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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

तेरहवाँ बयान

तहख़ाने में बैठी हुई कामिनी को जब किसी के आने की आहट मालूम हुई, तब वह सीढ़ी की तरफ़ देखने लगी, मगर आने वाले अभी छत ही पर थे। उसने समझा कि कमला या शेरसिंह आते होंगे, मगर जब उसे कई आदमियों के पैर की धमधमाहट मालूम हुई, तब वह घबरायी। उसका खयाल दुश्मनों की तरफ़ गया और वह अपने बचाव का ढंग करने लगी।

ऊपर के कमरे से तहख़ाने में उतरने के लिए, जो सीढ़ियाँ थीं उसके नीचे एक छोटी कोठरी बनी हुई थी। इसी कोठरी में शेरसिंह का असबाब रहा करता था और इस समय भी उनका असबाब इसी के अन्दर था। इसके अन्दर जाने के लिए एक छोटा-सा दरवाज़ा था और लोहे का मज़बूत मगर हल्का पल्ला लगा हुआ था। दरवाज़ा बन्द करने के लिए बाहर की तरफ़ कोई जंजीर या कुण्डी न थी, मगर भीतर की तरफ़ एक अड़ानी लगी हुई जो दरवाज़ा बन्द करने के लिए काफी थी। दरवाज़े के पल्ले में एक सूराख था, जिस पर गौर करने से मालूम होता था कि वह ताली लगाने की जगह है।

कामिनी ने तुरन्त चिराग बुझा दिया और अपने बिछावन को बगल में दबाकर उसी कोठरी के अन्दर चले जाने के बाद भीतर से दरवाज़ा बन्द कर लिया। यह काम कामिनी ने बड़ी जल्दी और दबे पैर किया। थोड़ी ही देर में कामिनी को मालूम हुआ कि आनेवाले सब सीढ़ी उतर रहे हैं और साथ ही इसके ताली लगानेवाले छेद में से मशाल की रोशनी भी उस कोठरी के अन्दर पहुँची, जिसमें कामिनी छिपी हुई थी। वह छेद में आँख लगाकर देखने लगी कि कौन आया है और क्या करता है।

सिपाहियाना ठाठ के पाँच आदमी ढाल तलवार लगाये हुए दिखायी पड़े। एक के हाथ में मशाल थी और चार आदमी एक सन्दूक को उठाकर लाये थे। ज़मीन पर सन्दूक रख देने के बाद पाँचों आदमी बैठकर दम लेने और आपुस में यों बातचीत करने लगे–

मशाल वाला : जहन्नुम में जाय ऐसी नौकरी, दौड़ते-दौड़ते हैरान हो गये, ओफ।

दूसरा : ख़ैर, दौड़ना और हैरान होना भी सुफल होता अगर कोई नेक काम हम लोगों के सुपुर्द होता।

तीसरा : भाई चाहे जो हो, मगर बेगुनाहों का खून नाहक मुझसे तो नहीं किया जाता!

चौथा : मुश्किल तो यह है कि हम लोग इनकार भी नहीं कर सकते और भाग भी नहीं सकते।

पाँचवाँ : परसों जो हुक्म हुआ है, सो तुमने सुना या नहीं!

मशाल : हाँ, मुझे मालूम है।

तीसरा : मैंने नहीं सुना, क्योंकि मैं नानक का पता लगाने गया था।

पाँचवाँ : परसों यह हुक्म दिया गया है कि जो कोई कामिनी को पकड़ लायेगा या पता लगा देगा, उसे मुँह माँगी चीज़ इनाम में दी जायगी।

तीसरा : हम लोगों की ऐसी किस्मत कहाँ कि कामिनी हाथ लगे!

दूसरा : (चौंककर) चुप रहो, देखो किसी की आवाज़ आ रही है।

किशोरी से बाते करते-करते जब किसी के आने की आहट मालूम हुई तो कामिनी चुप कर गयी थी। किशोरी को ताज्जुब मालूम हुआ कि यकायक कामिनी चुप कर गयी? थोड़ी देर तक राह देखती रही कि शायद अब बोले, मगर जब देर हो गयी तो उसने खुद पुकारा और कहा, "क्यों बहिन, चुप क्यों हो गयी? यही आवाज़ उन पाँचों आदमियों ने सुनी थी। उन लोगों ने बातें करना छोड़ दिया और आवाज़ की तरफ़ ध्यान लगाया। फिर आवाज़ आयी–"बहिन कामिनी, कुछ कहो तो सही, तुम चुप क्यों हो गयीं? क्या ऐसे समय में तुमने भी मुझे छोड़ दिया! बात करना भी बुरा मालूम होता है!"

किशोरी की बातें सुनकर पाँचों आदमी ताज्जुब में आ गये और उन लोगों को किस प्रकार की खुशी हुई।

एक : उसी किशोरी की आवाज़ है, मगर वह कामिनी को क्यों पुकार रही है? क्या कामिनी उसके पास पहुँच गयी?

दूसरा : क्या पागलपन की बातें कर रहे हो? कामिनी अगर किशोरी के पास पहुँच जाती तो वह पुकारती क्यों, धीरे-धीरे आपुस में बात करती या उस तरह इसे लानतें देती।

तीसरा : अजी यह तो वही है, मैं समझता हूँ कि कामिनी इस कोठरी में ज़रूर आयी थी।

चौथा : हम लोगों के आने के पहिले ही कहीं चली गयी होगी।

दूसरा : (हँसकर) क्या खूब! अजी किशोरी का यह कहना कि–"क्यों बहिन', चुप क्यों हो गयी!" इस बात को साबित करता है कि वह अभी-अभी इस कोठरी में मौजूद थी।

पाँचवाँ : तुम्हारा कहना ठीक है मगर यहाँ तो कामिनी की बू तक नहीं आती।

दूसरा : (चारों तरफ़ देख, उस कोठरी की तरफ़ इशारा करके) इसी में होगी।

पाँचों ही यह कहने लगे कि 'कामिनी ज़रूर इसी कोठरी में होगी, हम लोगों के आने की आहट पाकर छिप गयी है।' आख़िर सब उस कोठरी के पास गये। एक ने दरवाज़े में धक्का मारा और किवाड़ बन्द पाकर कहा–"है है, ज़रूरी इसी में है!"

कोठरी के अन्दर छिप कर बैठी बेचारी कामिनी सब बातें सुन रही थी और ताली के छेद में से सभों को देख भी रही थी। ऊपर लिखी बातों ने उसका कलेजा दहला दिया, यहाँ तक कि वह अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गयी और उसे निश्चय हो गया कि अब ये लोग मुझे गिरफ़्तार कर लेंगे।

पाँचों आदमी इस फिक्र में लगे कि किस तरह दरवाज़ा खुले और कामिनी को गिरफ़्तार कर लें। एक ने कहा, "दरवाज़ा तोड़ दो!" दूसरे ने हँसकर जवाब दिया–"शायद यह तुम्हारे किये हो सकेगा।"

उन पाँचों ने बहुत-कुछ ज़ोर मारा, कामिनी को पुकारा, दिलासा दिया, धमकी दी, जान बचा देने का वादा किया और समझाया मगर कुछ काम न चला। कामिनी बोली तक नहीं। आख़िर उनमें से एक ने जो सभों से चालाक और होशियार था कहा, "अगर इस दरवाज़े को हम पहिले कभी बन्द देखते तो ज़रूर समझते कि किसी जानकार ने बाहर से ताला लगाकर बन्द किया है, मगर अभी थोड़े ही दिन हुए इस कोठरी को मैंने खुला देखा था, इसमें किसी का असबाब पड़ा हुआ था। जो हो, यह तो निश्चय हो गया कि कामिनी इस कोठरी के अन्दर घुसकर बैठी है, अब बाबाजी आवें तो इस कोठरी का दरवाज़ा खुले। (कुछ सोचकर) अब तो यही मुनासिब है कि हम लोगों में से एक आदमी जाय और बाकी चार आदमी बारी-बारी से यहाँ पहरा दें, जिसमें कामिनी निकलकर भाग न जाय। आख़िर इस कोठरी में कब तक छिपकर बैठी रहेगी या अपनी भूख-प्यास का बन्दोबस्त करेगी?"

सभों ने इस राय को पसन्द किया। एक आदमी अपने मालिक को ख़बर करने चला गया, एक तहख़ाने में उसी जगह बैठा रहा और तीन आदमी बाहर खण्डहर में निकल आये और इधर-उधर टहलने लगे। सवेरा हो गया और पूरब तरफ़ सूर्य की लालिमा दिखायी देने लगी।

बेचारी कामिनी की जान आफ़त में फँस गयी, देखा चाहिए क्या होता है, मगर उसने निश्चय कर लिया है कि भूख और प्यास से चाहे जान निकल जाय मगर कोठरी के बाहर न निकलूँगी।

उस बेचारी को कोठरी के अन्दर घुसकर बैठे तीन दिन हो गये। भूख और प्यास से उस बेचारी की क्या अवस्था हो गयी होगी यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं, लिखने की कोई आवश्यकता नहीं।

हम ऊपर लिख आये हैं कि उन पाँचों में से एक आदमी अपने मालिक को ख़बर करने चला गया और बाकी चार इसलिए रह गये कि बारी-बारी से पहरा दें जिसमें कामिनी निकलकर भाग न जाये।

तीसरे दिन इनमें से तीन आदमी आपुस में बातें करते और घूमते-फिरते खण्डहर के बाहर निकले और फाटक पर खड़े होकर बातें करने लगे।

एक : इसमें कोई शक नहीं कि हम लोगों का नसीब जाग गया।

दूसरा : नसीब जागा तो हम नहीं कह सकते, हाँ इतनी बात है कि रकम गहरी हाथ लगेगी।

तीसरा : मुँहमाँगा इनाम क्या हम लोग नहीं पा सकते?

दूसरा : नहीं।

तीसरा : सो क्यों?

दूसरा : हम लोग कामिनी को अगर पकड़ ले जाते तो मुँह माँगा इनाम पाते, सो तो हुआ नहीं, कामिनी कोठरी के अन्दर घुस बैठी और हम लोग दरवाज़ा खोलकर उसे निकाल न सके, लाचार बाबाजी को बुलाना पड़ा, ऐसी अवस्था में जो कुछ इनाम मिल जाय वही बहुत है।

पहिला : इतना तो कहला भेजा कि हम लोगों ने कामिनी को इस तहख़ाने में फँसा रक्खा है।

दूसरा : ख़ैर जो होगा देखा जायेगा, इस समय तो हम लोगों की जीत-ही-जीत मालूम होती है। कामिनी और किशोरी दोनों ही को हमारे मालिक की किस्मत ने इस तहख़ाने में क़ैद कर रक्खा है।

तीसरा : (चौंककर) ज़रा इधर तो देखो ये लोग कौन हैं, मालूम होता है कि इन लोगों ने हमारी बातें सुन लीं।

खण्डहर के बाहर बायें तरफ़ कुछ हटकर एक नीम का पेड़ था और उस पेड़ के नीचे एक कुआँ था। इस समय दो साधु उस कुएँ पर बैठे इन तीनों की बातें सुन रहे थे। जब उन तीनों को यह बात मालूम हुई तो डरे और इन साधुओं के पास जाकर बात चीत करने लगे–

एक आदमी : तुम दोनों यहाँ क्यों बैठे हो?

एक साधु : हमारी खुशी!

एक आदमी : अच्छा अब हम कहते हैं कि उठो और यहाँ से चले जाओ।

एक आदमी : (तलवार खैंचकर) यह न जानना कि साधु समझ के छोड़ दूँगा, नाहक गुस्सा मत दिलाओ।

साधु : (हँसकर) वाह रे बन्दर घुड़की! अबे क्या तू हम लोगों को साधु समझ रहा है?

इतना सुनते ही तीनों आदमियों ने ग़ौर करके साधुओं को देखा और यकायक यह कहते हुए कि 'हाय गजब हो गया, यहाँ से भागो, यहाँ से भागो, वहाँ से भागे। जहाँ तक हो सका उन लोगों ने भागने में कसर न की। दोनों साधुओं ने उन लोगों को रोकना मुनासिब न समझा और भागने दिया।

अब वे दोनों साधु वहाँ से उठे और बातें करते हुए खण्डहर के अन्दर घुसे। घूमते-फिरते दालान में पहुँचे और दरवाज़ा खोलते हुए उस तहख़ाने में उतर गये जिसमें कामिनी थी। इस तहख़ाने और दरवाज़े का हाल हम ऊपर लिख आये हैं, पुनः लिखने की कोई ज़रूरत नहीं मालूम होती, हाँ, इतना ज़रूर कहेंगे कि रंग-ढंग से मालूम होता था कि ये दोनों साधु तहख़ाने और उसके रास्ते को बखूबी जानते हैं नहीं तो ऐसा आदमी जो दरवाज़े का भेद न जानता हो, उस तहख़ाने में किसी तरह नहीं पहुँच सकता था।

जब दोनों साधु तहख़ाने में पहुँचे तो वहाँ एक सिपाही को पाया और सन्दूक पर भी नज़र पड़ी। एक मोमबत्ती आले पर जल रही थी। वह सिपाही इन दोनों को देख चौंका और तलवार खैंचकर सामना करने पर मुस्तैद हुआ। एक साधु ने झपटकर उसकी कलाई पकड़ ली और दूसरे ने उसकी गर्दन में एक ऐसा घूँसा जमाया कि वह चक्कर खाकर गिर पड़ा। उसकी तलवार छीन ली गयी और बेहोश कर चादर से जो कमर में लपेटी हुई थी, उसकी मुश्कें बाँध दी गयीं। इसके बाद दोनों साधु उस सन्दूक की तरफ़ बढ़े। सन्दूक में ताला लगा हुआ न था बल्कि एक रस्सी उसके चारों तरफ़ लपेटी हुई थी। रस्सी खोली गयी और उस सन्दूक का पल्ला उठाया गया, एक साधु ने मोमबत्ती हाथ में ली और झाँककर सन्दूक के अन्दर देखा, देखते ही, "हाय!" कहकर ज़मीन पर गिर पड़ा। इसके बाद दूसरे ने देखा और उसकी भी यही अवस्था हुई।

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