नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
दूसरा दृश्य
(एक सुंदर बँगले का पृष्ठ भाग। एक छोटा– सा बगीचा। सूर्य अस्त हो चला है। संध्या की रक्तिम आभा के कारण वातावरण में आलस सौंदर्य बिखरा पड़ा है। पक्षी प्रायः मौन हैं। दो नारियाँ सुंदर– सुंदर वस्त्र और गहने पहने बातें करती घूम रही हैं। एक तो जालपा है। दूसरी वकील साहब की पत्नी रतन। रतन का रंग साँवला है पर शरीर सुगठित है। उसे सुंदर नहीं कह सकते। चिपटी नाक, गोल मुख, छोटी आँखें। पर चेहरे पर ऐसी मुस्कराहट है कि रानी– सी लगती है। स्वभाव से निष्कपट और मिलनसार है। चलते– चलते वे एक चबूतरे पर सट कर बैठ जाती हैं और बातें करती हैं)
रतन—(मुस्करा कर) मेरे पतिदेव को देख कर तुम्हें बड़ा आश्चर्य हुआ होगा!
जालपा—(लजा कर) बहन, बुरा न मानो तो मुझे भ्रम भी हुआ!
रतन—बुरा मानने की क्या बात है। उन्हें देख कर भ्रम हो जाना स्वाभाविक है।
जालपा—वकील साहब का दूसरा विवाह होगा!
रतन—हां, अभी पाँच ही बरस तो हुए हैं। इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वर्ष हो गये। उस समय उनकी अवस्था कुल पच्चीस साल की थी। लोगों ने समझाया दूसरा विवाह कर लो, पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह करने से इन्कार कर दिया और तीस साल तक अकेले रहे।
जालपा—बड़ी अद्भुत कहानी है। फिर क्या हुआ?
रतन—फिर उनके जवान बेटे का देहांत हो गया।
जालपा—(करुणा से) ओह!
रतन—तब विवाह करना आवश्यक हो गया। मेरे माँ– बाप न थे। मामा जी ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती इनसे कुछ ले लिया या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गये। मैं तो समझती हूँ, ईश्वर की यही इच्छा थी।
जालपा—हाँ बहन! उसकी आज्ञा बिना पत्ता तक नहीं हिलता। डाक्टरों का कहना है कि तुम्हें संतान नहीं हो सकती। बहन, मुझे तो संतान की लालसा नहीं है। लेकिन मेरे पति मेरी दशा देख कर बहुत दुखी रहते हैं। मैं ही इनके रोगों की जड़ हूँ आज ईश्वर मुझे एक संतान दे दे तो इनके सब रोग भाग जायँ।
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