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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

अठारहवां बयान

तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषीजी अकेले पड़ गये, सोचने लगे कि रमल के जरिए पता लगाना चाहिए कि चन्द्रकान्ता और चपला कहां हैं! बस्ता खोल, पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। एकाएक ज्योतिषीजी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हंसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बांध उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहां तेजसिंह महारानी को लिये जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहां तक बन पड़ा खूब तेजी से दौड़ पड़े।

तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पांच कोस गये होंगे कि पीछे से आवाज़ आई, ‘‘ठहरो, ठहरो।’’फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथ जी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गये, जी में खटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं?

जब पास पहुंचे तो इनके चेहरे पर कुछ हंसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा, ‘‘क्या है जो आप दौड़े आये हैं?’’

ज्योतिषी : है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।

तेज : सो क्यों?

ज्योतिषी : इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहां न कहेंगे।

तेज : तो वहां दरवाज़े पर पट्टी बांधनी पड़ेगी क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा देकर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर अस्कत वश उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बन्द करने में ज़रा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बताएंगे।

ज्योतिषी : मैं तो अपनी आंखों पर पट्टी न बंधाऊंगा और उस तहखाने में भी ज़रूर जाऊंगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।

तेजः वाह! क्या खूब! भला कुछ हाल मालूम हो!

ज्योतिषीः हाल क्या, बस पौ बारह हैं! कुमारी चन्द्रकान्ता को वहीं दिखा दूंगा!!

तेज : हां! सच कहो!!

ज्योतिषी : अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।

तेज : खूब कही, तुम्हें मार डालूंगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, ब्रह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी!

ज्योतिषीः इसका भी ढंग मैं बता देता हूं जिससे तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।

तेज : वह क्या?

ज्योतिषी : कुछ मुश्किल नहीं, पहले मुसलमान कर डालना तब हलाल करना।

ज्योतिषीजी की बात पर तेजसिंह हंस पड़े और बोले, ‘‘अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी ज़रूरी है।’’

दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुंचे। ज्योतिषीजी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुंह में हाथ डाल उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।

दरवाज़े के दोनों तरफ दो पत्थर संगमरमर के दीवार से साथ जड़े हुए थे। दाहिनी तरफ के संगमरमर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने ज़ोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज़ हुई और वह पत्थर दीवार के अन्दर घुस कर ज़मीन के साथ सट गया छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक सांप चक्कर मारे बैठा दिखा जिसकी गर्दन पकड़ कर दो दफा पेंच की तरह घुमाया, दरवाज़ा खुल गया। महारानी की गठरी लिये हुए तेजसिंह और ज्योतिषी अन्दर गये, भीतर से दरवाज़ा बन्द कर लिया। भीतर दरवाज़े के बायीं तरफ दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डालके तेजसिंह ने कुछ किया, जिसका हाल ज्योतिषीजी को मालूम न हो सका।

ज्योतिषीजी ने पूछा, ‘‘इसमें क्या है?’’ तेजसिंह ने ज़वाब दिया, ‘‘इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बन्द हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी थी और जिसके अन्दर सांप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बन्द करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाज़े के बाहर की गई थी।’’

दरवाज़ा बन्द कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जाकर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाये और कहा, ‘‘हमारे साथ-साथ चली आइए। आपको महाराज के पास पहुंचा दें।’’ महारानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं, तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ‘‘बताइए, चन्द्रकान्ता कहां हैं?’’ ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘मैं पहले कभी इसके अन्दर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूंढ़िए, चन्द्रकान्ता भी दिखाई दे जायेंगी।’’

घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूंढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुंचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। एकाएक सभी की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोंके पर खड़े ऊपर की तरफ मुंह किये कुछ देख रहे थे।

महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़कर रोती हुईं महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठाकर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी नाले से पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुंचे।

ज्योतिषीजी को देखते ही महाराज ने पूछा, ‘‘क्यों जी, तुम यहां कैसे आये? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फंस गये?’’ ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘नहीं, तेजसिंह के हाथ क्यों फंसेंगे, हां इन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेन्द्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।’’

ज्योतिषीजी की बात सुनकर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आंखें कर उनकी तरफ देखने लगे।

ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहां जी में आया रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक़्त यह भी न सोचा कि यह ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल आंखें करके देखते हैं!!’’

ज्योतिषीजी की बात सुनकर महाराज शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ ज़वाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज़ आई–‘‘तेजसिंह!’’

तेजसिंह ने सिर उठाकर देखा जिधर से आवाज़ आई थी, चन्द्रकान्ता पर नज़र पड़ी जिसे देखते ही इनकी आंखों से आंसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुंह कुम्हला गया है, बदन पर मैल चढ़ी हुई, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी ‘तेजसिंह, तेजसिंह’ पुकार रही है।

तेजसिंह उस तरफ दौड़े और चाहा कि पहाड़ पर चढ़कर कुमारी के पास पहुंच जायें मगर हो न सका, कहीं रास्ता न मिला, बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार होकर उपर चढ़ने के लिए कमन्द फेंकी मगर वह चौथाई दूरी भी न गई, ज्योतिषीजी से कमन्द लेकर अपने कमन्द में जोड़कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुंची। हर तरह की तरकीबें की मगर कोई मतलब न निकला, लाचार होकर आवाज़ दी और पूछा, ‘‘कुमारी आप यहां कैसे आईं?’’

तेजसिंह की आवाज़ कुमारी के कान तक बखूबी पहुंची मगर कुमारी की आवाज़ जो बहुत बारीक थी, तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ ज़वाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हां इतना समझ पड़ा–‘‘किस्मत लाई, किसी तरह निकालो!’’

हाय, हाय, कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते! यह सोच तेजसिंह बहुत घबराये, मगर इससे क्या हो सकता था। कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हां यह मालूम होता था कि कोई बोल रहा है। तेजिसिंह ने फिर आवाज़ दी और कहा, ‘‘आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूं जिससे आप नीचे उतर आवें।’’ इसके ज़वाब में कुमारी मुंह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्ते जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्ते पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा कपड़ा फाड़, उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बांध इस अंदाज में फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूंढ़कर निकाला और गिरह खोली, पत्ते पर गौर से निगाह डाली, लिखा था, ‘‘तुम जाकर पहले कुमार को यहां ले आओ।’’

तेजसिंह ने ज्योतिषी को वह पत्ता दिखलाया और कहा, ‘‘आप यहां ठहरिए, मैं जाकर कुमार को बुला लाता हूं, तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें।’’ ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूं।’’

इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह न जान सकीं कि कुमारी ने पत्ते पर क्या लिखकर फेंका और तेजसिंह कहां चले गये, तो भी महारानी को चन्द्रकान्ता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगाकर देखती रहीं। तेजसिंह वहां से चलकर फाटक खोल-खोल के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

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