नई पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता चन्द्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
सत्ताईसवां बयान
तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के खयाल पैदा होते रहे, जरा खुटका हुआ और दरवाज़े की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी को न देखते तो फिर हाथ पर गाल रखकर सोच-विचार में पड़ जाते। पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौटकर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबराई, बैठा न गया, डेरे से बाहर निकले।
कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाजिम सामने आ खड़े हुए। बगल ही में फतहसिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हरवों को लगाकर वह भी बाहर निकल आये और कुमार के पास आकर खड़े हो गये। कुमार ने फतहसिंह से कहा, ‘‘चलो, जरा घूम आवें, मगर हमारे साथ और कोई न आवे। यह कह आगे बढ़े। फतहसिंह ने सभी को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल आये, तब कुमार ने फतहसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘सुनो फतहसिंह, तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए हो, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती, तेजसिंह भी तुमको बहुत मानते हैं। आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गयी है, अब हमारा जीना मुश्किल समझो, क्योंकि आज तेजसिंह को न मालूम क्या सूझी बद्रीनाथ से जिद कर बैठे, हाथ में फंसे हुए चोर को छोड़ दिया, क्या जाने अब क्या होता है! किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे चन्द्रकान्ता मिले या तिलिस्म में ही तड़प-तड़प कर मर जाये!’’
फतहसिंह ने कहा, ‘‘आप कुछ सोच न कीजिए। तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद की सो अच्छा ही किया। सब ऐयार एकदम से आपकी तरफ हो जायेंगे। आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इन्तजाम भी उन्होंने बहुत अच्छा किया है। मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गये हैं वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिए तो क्या होता है!’’
बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गये, एकाएक इन लोगों की निगाहें कई औरतों पर पड़ीं जो इनसे दूर न थीं। इन्होंने आपस में बातचीत करना बन्द कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे।
अन्दाज से बीस औरतें होंगी, अपने घोड़ों की बाग थामे धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थी। एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी। यों तो सभी औरतें एक-से-एक खूबसूरत थीं मगर सभी के आगे जो आ रही थी बहुत ही खूबसूरत और नाज़ुक थी। उम्र करीब पन्द्रह वर्ष की होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि वह ज़रूर किसी राजा की लड़की है। सिर से पांव तक जवाहरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुन्दर और सुडौल, गुलाब-सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था। साथ वाली औरतें भी एक-से-एक खूबसूरत और बेशकीमत पोशाक पहने हुए थीं।
कुँअर वीरेन्द्रसिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे जो सभी के आगे थी। ऐसे दरद्दुद की हालत में भी कुमार के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘वाह! क्या सुडौल हाथ-पैर हैं! बहुत-सी बातें कुमारी चन्द्रकान्ता की इसमें मिलती हैं, नजाकत और चाल भी उसी ढंग की है, हाथ में कोई किताब है जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है।’’
वे औरतें और पास आ गई। अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला। जिस जगह पेड़ों की आड़े में दोनों छिपे हुए थे किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। वह औरत जो सभी के आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं, चलते-चलते अटक गई, उस किताब को खोलकर देखने लगी साथ ही इसकी दोनों आँखों से आँसू गिरने लगे।
कुमार ने पहचाना कि यह वही तिलिस्मी किताब है, क्योंकि जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे सुनहरे हरफों में ‘तिलिस्म’ लिखा हुआ है। सोचने लगे–‘‘इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गये थे, तेजसिंह इसकी खोज में गये हैं। इसके हाथ में यह किताब क्योंकर लगी? यह कौन है और किताब देखकर रोती क्यों हैं।
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