नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा—तो मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूँ। जब मैं यहाँ आयी तो यद्यपि तुम्हें अपना पति समझती थी, लेकिन बात कहते या करते समय चिंता रहती थी कि तुम उसे पसंद करोगे या नहीं।
रमानाथ—लेकिन मैंने तो कभी तुम्हारी बात को नापसंद नहीं किया।
जालपा– सुनो तो, यदि तुम्हारे बदले मेरा विवाह किसी दूसरे पुरुष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा वही व्यवहार होता। यह पत्नी और पुरूष का रिवाजी नाता है, अब मैं तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूँगी।
रमानाथ—सच?
जालपा—और क्या झूठ कहती हूँ? लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी चोर है। तुम अब भी मुझसे किसी– किसी बात में पर्दा रखते हो।
रमानाथ—यह तुम्हारी केवल शंका है। मैं दोस्तों से भी कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी हृदयेश्वरी हो।
जालपा—मेरी तरफ देख कर बोलो, आँखें नीची करना मर्दों का काम नहीं है।
रमानाथ—(गिरा स्वर), नहीं, यह बात तो नहीं है।
जालपा—फिर इतने सुस्त क्यों हो? हाँ, सराफों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे।
रमानाथ—अब थोड़े ही बाकी होंगे, कुछ हिसाब– किताब लिखते हो?
रमानाथ—हाँ लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।
जालपा—तब तो पूरी गठरी है।
जालपा— मैंने कहा तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिये।
(यह सुनकर रमानाथ एक दम काँप उठता है। जालपा देख नहीं पाती। इतनी देर में रमानाथ सँभल जाता है और झूठा आत्म– गौरव उसे अब भी सच्ची बात कहने से रोकता है। मुँह बना कर कहता है—)
रमानाथ—रतन के रुपये क्यों देता? आज चाहूँ तो दो– चार हजार का माल ला सकता हूँ कारीगरों की आदत देर करने की ही है। सोनार की खटाई मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो तैयार ही लाऊँगा या रुपये वापस कर दूँगा। मगर यह शंका तुम्हें क्योंकर हुई? रतन की रकम भला अपने खर्च में कैसे लाता?
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