नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
आठवाँ दृश्य
(जालपा का कमरा। सबेरे नौ– साढ़े नौ का समय है। जालपा बाहर है। कमरा स्वच्छ है। वैसा कोई विशेष परिवर्तन नहीं है। इस समय परदा उठा हुआ है। रमानाथ अभी– अभी आया है। बहुत चिंतित है। कुर्सी पर ठोड़ी टिका कर बैठ जाता है। उसका सुन्दर मुख पीला पड़ा हुआ है।)
रमानाथ—(स्वगत) सबने जवाब दे दिया। तीन सौ रुपये मुझे आज ही जमा करने पड़ेंगे। बाबू ने कह दिया है कि आज जमा न हुए तो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायेंगी कहते थे कल रुपये न आये तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया, वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियाँ होतीं…तो अब क्या करूं अब जालपा से ही कहना पड़ेगा…कैसे कहूँ,….(कई क्षण सोचता है; फिर सहसा चमक कर उठता है) क्यों न जालपा को एक पत्र लिख कर अपनी सारी कठिनाइयाँ कह सुनाऊँ। हां….यह ठीक रहेगा।
(वह शीघ्रता से कलम– दवात उठा कर पत्र लिखने बैठ जाता है—)
‘प्रिये! क्या कहूँ। किस विपत्ति में फँस गया हूँ। अगर एक घंटे के अंदर तीन सौ रुपये का प्रबंध न हो गया तो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायेंगी। मैंने बहुत कोशिश की कि किसी से उधार ले लूँ, किन्तु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने एक– दो जेवर दे दो तो मैं गिरवी रख कर काम चला लूँ। ज्यों ही रुपये हाथ में आजायेंगे, छुड़ा दूँगा। अगर मजबूरी न आ पड़ती तो तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना। मैं बहुत जल्दी छुड़ा दूंगा।’
(इसी समय जालपा वहाँ आती है। रमा शीघ्रता से पत्र को जेब में डालता है। जालपा ने अपनी सबसे सुन्दर साड़ी पहनी है। हाथों में जड़ाऊ कंगन, गले में चंद्रहार और कानों में झुमके पहने हैं। रमा को देख कर एकदम बोली—)
जालपा—आज सबेरे कहाँ चले गये थे? हाथ– मुँह तक न धोया। दिन भर तो बाहर रहते ही हो, शाम– सबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते, तो घर सूना– सूना लगता है। मैं अभी सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े, तो जाऊँ या न जाऊँ। मेरा जी तो वहाँ बिल्कुल न लगे।
रमा—(टकटकी लगा कर) तुम तो अभी कहीं जाने को तैयार हो।
जालपा– (मुस्करा कर) सेठानी जी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊँगी।
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