नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 336 पाठक हैं |
‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
तीसरा दृश्य
(रात का अंधकार छाता जा रहा है। आसमान में तारे चमक रहे हैं। छत पर दो चारपाइयाँ बिछी हैं। एक पर रमानाथ बैठा है, दूसरी खाली है। रमानाथ बहुत गम्भीर है। उसके मुख पर गहरी वेदना है, जो अंधकार के कारण दिखायी नहीं देती, पर उसके बैठने का भाव उसकी चिंता को प्रकट करता है। वह धीरे– धीरे बोलता है।)
रमानाथ—(स्वगत) अब क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आता रतन के तकाजों के मारे मैं तंग आ गया, पर, सराफ तो सुनता ही नहीं। अब तक हीले करके टालता रहा। कभी कारीगार बीमार पड़ जाता है, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता है, कभी उसके लड़के बीमार हो जाते हैं (साँस ले कर) और फिर रतन के छह सौ रुपये जो उसने मेरे पिछले हिसाब में जमा कर लिये। उसके कंगन तब बनेंगे जब आधा रुपया पेशगी मिलेगा…और पिछला हिसाब साफ होगा (साँस ले कर) अब छह सौ रुपया कहाँ से आये! इधर रतन तेज हो रही है। रुपया माँगती है।
(जालपा का प्रवेश, रमानाथ लेट जाता है।)
जालपा—रतन आयी थी।
रमानाथ—(नहीं बोलता)
जालपा—मैंने कहा, रतन आयी थी।
रमानाथ—(एकदम) रतन आयी थी! कंगन को कहती होगी। जालपा—हाँ! कहती थी अगर वह सुनार नहीं बना कर देता तो तुम किसी और कारीगर को क्यों नहीं देते!
रमानाथ—क्या बताऊँ, उस पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो। बस रोज आज– कल किया करता है। मैंने बड़ी भूल की, जो उसे पेशगी रुपये दे दिये। अब उससे रुपये निकालना मुश्किल है।
जालपा—रतन कहती थी और ठीक कहती थी, ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए। सभी सोनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं कि रुपये डकार जायें और चीजों के लिए महीनों दौड़ायें।
रमानाथ—मैंने उनसे कह दिया है कि दस दिन और सब्र करें। मैं कल रुपये लेकर दूसरे सराफ को दे दूँगा।
जालपा—और क्या, यही करना। कौन हैरान हो। आप ढीले पड़ जाते हैं। मुझे तो बुरा लगता है। रतन बार– बार आती है। और उसका आना भी ठीक है। नगद छह सौ दे गयी थी। दो महीने होने को आये।
|