नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
प्यादा—हम बिना कुछ लिये न जायेंगे, साहब। आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती हैं।
(रमा कुद्ध हो उठता है।)
रमानाथ—मैं कहता हूँ चले जाओ नहीं तो धक्के दे कर निकाल दिये जाओगे।
प्यादा—हमारे रुपये दिलवाइए, हम चले जायँ। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है?
रमानाथ—तुम न जाओगे। जाओ, लाला से कह देना नालिश कर दें।
दयानाथ—(डाँट कर) क्यों बेशर्मी की बात करते हो जी। जब गिरह में रुपये न थे, तो चीजें लाये ही क्यों? और जब लाये तो जैसे बने वैसे रुपये अदा करो।
रमानाथ—(तिनक कर) कर दूँगा!
दयानाथ—कब कर दोगे? माँगने आया तो कह दिया नालिश कर दो। नालिश कर देगा तो कितनी आबरू रह जायगी! सारे शहर में उँगलियाँ उठेंगी, मगर तुम्हें इसकी क्या परवा? तुमको यह सूझी क्या कि एक बारगी इतनी बड़ी गठरी सिर पर लाद ली? कोई शादी– ब्याह का अवसर होता, तो एक बात थी (रमानाथ चिनचिनाता है पर वे तेजी में कहे जाते हैं) और वह औरत कैसी है जो पति को ऐसी बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आखिर तुमने क्या सोचकर कर्ज लिया? तुम्हारी ऐसी कुछ बड़ी आमदनी तो नहीं है।
रमानाथ—(तिलमिला कर) आप नाहक इतना बिगड़ रहे हैं, आप से रुपये माँगने जाऊँ तो कहिएगा। मैं अपने वेतन से थोड़ा– थोड़ा करके सब चुका दूंगा।
दयानाथ—चुका दोगे! अब तक क्यों नहीं चुकाया?
रमानाथ—मैं कहता हूँ मैं चुका दूँगा। आप…
(प्यादा उन्हें झगड़ते देखकर जाता है।)
दयानाथ—मैं इसलिए कहता हूँ कि इसमें मेरी आबरू जाती है। खानदान की इज्जत पर बट्टा लगता है।
रमानाथ—जब लगे तब कहिएगा।
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