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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवां बयान

कुंवर वीरेन्द्रसिंह धीरे-धीरे बेहोश होकर उस गद्दी पर लेट गये। जब आंख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोए पाया, घबराकर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार, देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग क़ैद किये जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के क़ैद किया था, या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चन्द्रकान्ता और चपला को देखा था मगर पास न पहुंच सके थे।

कुमार घबराकर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने लगे और हर एक चीज़ को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिलकुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह क़ैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उसकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का गुमान तक भी न हुआ।

कुंवर वीरेन्द्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर वाले दालान में कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने खोह के बाहर गये थे। इस वक़्त भी कुमारी चन्द्रकान्ता को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बांधे बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गयी। कुमारी के पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आंखों में आंसू भर आये, गला रुक गया और कुछ शरमा के सामने से हट पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे, ‘‘हाय अब कौन मुंह लेकर चन्द्रकान्ता के सामने जाऊं और उससे क्या बातचीत करूं? पूछने पर क्या यह कह सकूंगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गये थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हां! मुझसे तो यह बात कभी नहीं कहीं जायेगी। क्या करूं, वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की भी सुध जाती रही और कई दिन का हर्ज़ भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहां कैसे आये तो क्या जवाब दूंगा? शिवदत्त भी यहां दिखाई देता है, लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नज़र लेकर आया था, यह सब क्या मामला है?

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देखा दौड़े और उनके पास जाकर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठाकर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषीजी को दण्डवत् किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठकर बातचीत करने लगे।

कुमार : देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चन्द्रकान्ता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहने बैठी है और बगल में उनकी सखी चपला बैठी अपने आंचल से उनका मुंह पोछ रही है।

तेजसिंह : आपसे कुछ बातचीत भी हुई?

कुमार : नहीं, कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उनके सामने जाऊं या नहीं।

तेजसिंह : कितने दिन से आप यह सोच रहे हैं?

कुमार : अभी मुझको इस घाटी में आये दो घड़ी भी नहीं हुई।

तेजसिंह : (ताज्जुब से) क्या आप अभी इस खोह में आये हैं? इतने दिनों तक कहां रहे? आपको लश्कर से आये तो कई दिन हुए। इस वक़्त आपको एकाएक यहां देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकलकर इस जगह आ बैठे हैं।

कुमार : नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था?

तेजसिंह : (ताज्जुब से) हैं, क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था?

कुमार : नहीं, बिलकुल नहीं।

इतना कहकर कुमार ने अपना सारा हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचम्भे से सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कहानी समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ‘‘यह क्या मामला है आप कुछ समझे?’’

ज्योतिषी : कुछ नहीं बिलकुल खयाल में ही नहीं आता कि कुमार कहां गये थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखालाने वाला कौन था?

कुमार : तिलिस्म तोड़ने के वक़्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं उनसे बढ़कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ी।

देवीसिंह : किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।

ज्योतिषीजी : इसमें क्या सन्देह है।

कुमार : और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहां दिखाई पड़ रहा है।

तेजसिंह : सो कहां?

कुमार : (हाथ का इशारा करके) वह, उस पेड़ के नीचे नज़र दौड़ाओ।

तेजसिंह : हां, ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है। चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।

कुमार : उसके सामने ही कुमारी चन्द्रकान्ता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूंगा?

तेजसिंह : आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूंगा।

चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर छोटे दालान में कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला बैठी थीं। कुमार की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज़ देकर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी जिसका जवाब खुद कुमार ने देकर कुमारी चन्द्रकान्ता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा, ‘‘इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी कहने की ज़रूरत ही नहीं।’’

कुमारी अभी तक सिर नीचा किये बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज़ सुन चौंककर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और आँखों से आंसू बहाने लगी।

कुंवर वीरेन्द्रसिंह से कहा, ‘‘कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा काम बाकी है। कई कारणों से मुझे यहां आना पड़ा अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊंगा!’’

चपला : कुमारी कहती है कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने ले ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूं जिसका खयाल मुझे कुछ भी न था, मगर कई दिनों से यह नया खयाल जी में पैदा होकर मुझे बेहद सता रहा है।

चपला इतना कहके चुप हो गयी। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले, ‘‘क्यों कहो तो भण्डा फोड़ दूं?’’

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हंसकर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हुए हाथ छुड़ा दिये और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया–

‘‘कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अन्देशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई!’’

चपला : आप लोग आज यहां किस लिये आये?

तेजसिंह : महाराज शिवदत्त को देखने आये हैं, वहां खबर लगी थी कि ये छूटकर चुनार पहुंच गये।

चपला : किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यही देखती रहती हूं।

तेजसिंह : ज़रा मैं उससे बातचीत कर लूं।

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगाकर सुन रहे थे। अब ये कुमार के पास आये, कुछ कहना चाहते थे कि ऊपर चन्द्रकान्ता और चपला की तरफ देखकर चुप हो रहे।

तेजसिंह : शिवदत्त, हां क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गये?

शिवदत्त : अब न कहूंगा।

तेजसिंह : क्यों?

शिवदत्त : शायद न कहने से जान बच जाये।

तेजसिंह : अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन लेगा?

शिवदत्त : जब इतना ही बता दूं तो बाकी क्या रहा?

तेजसिंह : न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोड़ूंगा।

शिवदत्त : जो चाहो कहो, मगर मैं कुछ न बताऊंगा।

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज़ दी, ‘‘हां-हां ऐसा मत करना!’’ तेजसिंह ने हाथ रोककर चपला की तरफ देखा।

चपला : शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?

तेजसिंह : यह कुछ कहने आये थे मगर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहे, अब पूछता हूँ तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूंगा तो जान चली जायेगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है? एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हौरान थे, दूसरे कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जायेगी, इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है।

चपला : आज कल ये पागल हो गये हैं, मैं देखा करती हूँ कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिलकुल हालत पागलों की सी पाई जाती है इनकी बातों का खयाल मत करो।

शिवदत्त : उलटे मुझी को पागल बनाती है।

तेजसिंह : (शिवदत्त से) क्या कहा फिर तो कहो?

शिवदत्त : कुछ नहीं तुम चपला से बात करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूं।

देवीसिंह : वाह, क्या पागल बने हैं!

शिवदत्त : चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।

कुमार : ज्योतिषी जी ज़रा इन नयी गढ़न्त के पागल को देखना।

ज्योतिषी : (हंसकर) जब आकाशवाणी ही हो चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा।

कुमार : दिल में कई तरह के खटके पैदा होते हैं।

तेजसिंह : इसमें ज़रूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यह है कि हम कुछ कर नहीं सकते।

देवीसिंह : हमारी उस्तादिन इस भेद को जानती हैं मगर उनको भी इसे खोलना मंजूर नहीं है।

कुमार : यह बिलकुल ठीक है।

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हंसकर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहां से उठकर अपने ठिकाने पर जा बैठे। तेजसिंह ने कुमार से कहा, ‘‘अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता, वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहां आकर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं।’’

कुमार : इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर, तुमने किसकी जुबानी सुना है, साफ कहो।

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुंच कर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनाना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह का चुनार पर चढ़ाई करना इत्यादि का हाल कहा जिसे सुन कर कुमार परेशान हो गये, खोह से बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चन्द्रकान्ता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आंखों से आंसू बहाते कुंवर वीरेन्द्रसिंह खोह के बाहर हुए।

शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहां बैठते हैं, तुम नौगढ़ जाकर सरकारी अस्तबल में से उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गये हैं।

देवीसिंह : जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने का फायदा क्या?

तेजसिंह : कितनी देर में आओगे?

देवीसिंह : यह कोई भारी बात नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अन्दर आ जाऊंगा।* (*उस खोह से नौगढ़ सिर्फ दो कोस होगा।)

यह कह देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों भी घने पेड़ों के नीचे बैठकर बातें करने लगे।

कुमार : क्यों ज्योतिषीजी शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?

ज्योतिषी : इसमें तो कोई शक नहीं है कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने क़ैद से छूटकर अपने दीवान के हाथ आपके पास तोहफा भेजकर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि यह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक़्त खोह में छोड़ आये हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ?

कुमार : पिताजी ने चुनार पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीज़ा क्या होता है, हम लोग भी वहां जल्दी पहुंचते तो ठीक था।

ज्योतिषी : कोई हर्ज़ नहीं, वहाँ बोलने वाला कौन है। आपने सुना ही है कि शिवदत्त फिर गायब हो गया बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलंग पर मिला मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।

तेजसिंह : हां, चुनार दखल होने में शक नहीं है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उसके ऐयारों का ज़रा खौफ बना रहता है।

कुमार : बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।

तेजसिंह : अबकी बार चलकर ज़रूर गिरफ्तार करूंगा।

इसी तरह की बात करते इनको पहर भर से ज़्यादा गुज़र गया। देवीसिंह घोड़ा लेकर आ पहुंचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए, साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

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