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भूतनाथ - खण्ड 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8364
आईएसबीएन :978-1-61301-022-8

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भूतनाथ - खण्ड 5 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


फौलादी पंजा जब उस कमसिन औरत को लेकर उस कूएँ के अन्दर चला गया तो भूतनाथ भी अपने को रोक न सका और उसी कुएँ में कूद पड़ा। ताज्जुब की बात थी कि इस समय वह कुआँ बहुत गहरा नहीं मालूम हुआ और उसमें ज्यादा पानी भी न मिला। सैकड़ों ही दफे भूतनाथ को इस कूएँ से काम लेने का मौका मिल चुका था और वह अच्छी तरह जानता था कि यह बहुत गहरा है और इसमें पानी भी अथाह है परन्तु इस समय उसे पानी की गहराई दो हाथ से ज्यादा न मालूम हुई फिर भी भूतनाथ को चोट कुछ भी न आई।

किसी तरह की बहुत ही मुलायम चीज पर उसके पैर पड़े जो एक तरफ को ढालुआँ भी थी और इसी कारण इसके पहिले कि वह सम्हले या आपने को रोक सके, फिसल कर एक तरफ को ढुलक गया। कूएँ की एक तरफ की दीवार में एक छोटा रास्ता बना हुआ था जिसके अन्दर ढाल के कारण वह खुद-बखुद चला गया और उसके जाते ही वह दरवाजा आप से आप ही बन्द भी हो गया।

इस जगह पर घोर अन्धकार था। भूतनाथ कुछ देर तक तो चुपचाप रहा पर शीघ्र ही उसने होश सम्हाले और बटुए में से सामान निकालकर रोशनी की। उस समय उसे मालूम हुआ कि वह एक लम्बी-चौड़ी जगह के अन्दर है जिसके चारों तरफ कई दरवाजे जो सभी बन्द थे दिखाई पड़ रहे हैं। भूतनाथ सोचने लगा कि वह औरत जिसने उसके मन पर इस कदर काबू कर लिया था कहाँ होगी? मगर इसी समय उसका सन्देह आप से आप दूर हो गया जब यकायक एक दरवाजे के अन्दर से किसी औरत के चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी। भूतनाथ फौरन उठ खड़ा हुआ और पूरब तरफ वाले दरवाजे के पास हाथ से धक्का देते ही वह दरवाजा खुल गया और भूतनाथ ने उस औरत को अन्दर ही पाया मगर बड़ी ही विचित्र अवस्था में। भूतनाथ ने देखा कि उस कोठरी की दीवार के साथ बहुत ही बड़ी लोहे की मूरत बनी हुई है जो इतनी बड़ी है कि बैठी होने पर भी उसका सर कोठरी की छत के पास तक पहुँच रहा है और इस मूरत ने एक हाथ से बेचारी उस औरत की कमर पकड़ी हुई है। भूतनाथ को देख उस औरत ने चिल्लाना और छटपटाना बन्द कर दिया और हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘किसी तरह मेरी जान इस बेरहम से बचाओ।’’

भूतनाथ ने यह सुन कोठरी के अन्दर घुसना चाहा पर तुरन्त ही औरत ने चिल्ला कर कहा, ‘‘खबरदार, भीतर पैर न रखना नहीं तो मेरी तरह तुम भी कैद हो जाओगे।’’ भूतनाथ झिझक कर रुक गया। जो कुछ हालत यहाँ उसने देखी उससे इतना तो उसे विश्वास हो गया कि यह जरूर किसी न किसी तरह का तिलिस्म है जिसमें वह औरत फँसी हुई है, अस्तु इसमें खुद भी फँस कर लाचार हो जाना बुद्धिमानी नहीं थी।

आखिर उसने पूछा, ‘‘तुम यहाँ क्योंकर फँस गई और कैसे छूट सकती हो?’’

औरत ने आँसुओं से तर आँखों को अपने आँचल से पोंछा और कहा, ‘‘क्योंकर फँसी यह तो एक लम्बी कहानी है जिसे इस समय सुनने से कोई फायदा न होगा हाँ अगर आपको मेरी हालत पर कुछ तरस आता हो तो और आप मेरे छुड़ाने के लिए कुछ तकलीफ उठा सकें तो मैं अपने छूटने का उपाय बता सकती हूँ।’’

भूत० : हाँ हाँ, जल्दी बताओ, मैं दिलोजान से तुम्हें छुड़ाने की कोशिश करूँगा।

औरत : अच्छा तो सुनिये फिर। नौगढ़ के राजा बीरेन्द्रसिंह के पास एक तिलिस्मी किताब है जिसे लोग ‘रिक्तगंथ’ कहते हैं। वह किताब उन्हें चुनार के तिलिस्म से मिली थी। अगर आप वह किताब ले आ सकें तो उसकी मदद से मुझे सहज ही में छुड़ा सकते हैं। औरत की बात सुन भूतनाथ गौर में पड़ गया। रिक्तगन्थ का नाम वह बखूबी सुन चुका था और उसके बारे में बहुत कुछ जानता भी था, परन्तु इस समय औरत के मुँह से रिक्तगन्थ का नाम सुन उसे बहुत अचम्भा हुआ क्योंकि उसे मालूम था कि जिसे तिलिस्म और तिलिस्मी बातों से कुछ सरोकार है वही उस किताब का नाम जान सकता है।

भूतनाथ गौर में पड़ गया कि क्या इस औरत का तिलिस्म से भी कोई सम्बन्ध हो सकता है। आखिर उसने पूछा, ‘‘तुम्हें उस खूनी किताब का हाल कैसे मालूम हुआ?’’

औरत : यह भी मैं आपको तभी बताऊँगी जब आप वह किताब मेरे सामने ले आवेंगे, अभी कुछ कहना-सुनना व्यर्थ है।

भूत० : जब तुम उस किताब का नाम जानती हो तो जरूर यह भी जानती होगी कि वह कैसी भयानक है और साथ ही यह भी मालूम होगा कि कैसे प्रतापी के कब्जे में वह है, इसलिए उसका लाना कितना कठिन है यह भी तुम समझ ही सकती होगी, क्या कोई और उपाय तुम्हारे छुड़ाने का नहीं हो सकता?

औरत : (टेढ़ी निगाह से भूतनाथ की तरफ देख कर) मुझे सन्देह होता है कि आप मुझे धोखा दे रहे हैं?

भूत० : (ताज्जुब से) धोखा कैसा!

औरत : यही कि आप वास्तव में भूतनाथ नहीं हैं, केवल मुझे भुलावा देने के लिए आप अपने को इस नाम से पुकार रहे हैं।

भूत० : (हँस कर) यह सन्देह तुम्हें क्योंकर हुआ?

औरत : यह कभी सम्भव ही नहीं कि भूतनाथ ऐयार और किसी काम को असम्भव कहे! जिस बहादुर ने अपने अद्भुत कामों से जमाने भर में हलचल मचा रक्खी है वह एक ऐसे साधारण काम से जी चुरावे यह हो नहीं सकता।

इनता कह उस औरत ने टेढ़ी निगाह से भूतनाथ को इस तरह देखा कि उसका मन एकदम हाथ से जाता रहा। वह कुछ देर तक न जाने क्या सोचता रहा तब उसने मतलब से भरी निगाह उस औरत पर डाली जिसे देख उसने अपना सिर झुका लिया पर साथ ही उसके होठों पर हँसी की मुस्कुराहट भी दिखाई देने लगी। भूतनाथ ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘खैर मैं उस किताब को लाने की कोशिश करूँगा पर कम से कम इतना तो बता ही दो कि अगर हम उसको लाने में सफल न हुए तो उस हालत में तुम्हें छुड़ाने का कोई और भी उपाय हो सकता है या नहीं?’’

वह औरत यह बात सुन गौर में पड़ गई और कुछ देर बाद बोली, ‘‘एक तरकीब और हो सकती है पर शायद आप उसे मंजूर न करें।

भूत० : वह क्या?

औरत : जमानिया के दारोगा साहब के पास एक छोटी किताब है जिसमें इस जगह का हाल लिखा हुआ है। अगर आप उस किताब को उनसे माँग लें तब भी शायद मैं छूट सकूँ।

भूत० : यह तो पहली बात से भी कठिन है।

औरत : (उदास होकर) हाँ कठिन तो जरूर ही है, और फिर एक बेकस गरीब औरत को छुड़ाने के लिए कोई इतनी तकलीफ उठावेगा भी क्यों?

भूत० : नहीं-नहीं, सो बात नहीं है बल्कि बात यह है कि मुझसे और दारोगा साहब से गहरी दुश्मनी है, सो वे भला मेरे लिए कोई काम क्यों करने लगे?

औरत : यह तो आप उसे समझाइए जो ऐयारों की खसलत से वाकिफ न हो, मैं खूब जानती हूँ कि वक्त पड़ने पर ऐयार लोग गधे को बाप बनाते हैं और काम निकल जाने पर दूध की मक्खी की तरह फेंक देते हैं।

औरत की बात सुन भूतनाथ हँस पड़ा और बोला, ‘‘तुम्हारा विचार है कि तुम्हारे लिए उन्हीं दारोगा साहब की खुशामद करूँ जिन्हें आजकल जूतों से ठुकरा रहा हूँ।’’

औरत : नहीं-नहीं, मैं ऐसा क्यों कहूँगी, मैं तो आपसे यह भी नहीं कहती कि मुझे यहाँ से छुड़ाइए। आप जाइये अपना काम देखिए, क्यों एक बदकिस्मत के फेर में पड़ अपना समय बरबाद करते हैं और झूठी आशाएँ दिलाकर कटे पर नमक छिड़कते हैं। जाइए जाइए, जिस तरह इतने दिन मैंने काटे हैं जिन्दगी के बाकी दिन भी उसी तरह काट लूँगी और अन्त में सिसक कर किसी बेदर्द की याद करती हुई इस दुनिया को छोड़ दूँगी।

इतना कह औरत ने सिर लटका लिया और फूट-फूट कर रोने लगी। उसके आँसुओं ने भूतनाथ के दिल पर बेतरह घाव किया और वह उसे दिलाता देता हुआ बोला, ‘‘तुम घबड़ाओ नहीं, मैं जैसे होगा वैसे तुम्हें इस भयानक जगह से छुड़ाऊँगा।

उस औरत ने धीरे-धीरे अपने को सम्हाला और रोना बन्द किया। देर तक भूतनाथ उससे बातें करता रहा और बहुत-सी बातें तथा तरह-तरह के वादे कर और कराके तभी वह उस जगह से हटा। जिस दरवाजे की राह उस जगह पहुँचा था उसको पार कर वह पुन: कूएँ की उस ढालुई सतह पर पहुँचा और वहाँ से कमन्द द्वारा बाहर हो गया।

आश्चर्य की बात थी कि जैसे ही कूएँ के बाहर हुआ, वैसे ही कूएँ के अन्दर एक शंख बजने की आवाज हुई और उसके साथ ही जो चीज कूएँ के बीचोंबीच में आ गई थीं या जिस पर गिर कर छिछले पानी में लुढ़कता हुआ वह औरत के पास जा पहुँचा था उसका अब कहीं नाम-निशान भी नहीं है और कूएँ की तह में पुन: अथाह पानी नजर आ रहा है। भूतनाथ ने यह देख धीरे से कहा, ‘‘बड़ा विचित्र कूआं है’’ और तब अपना सब सामान जिसे जगत ही पर छोड़ वह कूएं में कूदा था बटोर कर वहाँ से रवाना होने की फिक्र करने लगा।

परन्तु भूतनाथ ऐसा कर न सका। उसके कान में एक सीटी की आवाज आई जो कहीं बहुत दूर पर बजती हुई मालूम होती थी जिससे उसका दिल खटका और वह वहीं ठिठक कर सुनने लगा। आवाज पुन: आई और इस बार पहिले से कुछ इशारा किया जा रहा है। भूतनाथ चौंका, तब उसने अपने बटुए में से एक जफील निकाली और खास ढंग से बजाई। तेज आवाज जंगल के कोने-कोने में फैल गई और साथ ही कई तरफ से सीटी बजने की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। आधी ही घड़ी बाद पैरों की आहट ने बता दिया कि कई आदमी उसी तरफ चले आ रहे हैं।

बेचैनी के साथ भूतनाथ उन लोगों के आने की राह देख रहा था क्योंकि इशारे ने उसे बता दिया था कि ये उसके ही शागिर्द हैं और किसी जरूरी काम के लिए उसे खोज रहे हैं। देखते ही देखते पाँच आदमी जंगल में से निकलकर कूएं के पास जा पहुँचे जहाँ भूतनाथ खड़ा था और उनमें से एक ने आगे बढ़ कर बेचैनी के साथ कहा, ‘‘गुरुजी, बड़ी बुरी खबर है!!’’

भूत० : सो क्या?

शागिर्द : इन्द्रदेवजी दुश्मनों के फन्दे में पड़ गये।

भूत० : इन्द्रदेव और दुश्मनों के फन्दे में! सो कैसे?

शागिर्द : (अपने एक साथी की तरफ देखकर) गोपीनाथ, तुम्हारे ही सामने वह घटना हुई अस्तु तुम्हीं बयान कर जाओ कि क्या हुआ।

गोपी० : (आगे बढ़कर) गुरुजी, लगभग तीन घंटे के हुआ होगा कि आपकी आज्ञानुसार मैं इन खण्डहरों का चक्कर लगाता घूमता-फिरता गंगा के किनारे वहाँ पर जा पहुँचा जहाँ से गोपालसिंह गिरफ्तार हुए थे, यकायक मैंने इन्द्रदेव जी को उधर आते हुए देखा। मेरा कलेजा दहल गया क्योंकि मैं जानता था कि वह कैसी भयानक जगह है और मैं सोच ही रहा था कि उन्हें किसी तरह से होशियार कर दूँ कि अचानक उस कमेटी के कई आदमी वहाँ आ पहुँचे। मेरे देखते ही देखते उन लोगों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और डोंगी पर बैठा कर ले गये। (१. देखिये चन्द्रकांता सन्तति-4, पन्द्रहवाँ भाग, पहिला बयान।)

अब जरूर ही वे उस कमेटी में पहुँचाये जायंगे और वह उन्हें बिना जान से मारे कदापि न छोड़ेगी क्योंकि वे बहुत बुरी तरह उस कमेटी के पीछे पड़ गये थे। मैं यह हाल देखते ही आपकी खोज में चला कि सब हाल कह सुनाऊँ, तब रास्ते में से ये लोग भी मिल गये।

दूसरा शागिर्द : और एक बात है, मालूम हुआ है कि आजकल सर्यू और इन्दिरा (इन्द्रदेव की स्त्री और लड़की) दारोगा साहब के जमानिया वाले मकान में कैद हैं।

भूत० : ऐसा! तब तो इन्द्रदेव के साथ ही उन दोनों को भी छुड़ाना चाहिए।

शागिर्द : बेशक।

भूत० : (गोपीनाथ से) तुम्हें उन लोगों का साथ छोड़े कितनी देर हुई?

गोपी० : यह कोई तीन घण्टे के लगभग हुए होंगे।

भूत० : तब तो जो कुछ करना हो फुर्ती से करना चाहिये। मैंने सोचा था कि इस कम्बख्त कमेटी को इस खूबसूरती के साथ तहस-नहस करूँ कि एक भी सभासद बचने न पावे पर अब मौका न रहा। अच्छा सुनो।

भूतनाथ ने अपने शागिर्दों से धीरे-धीरे कुछ बातें कीं और तब उन्हें लिये हुए घने जंगल में घुस गया। आधी घड़ी के बाद उस जंगल में से पाँच भयानक सूरतों वाले आदमी बाहर निकले। इन सभी की सूरतें सिंदूर से रंगी हुई थीं तथा बदन पर फौलादी कवच चढ़ा हुआ था। हाथों में लम्बी तलवारें और पीठ पर तीर-कमान के साथ-साथ ये लोग और भी तरह-तरह के हथियार से सजे हुए थे और पाँचों बहादुर बड़े भयानक मालूम होते थे। पाठक तो समझ ही गए कि ये भूतनाथ और उसके शेरदिल शागिर्द हैं।

जंगल ही जंगल ये लोग जमानिया की तरफ रवाना हुए। थोड़ी दूर गये होंगे कि इनका एक साथी पाँच घोड़ों की लगामें थामे खड़ा दिखाई पड़ा हम नहीं कह सकते कि इतनी फुर्ती से घोड़े कहां से आ गये पर भूतनाथ के लिए कोई बात कठिन न थी।

वह फौरन कूद कर एक घोड़े की पीठ पर सवार हो गया और उसके चारों साथी भी घोड़ों पर दिखाई पड़ने लगे। भूतनाथ ने उस आदमी से जो घोड़े के साथ था कहा, ‘‘तुम दारोगा के मकान का पहरा दो, इन्द्रदेव को छुड़ा कर इन्दिरा और सर्यू के वास्ते मैं सीधा यहीं आऊँगा। खबरदार, वे दोनों कहीं गायब न होने पावें’’ और तब घोड़े को एड़ लगा तेजी के साथ जमानिया की तरफ चल पड़ा। उसके बहादुर शागिर्दों ने भी उसके पीछे अपने घोड़े छोड़ दिये। (१. इन्दिरा और सर्यू के दारोगा की कैद में जाने का पूरा हाल हमारे पाठक चन्द्रकान्ता सन्तति में इन्दिरा के किस्से में पढ़ चुके हैं।)

इसके बाद किस तरह भूतनाथ ने उस गुप्त कमेटी की मिट्टी पलीद की और इन्द्रदेव तथा सर्यू को छुड़ा तथा चार आदमियों की जान और इन्दिरा वाला कलमदान ले सही-सलामत निकल गया यह सब हाल पाठक चन्द्रकांता सन्तित में पढ़ चुके हैं अस्तु यहाँ दोबारा लिखने की कोई आवश्यकता मालूम नहीं होती। अब हम उसके आगे का हाल लिखते हैं।

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