नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– तुम ठीक कहती हो। तुमसे यही आशा है। तो भी ईश्वर ने चाहा तो एक– दो महीने में कोई चीज बन जायगी।
जालपा– मैं उन स्त्रियों में नही हूँ, जो गहनों पर जान देती हैं। हाँ, इस तरह किसी के घर आते– जाते शर्म आती है।
(फिर सन्नाटा। दोनों जैसे कुछ सोचते हैं, फिर रमानाथ कहता है– )
रमानाथ– तुमसे एक सलाह करना चाहता हूँ। पूछूँ या न पूछूँ?
जालपा– (उबासी ले कर आँख बंद करती हुई) अब सोने दो भई, सबेरे उठना है।
रमानाथ– अगर तुम्हारी राय हो, तो किसी सराफ से वादे पर गहने बनवा लाऊँ। इसमें कोई हर्ज तो है नहीं।
जालपा– (अविश्वास से) मैं तो गहने के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ।
रमानाथ– नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है कि किसी सराफ से चीजें ले लूँ। धीरे– धीरे उसके रुपये चुका दूँगा।
जालपा– (दृढ़ता से) नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूँ कि तुम्हें नोच खसोट कर अपना रास्ता लूँ। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बे गहनों के रहना पड़े तो भी मैं कर्ज लेने को न कहूँगी, लेकिन तुमने तो पहिले कहा था कि जगह बड़ी आमदानी की है। मुझे तो कोई विशेष बचत नहीं दिखाई देती।
रमानाथ– बचत तो जरूर होती है और अच्छी होती लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने पाये। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले नहीं मालूम था की यहाँ इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।
जालपा– तो अभी कौन– सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे– धीरे।
रमानाथ– खैर तुम्हारी सलाह है तो एक– आध महीने और चुप रहता हूँ। वैसे मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊँगा।
जालपा– (गद्गद् होकर) तुम्हारे पास अभी इतने रुपये कहाँ होंगे?
रमानाथ– इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसे कंगन पसंद है?
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