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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा भाग

 

पहला बयान

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहाँ की रहने वाली है जब तक यह मालूम हो जाये तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चलकर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुंची जिधर आड़ में कुंवर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे तो ठहर गई और ठहर गई पीछे फिर के देखा। उसके साथ एक और जवान नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देखकर लंबी साँस ली, साथ ही आंखे डबडबा आईं, बल्कि कई बूंद आंसुओं के भी गिर पड़े। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एक टक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार : क्यों फतहसिंह, यह कौन है, कुछ जानते हो?

फतहसिंह : मैं कुछ भी नहीं जानता, मगर इतना कह सकता हूं, कि किसी राजा की लड़की है।

कुमार: यह किताब, जो इसके हाथ में है, जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई, और जिसकी खोज में हमारे ऐयार गये हुए हैं।

फतहसिंह : मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?

कुमार : इसका तो ताज्जुब ही है मगर इससे भी ज्यादा ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने खयाल नहीं किया।

फतहसिंह : नहीं वह क्या?

कुमार : वह तस्वीर भी मेरी है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।

फतहसिंह : यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।

कुमार : मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूँ कुछ समझ नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो, पीछे-पीछे, देखें ये सब जाती कहाँ हैं।

फतहसिंह : चलिए।

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर बढ़े होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज़ दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नज़र पड़ी। ठहर गये, जब पास पहुँचे उन्हें घबराये हुए और बदहवास देखकर पूछा, ‘‘क्यों, क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस अब हम आपसे ज़िंदगी भर के लिए ज़ुदा होते हैं।’’ इससे ज़्यादा न बोल सके, गला भर आया, आँखों से आंसुओं की बूंदें टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालात देख कुमार भी बेचैन हो गये मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रुमाल से दोनों की आंखें पोंछीं इसके बाद तेजसिंह से पूछा, ‘‘आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है? कुछ तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए कुमार से जुदा होंगे?’’ तेजसिंह ने अपने को सम्हाल कर कहा–

तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और मिलने की कोई उम्मीद ही है, इसलिए अपने कौल पर सिर मुड़ा के निकल जाना पड़ेगा।’’

इसका जवाब कुंवर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह कुछ देना ही चाहते थे कि देवीसिंह और पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुंचे। ज्योतिषी जी ने पुकार कर कहा, ‘‘तेजसिंह घबराओ मत, अब अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही। जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।’’

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा, ‘‘वाह! खूब! आप भी रोये और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुंची, उसे मैंने देखा, मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं, तुम पहले से ही रोने लगे।’’ इतना सुन के तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहाँ है?’’ कुमार ने जवाब दिया, ‘‘मैं क्या बताऊँ, कहां है? चलो उस तरफ शायद दिखलाई दे जाये, हाय! विपत-पर-विपत बढ़ती जा रही है।’’

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह देवीसिंह ज्योतिषीजी हैरान थे कि कुमार किसको खोज़ रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी, या जब देखा ही था तो छीन क्यों न लिया? कई दफे चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराये हुए इधर-उधर देखते और लम्बी साँसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आँखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये।

तेजसिंह ने पूछा, ‘‘आप कुछ खुलासा कहिए भी तो, क्या मामला है?’’ कुमार ने कहा, ‘‘अब इस, जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।’’

सब कोई लश्कर में पहुंचे, कुमार ने कहा, ‘‘पहले तिलिस्मी खण्डहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है।’’ यह कहकर खण्डहर की तरफ चले। ऐयार सब-के-सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खण्डहर के दरवाज़े के अन्दर पैर रक्खा ही था कि सामने पंडित बद्रीनाथ पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार : यह देखो, वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं। मगर हैं...यह बद्रीनाथ छूट कैसे गये?

तेजसिंह : बड़े ताज्जुब की बात है।

देवीसिंह : कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई? अगर ऐसा हुआ तो मुश्किल होगी।

फतहसिंह : इससे निश्चिंत रहो। वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी। हां, आगे मिल जाए तो मैं कह नहीं सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गये। पन्नालाल ने पुकार के कहा, ‘‘क्यों तेजसिंह अब तो हार गये न?’’

तेजसिंह: हम क्यों हारे?

बद्रीनाथ : क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गये और किताब भी न दी।

तेजसिंह : किताब तो हम पा गये, तुम चाहे आप-से-आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो। किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार के साथ आ रहो।

बद्रीनाथ : हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।

तेजसिंह : तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं है तो साबित हो गया कि हम पा गये।

बद्रीनाथ : बस-बस, हम बेफिक्र हो गये, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।

देवीसिंह : फिर आखिर हम कौन? यह भी तो कहो।

बद्रीनाथ : कोई भी नहीं हारा।

कुमार : यह कहो, तुम छूटे कैसे?

बद्रीनाथ : बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जान-बूझ के कोई युक्ति नहीं की गयी, पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रक्खी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ ली, बस मैं छूट गया, उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।

कुमार : अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।

बद्रीनाथ : कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूँ, मगर क्या करूँ नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए। अब मुझे आज्ञा हो तो बिदा होऊँ?

कुमार : हाँ जाओ।

ज्यो : अच्छा, हमारी तरफ नहीं होते, न सही, मगर ऐयारी तो बन्द करो।

तेजसिंह : वाह ज्योतिषीजी, आखिर वेद पाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें उतना जोर लगा लें।

पन्ना : खैर देखा जायेगा, अब तो जाते हैं, जय माया की।

तेजसिंह : जय माया की।

बद्रीनाथ वगैरह वहाँ से चले गये। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गये और अपने डेरे में चले आये। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दे दिया कि कोई अन्दर न आने पावे। तेजसिंह ने कुमार से पूछा, ‘‘अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों न की?’’

कुमार ने जवाब दिया, ‘‘यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चन्द्रकान्ता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने उससे किताब छीनने न दिया।’’

तेज : (ताज्जुब से) कुमारी चन्द्रकांता से और उस किताब से क्या संबंध? खुलासा कहिये तो कुछ मालूम हो।

कुमार : क्या कहें, हमारी तो अजब हालत है। (ऊँची साँस लेकर चुप हो रहे)।

तेज : आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफे लम्बी साँसे लेंगे तो डेढ़ बात कहेंगे। जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं, दूसरी खरीदने को तैयार हो गये।

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई, और तस्वीर कैसे उतरवा मँगाई?

ज्योतिषीजी ने कई दफे रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका, हां इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे मगर कोई काम न हुआ, आखिर यह बात तय ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूंढना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गये। रात भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसके आँखों से गिरे हुए आँसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लम्बी साँस लेते रात बीत गई घंटा भर दिन चढ़ आया, पर कुमार अपने पलंग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आकर देखा तो कुमार चादर से मुँह लपेटे पड़े हैं, मुंह की तरफ का बिलकुल कपड़ा गीला हो रहा है, दिल में समझ गये कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी, ‘‘आप सोते हैं या जागते?’’

कुमार : (मुंह खोल कर), नहीं जागते तो हैं।

तेज : फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सवेरे ही स्नान पूजा से छुट्टी पा लेते हैं, आज क्या हुआ?

नहीं कुछ नहीं।’’ कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पाकर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इसके पहले ही सब कामों से निश्चिंत हो चुके थे, उन लोगों ने भी भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूंढने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा, हम भी चलेंगे। सभी ने समझाया कि आप चलकर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज़ होगा कुमार ने कहा, ‘‘कोई हर्ज़ न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ ले चलते हैं, तुम्हारा जहां जी चाहे घूमना, हम उनके साथ इधर-उधर फिरेंगे।’’ तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखें में न फंसा लें, मगर कुमार ने एक न मानी। आखिर लाचार होकर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगलों की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जाकर उन दोनों को एक जगह बैठाकर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतें की खोज में रवाना हुए। ऐयारों के चले जाने के बाद कुंवर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।

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