नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
छठा दृश्य
(वही कमरा। उसके परदे पलटे जा चुके हैं। छोटी मेज भी है, खिलौने भी हैं। लैम्प भी नया आया है जो इस समय जल रहा है। जालपा चारपाई पर लेटी है, लेकिन उदास है। आखों में आँसू भी हैं। आधी रात बीत चुकी है पर सोयी नहीं है। हाथ में एक सूची पत्र लिये देख रही है। गहनों का सूचीपत्र है। पन्ने पलटती है। किसी चीज को गौर से देखती है, फिर आह भरती है।)
जालपा– (स्वगत) तीन महीने बीत गये। तीन महीने! कुछ भी नहीं हुआ। दफ्तर में कहते हैं बड़ा रोब है। सब खुश हैं, पर मेरा भाग्य! (साँस ले कर) मुझे एक भी गहना नसीब नहीं आया। बस अम्माँ तो कहने आ जाती हैं– बहू जन्माष्टमी का बुलावा आया है, पर यह नहीं सोचती कि मैं किस मुँह से जाऊँ। अच्छा, मैं भी किसी से नहीं कहूँगी। उनसे भी नहीं कहूँगी।
(तभी बाहर आहट होती है। जालपा सूचीपत्र को छिपा लेती है। रमानाथ हँसता हुआ प्रवेश करता है।)
रमानाथ– बड़ा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गयीं, बड़ी गलती की।
जालपा– (मुँह फेर लेती है।)
रमानाथ– यहाँ अकेले पड़े– पड़े तुम्हारा जी घबराता रहा होगा।
जालपा– (तीव्र होकर) तुम कहते हो, मैंने गलती की; मैं समझती हूँ मैंने अच्छा किया। वहाँ किसके मुँह में कालिख लगती?
रमानाथ– (लज्जित हो कर) कालिख लगने की कोई बात न थी। सभी जानते हैं कि चोरी हो गयी है, और इस जमाने में दो चार– हजार के गहने बनवा पाना मुँह का कौर नहीं है!
(जालपा फिर चुप रहती है। रमानाथ घबरा कर देखता है। एक गहरा सन्नाटा रहता है। फिर एक गहरी साँस लेकर बोलता है– )
रमानाथ– यह कौन जानता था कि डोली से उतरते ही यह विपत्ति तुम्हारा स्वागत करेगी?
जालपा– (आँसू भर आते हैं) तो मैं तुमसे गहने के लिए रोती नहीं हूँ। जो भाग में लिखा था, वह हुआ। और आगे भी वही होगा जो लिखा है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं क्या उनके दिन नहीं कटते?
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