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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

ग्यारहवाँ बयान

इस जगह मुख्तसर ही में यह भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है कि रोहतासगढ़ तहख़ाने में से राजा बीरेन्द्रसिंह, कुँअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग क्योंकर छूटे और कहाँ गये।

हम ऊपर लिख आये हैं कि जिस समय ग़ौहर 'जोगिया' का संकेत देकर रोहतासगढ़ किले में दाखिल हुई, उसके थोड़ी ही देर बाद एक लम्बे कद का आदमी भी जो असल में भूतनाथ था, 'जोगिया' का संकेत देकर किले के अन्दर चला गया। न मालूम उसने वहाँ क्या-क्या कार्रवाई की, मगर जिस समय मेगजीन उड़ायी गयी थी, उस समय वह एक चोबदार की सूरत बना राजमहल के आस-पास घूम रहा था। जब राजा दिग्विजयसिंह घबड़ाकर महल के बाहर निकला था और चारों तरफ़ कोलाहल मचा हुआ था, वह इस तरह महल के अन्दर घुस गया कि किसी को गुमान भी न हुआ। इसके पास ठीक वैसी ही ताली मौजूद थी, जैसी तहख़ाने की ताली राजा दिग्विजयसिंह के पास थी। भूतनाथ जल्दी-जल्दी उस घर में पहुँचा, जिसमें तहख़ाने के अन्दर जाने का रास्ता था। उसने तुरन्त दरवाज़ा खोला और अन्दर जाकर उसी ताली से फिर बन्द कर दिया। उस दरवाज़े में एक ही ताली बाहर-भीतर दोनों तरफ़ से लगती थी। कई दरवाज़ों को खोलता हुआ यह उस दालान में पहुँचा, जिसमें बीरेन्द्रसिंह वगैरह क़ैद थे और राजा बीरेन्द्रसिंह के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। राजा बीरेन्द्रसिंह उस समय बड़ी चिन्ता में थे। मेगजीन उड़ने की आवाज़ उनके कान तक भी पहुँची थी, बल्कि मालूम हुआ कि उस आवाज़ के सदमें से समूचा तहखाना हिल गया। वे भी यही सोच रहे थे कि शायद हमारे ऐयार लोग किले के अन्दर पहुँच गये। जिस समय भूतनाथ हाथ जोड़कर उनके सामने जा खड़ा हुआ वे चौंके और भूतनाथ की तरफ़ देखकर बोले, "तू कौन है और यहाँ क्यों आया?"

भूतनाथ : यद्यपि मैं इस समय एक चोबदार की सूरत में हूँ मगर मैं हूँ कोई दूसरा ही, मेरा नाम भूतनाथ है, मैं आप लोगों को इस क़ैद से छुड़ाने आया हूँ और इसका इनाम पहिले ही ले लिया चाहता हूँ।

बीरेन्द्र : (ताज्जुब में आकर) इस समय मेरे पास क्या है जो मैं इनाम में दूँ?

भूतनाथ : जो मैं चाहता हूँ वह इस समय भी आपके पास मौजूद है!

बीरेन्द्र : यदि मेरे पास मौजूद है तो मैं देने को तैयार हूँ, माँग क्या माँगता है?

भूतनाथ : बस मैं यही माँगता हूँ कि आप मेरा कसूर माफ कर दें, और कुछ नहीं चाहता।

बीरेन्द्र : मगर मैं कुछ नहीं जानता कि तू कौन है और तूने क्या अपराध किया है, जिसे मैं माफ कर दूँ।

भूतनाथ : इसका जवाब मैं इस समय नहीं दे सकता, बस आप देर न करें, मेरा कसूर माफ कर दें, जिससे आप लोगों को यहाँ से जल्द छुड़ाऊँ, समय बहुत कम है, विलम्ब करने से पछताना पड़ेगा।

तेजसिंह : पहिले तुम्हें कसूर साफ़-साफ़ कह देना चाहिए।

भूतनाथ : ऐसा नहीं हो सकता!

भूतनाथ की बातें सुनकर सभी हैरान थे और सोचते थे कि यह विचित्र आदमी है, जो जबर्दस्ती अपना कसूर माफ करा रहा है और यह भी नहीं कहता कि उसने क्या किया है। इसमें शक नहीं कि यदि हम लोगों को यहाँ से छुड़ा देगा तो भारी एहसान करेगा, मगर इसके बदले में यह केवल इतना ही माँगता है कि इसका कसूर माफ कर दिया जाये तो यह मामला क्या है! आख़िर बहुत-कुछ सोच-समझकर राजा बीरेन्द्रसिंह ने भूतनाथ से कहा, "ख़ैर जो हो, मैंने तेरा कसूर माफ किया।"

इतना सुनते ही भूतनाथ हँसा और बारह नम्बर की कोठरी के पास जाकर उसी ताली से जो उसके पास थी, कोठरी का दरवाज़ा खोला। पाठक महाशय भूले न होंगे, उन्हें याद होगा कि इसी कोठरी में किशोरी को दिग्विजयसिंह ने डाल दिया था और इसी कोठरी में से उसे कुन्दन ले भागी थी।

कोठरी का दरवाज़ा खुलते ही हाथ में नेजा लिये वही राक्षसी दिखायी पड़ी, जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं और जिसके सबब से कमला, भैरोसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल किले के अन्दर पहुँचे थे। इस समय तहख़ाने में केवल एक चिराग जल रहा था, जिसकी कुछ रोशनी चारों तरफ़ फैली हुई थी, मगर जब वह राक्षसी कोठरी के बाहर निकली तो उसके नेजे की चमक से तहख़ाने में दिन की तरह उजाला हो गया। भयानक सूरत के साथ उसके नेजे ने सभों को ताज्जुब में डाल दिया। उस औरत ने भूतनाथ से पूछा, "तुम्हारा काम हो गया?" इसके जवाब में भूतनाथ ने कहा–"हाँ।"

उस राक्षसी ने राजा बीरेन्द्रसिंह की तरफ़ देखकर कहा, "सभों को लेकर आप इस कोठरी में आवें और तहख़ाने के बाहर निकल चलें, मैं इसी राह से आप लोगों को तहख़ाने के बाहर कर देती हूँ।" यह बात सभों को मालूम ही थी कि इसी बारह नम्बर की कोठरी में से किशोरी गायब हो गयी थी, इसलिए सभों को विश्वास था कि इस कोठरी में से कोई रास्ता बाहर निकल जाने के लिए ज़रूर है।

सभों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गयी, इसके बाद सबकोई उस कोठरी में घुसे और राक्षसी की मदद से तहख़ाने के बाहर हो गये। जाते समय राक्षसी ने उस कोठरी को बन्द कर दिया। बाहर होते ही राक्षसी और भूतनाथ राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह से बिना कुछ कहे चले गये और जंगल में घुसकर देखते-ही-देखते नज़रों से गायब हो गये। उन दोनों के बारे में सभों को शक बना ही रहा।

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