नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा—वही तो बहन! कितना चाहती हूँ कि दुबली हो जाऊँ! गरम पानी से टब– स्नान करती हूँ, रोज पैदल घूमने जाती हूँ, घी– दूध बहुत कम खाती हूँ, भोजन आधा कर दिया है। जितना परिश्रम करते बनता है करती हूँ, फिर भी दिन– दिन मोटी ही होती जाती हूँ। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूँ।
जालपा—वकील साहब तुमसे चिढ़ते होंगे।
रतन—नहीं बहन, बिलकुल नहीं; भूल कर भी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुंह से कभी एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा प्रकट होती; पर मैं जानती हूं कि यह चिन्ता उन्हें मारे डालती है।
जालपा—चिंता तो ठीक ही है बहन!
रतन—क्या करूँ, अपना कोई बस नहीं! मैं जितना चाहूँ खर्च करूँ जैसे चाहूँ रहूँ। जो कुछ पाते हैं ला कर मेरे हाथ पर रख देते हैं। समझाती हूँ, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत है, आराम क्यों नहीं करते!
जालपा—हां बहन, उनका स्वास्थ्य अब इनता काम करने लायक नहीं। उन्हें तो घर बैठना चाहिए।
रतन—मैं भी यही कहती हूँ पर इनसे घर पर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दो चपातियों से नाता है। बहुत जिद की तो दो– चार दाने अंगूर खा लिये। मुझे तो उन पर दया आती है। अपने से जहाँ तक हो सकता है उनकी सेवा करती हूँ। आखिर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।
जालपा—ऐसे पुरुष को देवता समझना चाहिए! यहाँ तो एक स्त्री मरी नहीं कि दूसरा विवाह रचा लिया। तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं!
रतन—हाँ, बहन! हैं तो देवता ही। अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती है, तो रोने लगते हैं। तुम्हें उसकी तस्वीर दिखाऊँगी। देखने में जितने कठोर मालूम होते हैं भीतर से इनका हृदय उतना ही नर्म है। कितने ही अनाथों, विधवाओं और गरीबों के महीने बाँध रखे हैं।
जालपा—तब तो सचमुच उनका दिल बहुत बड़ा है।
रतन—बड़ा तो है ही। हाँ बहन, तुम्हारा यह कंगन तो बड़ा सुंदर है।
जालपा—तुम्हें पसंद है? एक बड़े अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।
रतन—लगता तो है। क्यों बहन, क्या तुम बाबू रामनाथ से मेरे लिए ऐसा ही एक जोड़ा कंगन बनवा दोगी? मैं तो किसी को जानती नहीं। वकील साहब को गहना के लिए कष्ट देने की इच्छा नहीं होती।
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