, मगर इस बात को मैं नहीं मान सकता कि वह गुप्त रीति से लाखों आदमियों को मार डालने की कुदरत रखती है, अगर ऐसा ही होता तो बीरेन्द्रसिंह इत्यादि तथा मुझे मारने में कठिनता ही काहे की थी?
नागर : यह कौन कहता है कि बीरेन्द्रसिंह इत्यादि को मारने में उसे कठिनता है! इस समय बीरेन्द्रसिंह, उनके दोनों कुमार, किशोरी, कामिनी और तेजसिंह इत्यादि कई ऐयारों को उसने क़ैद कर रक्खा है, जब चाहे मार डाले और तुम्हें तो वह ऐसा समझती है, जैसे तुम एक खटमल हो, हाँ, कभी-कभी उसके ऐयार धोखा खा जाँय तो यह बात दूसरी है। यही सबब था कि रिक्तगन्थ हम लोगों के हाथ में आकर इत्तिफाक से निकल गया, परन्तु क्या हर्ज़ है, आज-ही-कल में वह किताब फिर मायारानी के हाथ में दिखायी देगी। यदि तुम हमारी बात न मानोगे तो कमलिनी तथा बीरेन्द्रसिंह इत्यादि के पहिले ही मारे जाओगे। हम तुमसे कुछ काम निकालना चाहते हैं, इसलिए तुम्हें छोड़े जा रहे हैं। फिर ज़रा-सी मदद के बदले में क्या तुम्हें दिया जाता है, इस पर भी ध्यान दो और यह मत सोचो कि कमलिनी ने मुझे और मनोरमा को क़ैद कर लिया तो कोई बड़ा काम किया। इससे मायारानी का कुछ भी न बिगड़ेगा और हम लोग भी ज़्यादे दिन तक क़ैद में न रहेंगे। जो कुछ मैं कह चुकी हूँ, उस पर अच्छी तरह विचार करो और कमलिनी का साथ छोड़ो, नहीं पछताओगे और तुम्हारी ज़ोरू भी बिलख-बिलखके मर जायगी। दुनिया में ऐश व आराम से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है, सो सब कुछ तुम्हें दिया जाता है और यदि यह कहो कि तेरी बातों का मुझे विश्वास क्योंकर हो तो इसका जवाब भी यह देती हूँ कि मैं तुम्हारी दिलजमई अच्छी तरह से कर दूँगी कि तु स्वयं कहोगे कि हाँ, मुझे विश्वास हो गया (मुस्कुराकर और नखरे के साथ भूतनाथ की अँगुली दबाकर) मैं तुम्हें चाहती हूँ, इसलिए इतना कहती हूँ नहीं तो मायारानी को तुम्हारी परवाह न थी, तुम्हारे साथ रहकर मैं भी दुनिया का कुछ आनन्द ले लूँगी।
नागर की बातें सुनकर भूतनाथ चिन्ता में पड़ गया और देर तक कुछ सोचता रह गया। इसके बाद वह नागर की तरफ़ देखकर बोला, "ख़ैर, तुम जो कुछ कहती हो मैं करूँगा और अपनी प्यारी स्त्री के साथ तुम्हारी मुहब्बत की भी कदर करूँगा!"
इतना सुनते ही नागर ने झट भूतनाथ के गले में हाथ डाल दिया और तब दोनों प्रेमी हँसते हुए उस छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर चढ़ गये।
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