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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

चौबीसवां बयान

रात भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे, कुंवर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देखभाल कर ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म को तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खण्ड़हर में किसी जगह गड़ा हुआ है। उसकी तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता लगेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पीकर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, ज़रूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।’’

सब कामों से छुट्टी पाकर दोपहर को सब लोग खण्डहर में घुसे। देखते-भालते उस चबूतरे के पास पहुंचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी जगह सोता पाया।

ज्योतिषी ने तेजसिंह से कहा, ‘‘यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और उसके ऊपर चढ़कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़के खूब गौर कर देखो तो सही, किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?’’ तेजसिंह ने ऐसा ही किया और ईंट के ढेर पर चढ़कर देखा।

उस किताब में लिखा था-

८ पहल-५-अंक

६ हाथ-४-अंगुल

जमा पूंजी–॰–जोड़ ठीक नाप तोड़।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘मतलब भी मालूम हो जायेगा, तुम एक काग़ज़ पर इसकी नकल उतार लो।’’ तेजसिंह ने अपने बटुए में से काग़ज़, कलम, दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उनकी नकल उतार ली।

ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘अब घूमकर देखना चाहिए कि इस मकान में आठ पहल का कोई खम्भा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।’’ सब कोई उस खण्ड़हर में घूम-घूमकर आठ पहल का खम्भा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-फिरते उस दालान में पहुंचे जहां तहखाना था। एक सिरा कमन्द का तहखाने के किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खम्भें के साथ बंधा हुआ था, उस खम्भे को आठ पहल का पाया। उस खम्भे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘इसकी लम्बाई हाथ से नापनी चाहिए।’’ तेजसिंह ने नापा, ६ हाथ ७ अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा, ६ हाथ ५ अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषीजी ने नापा ६ हाथ १॰ अंगुल पाया, इसके बाद कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने नापा, ६ हाथ ४ अंगुल हुआ।

ज्योतिषीजी ने खुश होकर कहा, ‘‘बस यही खम्भा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे ‘जमा पूंजी’ यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है, गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाये हैं इसका नाप ६ हाथ ४ अंगुल लिखा है! सो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमन्द को खोल डालना चाहिए जो इस खम्भे और किवाड़ के पल्ले से बंधी हुई है।’’

तेजसिंह ने कमन्द खोलकर अलग किया, ज्योतिषीजी ने तेजसिंह की तरफ देखके कहा, ‘‘बस, बात तो मिल गई, आठ पहल भी हुआ और नाप से ६ हाथ ४ अंगुल भी है, यह देखिए, इस तरफ ५ का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया ‘ठीक नाप तोड़’ सो कुमार के हाथ से इसका नाम भी ठीक है, अब यही इसको तोड़ें!’’

कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने उसी जगह एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊंचा करके उस खम्भे पर मारा, जिससे वह खम्भा हिल उठा। दो-तीन दफे में बिल्कुल कमज़ोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबाकर ज़ोर किया और ज़मीन से निकाल डाला। खम्भा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का सन्दूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था, बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और सन्दूक निकला। उसका भी ताला तोड़ा। इसी तरह दर्जे-बदर्जे सात सन्दूक उसमें से निकले। सातवें सन्दूक में एक पत्थर निकला जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा था–

‘‘सम्हाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेन्द्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिए है।’’

‘‘बगुले के मुंह की तरफ ज़मीन पर जो पत्थर संगमरमर का जड़ा है वह पत्थर नहीं, वह मसाला जमा हुआ है। उसको उखाड़ कर सिरके में खूब महीन पीस के बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले का ही बना हुआ है, दो घण्टे में वह बिल्कुल गल कर बह जायेगा। उसके नीचे जो कुछ तार, चर्खे, पहिये, पुर्जों हों सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है जो पूरब वाले दालान में है। वहां भी मसाले से बना एक बुड्ढा आदमी हाथ में किताब लिये दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे। पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुंह खोल देगा। उसका मुंह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जायेगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा है वैसा करो।–विक्रम!’’

कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी के जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चलकर आराम किया जाये, कल सवेरे ही कुल कामों से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ झुकें।

यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता और चपला फंस गई हैं, उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने मय फौज़ के उस जगह डेरा डाला है।

तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज़ है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुंवर वीरेन्द्रसिंह उसे क्योंकर तोड़ेंगे? इत्यादि बातों को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए जहां कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अन्दर कोई पैर नहीं रखता था, सब बाहर से ही देखते थे।

कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोशों को भी देखा जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुंचाई।

पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाज़िम को साथ लेकर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गये थे, तहखाने में शेर के मुंह से जुबान खींच किवाड़ खोलना चाहा मगर खुल न सका, क्योंकि यहां तेजसिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था। जब कोई काम न निकला तब वहां से लौटकर विजयगढ़ गये, ऐयारी की फिक्र में थे कि यह खबर कुंवर वीरेन्द्रसिंह की इन्होंने भी सुनी। लौटकर इसी जगह पहुंचे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इन सभी की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए। इसी फिक्र में ये लोग भेष बदलकर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे।

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