नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ—बस दस दिन में उसे कंगन मिल जायेंगे।
(रमानाथ करवट बदल कर सोने का नाट्य करता है। जालपा भी लेट जाती है। कुछ क्षण शांति रहती है। जालपा सो जाती है। रमानाथ करवटें बदलता रहता है।)
रमानाथ—(स्वगत) यदि आज कोई एक हजार का रुक्का लिख कर पाँच सौ रुपये भी दे देता तो मैं निहाल हो जाता, पर अपनी जान– पहचान वालों में ऐसा कोई नजर ही न आता। मैंने नाहक सराफ को रुपये दिये। नालिश तो वह क्या करता…अब तो दस दिन में कहीं से भी हो आठ सौ रुपये चाहिए। कहाँ से आयें….मुझे कोई भयंकर रोग ही हो जाए कहीं से कोई तार ही आ जाय…
(बार– बार करवटें बदलता है। सहसा जालपा की आँखें खुल जाती हैं। वह गरदन उठा कर पति को देखती है। रमानाथ चादर में मुँह छिपा लेता है, मानो बेखबर सो रहा हो। जालपा धीरे से चादर हटा कर मुँह देखती है, फिर धीरे से हिला कर बोलती है।)
जालपा—क्या अभी तक जग रहे हो?
रमानाथ—क्या जाने क्यों नींद नहीं आ रही! पड़े– पड़े सोचता था कि कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चला जाऊँ। कुछ रुपये कमा लाऊँ।
जालपा– मुझे भी लेते चलेंगे न?
रमानाथ —तुम्हें परदेश में कहाँ लिये लिये फिरूँगा!
जालपा—तो मैं यहाँ अकेली रह चुकी। एक मिनट भी मुझसे नहीं रहा जाएगा। मगर जाओगे कहाँ?
रमानाथ—अभी कुछ निश्चय नहीं कर सका।
जालपा– तो क्या सचमुच तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे? मुझसे तो एक दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गयी, तुम मुझसे मुहब्बत नहीं करते। केवल मुँह देखे की प्रीति करते हो।
रमानाथ—तुम्हारे प्रेम– पाश ही ने बाँध रखा है। नहीं तो अब तक कभी का चला गया होता।
जालपा—बातें बना रहे हो। अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता तो तुम कोई पर्दा न करते। तुम्हारे मन में कोई ऐसी जरूरी बात है जो तुम मुझसे छिपा रहे हो। कई दिनों से देख रही हूँ, तुम चिंता में डूबे रहते हो। मुझसे क्यों नहीं कहते! जहाँ विश्वास नहीं है, वहाँ प्रेम कैसे रह सकता है?
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