नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ—(साँस खींच कर) हाय! इस सरला के साथ में कैसा छल कर रहा हूँ! अगर मैं अब भी इससे सारी स्थिति कह सुनाऊँ तो यह अवश्य मेरे साथ सहानुभूति दिखाएगी। उसे चाहे कितना ही दुःख हो, पर गहने निकाल कर देने में वह एक क्षण का भी विलम्ब न करेगी। गहनों को गिरवी रख कर सरकारी रुपये अदा कर सकता हूँ। नहीं तो आज ही यह बात घर– घर फैल जायगी—सरकारी रुपया खा गया और पकड़ा गया। (काँप कर)…पकड़ा गया…ओह, इससे तो मर जाना अच्छा है; पर तब तो लोग कहेंगे, सरकारी रुपया खाया और जब पकड़ा गया तो आत्महत्या कर ली…..ओह अब तो पररदा खोलना पड़ेगा। जालपा से कहना पड़ेगा। इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं। लेकिन उसके गहने जायेंगे, वह दुःखी होगी….मैंने इसे आराम ही कौन– सा पहुँचाया! किसी दूसरे से विवाह होता तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आयी, जहाँ कोई सुख नहीं। उलटे और रोना पड़ा।
(रमानाथ यही सोचता– सोचता उठ कर चला जाता है। वहाँ सन्नाटा छा जाता है। एक क्षण बाद जालपा थाल लिये आती है। और रमानाथ को गया जान कर दुःखी हो जाती है।)
जालपा—(स्वगत) गये। बात क्या है! मुझे कुछ बताते क्यों नहीं! मैं कुछ न कर सकूँ, हमदर्दी तो कर ही सकती हूँ। पर ऐसी क्या बात है? क्यों मुझसे छिपाते हैं? क्यों मुझे अपने दिल की बात बताने योग्य भी नहीं समझते?
(उसका मन भर आता है। कई क्षण थाली लिये खड़ी रहती है, फिर चुपचाप लौट जाती है। उसकी आँखों से आंसू टपकने लगते हैं।)
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