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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

छठवां बयान

देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की टोह में निकलकर थोड़ी ही दूर गये होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला जिसने पुकार के कहा–

‘‘देवीसिंह कहां जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न लगेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते देकर कपड़े सब छीन लिए गये, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम तुम लोगों को ऐयारी सिखलाकर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।’’

नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में तो हैरान हो गये पर ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, ‘‘सुन लीजिए! यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखलायेंगे जो शर्म के मारे अपना मुंह तक नहीं दिखा सकते।’’

नकाबपोश: ज्योतिषीजी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हमलोगों ने बेकाम कर दिया। हजार दफे फेकें मगर पता खाक न लगा।

देवीसिंह: अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेगे।

नकाबपोश : रहेंगे नहीं तो जायेंगे कहां? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे। बात करते करते देवीसिंह ने चालाकी से कूदकर सवार के मुंह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई हैं, कुछ पहचान न सके।

सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक चिट्ठी उनके सामने फेंक घोड़ा तेजकर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिन्दगी के साथ चिट्ठी उठाकर देखा, लिफाके पर लिखा हुआ था–

‘‘कुमार वीरेन्द्रसिंह’’

ज्योतिषीजी ने देवीसिंह से कहा, ‘‘न मालूम ये लोग कहां के रहने वाले हैं? मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं सब ऐयार ही हैं।’’

देवीसिंह : (चिट्ठी जेब में रखकर) इसमे तो शक नहीं, देखिए हर दफा हम लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए, चेहरा रंग के तब नकाब डाले हुए था।

ज्योतिषी: खैर देखा जायेगा, इस वक़्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ेगा क्योंकि चिट्ठी कुमार को देनी ज़रूरी है, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है। अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो हम लोग भी पढ़ लेते।

देवीसिंह : हां चलो, पहले चिट्ठी का हाल सुन लें, तब कोई कार्रवाई सोचें, दोनों आदमी लौटकर लश्कर में आये और कुंवर वीरेन्द्रसिंह के डेरे में पहुंच कर सब हाल कहके चिट्ठी हाथ में दे दी। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था– ‘‘चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं आ सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों को लिखकर इकरार न कर लें–

(१) चन्द्रकान्ता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत से शादी हो।

(२) चन्द्रकान्ता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊं क्योंकि मैं हर तरह के दर्जे में उसके बराबर हूं।

अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही अपने घर का रास्ता लूंगी। इसके अलावा यह भी कहे देती हूं कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हज़ार बरस भी कोशिश करें मगर चन्द्रकान्ता को नहीं पा सकते।’’

कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्ज़े का है। चन्द्रकान्ता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस चिट्ठी को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब को मानेंगे! इसके अलावा यह क्या लिखा हुआ है कि बिना मदद के आप चन्द्रकान्ता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर, अब जो भी हो, वनकन्या के बिना मेरी ज़िन्दगी मुश्किल है, मैं ज़रूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूंगा, पीछे समझा जायेगा। कुमारी चन्द्रकान्ता मेरी बात ज़रूर मान लेगी।

देवीसिंह और ज्योतिषीजी को भी कुमार ने वह चिट्ठी दिखाई। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए?

दिन और रात भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस चिट्ठी का क्या जवाब दिया जाये? दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे।

कुमार ने पूछा, ‘‘वापस क्यों आ गये?’’

तेजसिंह : क्या बतायें, मामला ही बिगड़ गया।

कुमार : सो क्या?

तेजसिंह : तहखाने का दरवाज़ा नहीं खुलता।

कुमार : किसी ने भीतर से बन्द तो नहीं कर लिया?

तेजसिंह : नहीं, भीतर तो कोई ताला ही नहीं है!

ज्योतिषी : दो बातों में से एक बात ज़रूर है, या तो कोई आदमी पहुंचा जिसने दरवाज़ा खोलने की कल बिगाड़ दी, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की!

तेजसिंह : भला शिवदत्त अन्दर से बन्द करके अपने को और बला में क्यों फंसवायेगा? इसमें तो उसका हर्ज़ ही है, कुछ फायदा नहीं।

कुमार : कहीं वनकन्या ने तो कोई युक्ति नहीं की?

तेजसिंह : आप भी गजब करते हैं, कहां बेचारी वनकन्या, कहां वह तिलिस्मी तहखाना!

कुमार : तुमको मालूम ही नहीं। उसने चिट्ठी लिखी है कि बिना मेरी मदद के तुम चन्द्रकान्ता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं, मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूं और वह कौन-सी बात है जिससे मुझको वनकन्या की मदद की ज़रूरत पड़ेगी मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।

देवीसिंह : मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।

तेजसिंह : अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिये, खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।

ज्योतिषी : यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।

तेजसिंह : (कुमार से) भला वह चिट्ठी तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने लिखा ‘कि बिना मेरी मदद के चन्द्रकान्ता से मुलाकात नहीं हो सकती’।

कुमार ने वह चिट्ठी तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गये कि यह क्या बात है? कुछ अक्ल काम नहीं करती। कुमार ने कहा, ‘‘तुम लोग यह जानते हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता तो फिर उसके लिखे अनुसार इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज़ है? जब खुश होगी तो उससे ज़रूर ही कुछ-न-कुछ भेद मिलेगा।

तेजसिंह : जो मुनासिब समझिए कीजिए, चन्द्रकान्ता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक मड़वे में दोनों के साथ शादी हो! क्या जाने वह कौन, कहां की रहने वाली और किसकी लड़की है?

कुमार : उनकी चिट्ठी में तो यह भी लिखा है कि मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से काम नहीं हूं।

ये बातों हो रही थी कि चोबदार ने आकर अर्ज़ किया, ‘‘एक सिपाही बाहर आया है जो हाज़िर होकर कुछ कहना चाहता है।’’ कुमार ने कहा, उसे ले आओ। चोबदार उस सिपाही को अन्दर ले आया, सभी ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद काला रंग, टाट का चपकन, पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई। सिर पर दौरी की तरह बांस की टोपी, ढाल-तलवार लगाए था। उसने झुक कर कुमार को सलाम किया।

सभी को उसकी सूरत देखकर हंसी आयी, मगर हंसी को रोक तेजसिंह ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो और कहां से आये हो?’’ उस बांके जवान ने कहा, ‘‘मैं देवता हूं, दैत्यों की मण्डली से आ रहा हूं, कुमार से उस चिट्ठी का जवाब चाहता हूं जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।

तेजसिंह: भला तुमने ज्योतिषीजी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?

बांका : ज्योतिषी जी को तो मैं तब से जानता हूं जब वे इस दुनिया में नहीं आये थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले हैं।

देवीसिंह : क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?

बांका बेदअबी तो आप करते हैं कि उस्ताद को अबे-तबे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते!

देवीसिंह : मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहां ले आई है!

बांका : मैं तो स्वयं मौत हूं।

देवीसिंह: इस बेअदबी का मज़ा चखाऊं तुझको?

बांका : मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूँ, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह बार झुककर सलाम करोगे।

देवीसिंह और कुछ कहना ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा, ‘‘चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर ज़रा सी दिल्लगी से नाराज़ हो जाते हो!’’

बांका : अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चम्पा को बुला लाऊंगा। उस बांके टेढ़े जवान की बात पर सबलोग एकदम हंस पड़े मगर हैरान थे कि यह कौन है? अजब तमाशा तो यह है कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं!

तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे। वह बोला, ‘‘आप मेरी सूरत क्या देखते हैं, मैं ऐयार नहीं हूं, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, गरम पानी मंगवाइये धोकर दिखा दूं। मैं आज से काला नहीं हूं, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।’’

तेजसिंह हंस पड़े और बोले, ‘‘जो हो, अच्छे हो, मुझे और जांचने की कोई ज़रूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते। मगर तुमसे क्या? ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त आदमी हो।’’

यह सुन उसने झुक कर सलाम किया और कुमार की तरफ देखकर कहा, ‘‘मुझको जवाब मिल जाये, क्योंकि बड़ी दूर जाना है।’’ कुमार ने उसी चिट्ठी की पीठ पर यह लिख दिया, मुझको सबकुछ दिलो जान से मंजूर है! बाद उस पर अपनी अंगूठी से मोहर कर उस बांके जवान के हवाले किया, वह चिट्ठी लेकर खेमे के बाहर हो गया।

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