नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
सातवाँ दृश्य
(वही मर्दाना बैठक। कोई विशेष परिवर्तन नहीं है। दफ्तर जाने का समय होने वाला है। मुंशी दयानाथ स्नान कर चुके हैं और कपड़े पहन कर अन्दर जाने को मुड़ते हैं कि तभी बाहर से एक सेठ का प्यादा पुकारता आता है।)
प्यादा—(प्रवेश करता हुआ) बाबू जी, सेठ ने रुपये के लिए भेजा है।
दयानाथ—(मुड़ कर) कौन सेठ, कैसे रुपये? मेरे यहाँ किसी के रुपये नहीं आते।
प्यादा—छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठ जी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रुपये दिये तो क्या दिये। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।
दयानाथ—(क्रुद्ध हो कर पुकारता है) रमा… रमानाथ….
(रमानाथ की आवाज आती है)
रमानाथ—आता हूँ (रमानाथ का प्रवेश) क्या बात है?
दयानाथ—देखो किस सेठ का आदमी आया है। उसका कुछ हिसाब बाकी है, साफ क्यों नहीं कर देते? कितना बाकी है?
प्यादा—(बीच में बोल उठता है) पूरे सात सौ हैं बाबू जी।
(सुन कर दयानाथ काँप उठते हैं; आँखें फैल जाती हैं।)
दयानाथ—सात सौ! क्यों जी, यह तो सात सौ कहता है।
रमानाथ—(टालने के भाव से) मुझे ठीक से मालूम नहीं है।
प्यादा मालूम क्यों नहीं? पुरजा मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं, कम कहाँ से हो गये?
रमानाथ—(जोर से) चलो तुम दुकान पर। मैं खुद आता हूँ।
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