लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4

भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


कल्याणी ने इन्दुमति को प्रेम और आराम से रक्खा। सच तो यों है कि इन्दुमति के दिल को उसकी मीठी बातों और सच्चे बर्ताव ने अपनी तरफ खींच लिया और इस थोड़े ही देर की मुलाकात में कल्याणी को इस तरह प्यार करने लगी जैसे उसकी सगी बहिन हो। उसने अपना थोड़ा बहुत हाल यानी जो कुछ घटनाएँ उस पर बीत चुकी थीं, संक्षेप में कल्याणी को कह सुनाया, मगर फिर भी दयाराम का हाल बिल्कुल न बताया और न यही कहा कि इन्द्रदेव की मदद से वे दारोगा की कैद से छूट गए थे पर फिर किसी मुसीबत में पड़ गए।

दोनों औरतों को बातचीत करते बहुत रात गुजर गई मगर कल्याणी ने अपना कोई हाल इन्दुमति से नहीं कहा, हाँ उसके बहुत जोर देने पर इतना कह दिया कि ‘अपना असल नाम और हाल तो मैं तुमसे नहीं कह सकती मगर इधर मेरे ऊपर जो कुछ आफतें आई हैं उनका हाल कल तुमसे जरूर कहूंगी’, उसने इन्दुमति से यह भी कहा कि ‘तू यहां मेरे साथ रहने में किसी तरह से परहेज न कर और न किसी तरह का डर ही मन में ला क्योंकि जब इन्द्रदेव और प्रभाकरसिंह को मेरे असल हाल का पता लगेगा तो वे बहुत प्रसन्न होंगे और मेरे साथ रहने के कारण तुम पर किसी तरह का दोष न आयेगा’, उसकी बातों ने इन्दुमति को बहुत कुछ बेफिक्र कर दिया और वह निर्भयता के साथ निद्रादेवी की गोद में पड़ गई।

दूसरे दिन सुबह को जब इन्दुमति की आँख खुली तो दिन बहुत चढ़ आया था और कल्याणी सब जरूरी कामों से छुट्टी पाकर भोजन की फिक्र में लगी हुई थी क्योंकि इस स्थान में किसी तरह के भी आवश्यक सामान की कमी नहीं थी। कल्याणी ने इन्दु को उठने तथा स्नान आदि से निवृत्त होने को कहा और जरूरी चीजें जुटा दीं।

इन्दुमति ने बहुत जल्द सब कामों से छुट्टी पा ली और तब कल्याणी के दिए कपड़ों को पहिन और अपने गीले कपड़े सूखने को डाल वह कल्याणी के पास ही आ बैठी। इस स्थान में एक कूआँ भी था अस्तु पानी इत्यादि की कोई तकलीफ नहीं हो सकती थी।

इन्दु के आते ही कल्याणी ने कहा, ‘‘मै चाहती हूं कि खा-पीकर हम दोनों मकान के बाहर निकलें और प्रभाकरसिंह की खोज करें, तुमने कहा है कि उन्हें शिवदत्त के आदमियों ने ही कैद किया है अस्तु अगर ऐसा है तो उनका छुड़ाना बहुत कठिन न होगा, मगर पहिले तुम यह बताओ कि तुम्हें दुश्मनों से डर तो नहीं लगता और तुम मेरे साथ काम करने को तैयार हो या नहीं?

इन्दु० : मैं सच्चे दिल से तुम्हारे साथ काम करने को तैयार हूं, मुझे किसी दुश्मन का रत्ती भर भी डर नहीं है और न मुझे किसी मुसीबत की ही परवाह है क्योंकि इन सबके लिए तो तैयार होकर ही मैं घर से निकली हूं।

कल्याणी : (प्रेम से उसका हाथ दबा कर) तुमसे इसी जवाब की उम्मीद थी और मुझे यह भी विश्वास है कि मेरे काम में तुम मेरी मदद करोगी। यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मेरा हाल न जानने के कारण तुम्हारे दिल में सन्देह होता होगा और तुम मुझ पर पूरा-पूरा विश्वास करने से हिचकती होगी मगर क्या किया जाय, कई बातें ऐसी हैं जिनके सबब से मैं लाचार हूँ कि तुम्हें अपना खुलासा हाल नहीं कह सकती।

इन्दु० : फिर भी मुझे तुम पर पूरा विश्वास है और मैं तुम्हें बहिन की तरह प्यार करती हूं।

कल्याणी : मैं भी तुम्हें बहिन ही समझती हूं और हम लोग एक-दूसरे की मदद से बहुत कुछ कर गुजरने लायक हैं, क्योंकि मुझे इस स्थान का कुछ भेद मालूम है और यह जगह ऐसी है कि जबतक हम लोग इस मकान के अन्दर हैं कोई हमें कष्ट नहीं पहुँचा सकता।

इन्दु० : यह मकान भी क्या कोई तिलिस्म है?

कल्याणी : नहीं, तिलिस्म तो नहीं है मगर तिलिस्म का यह मुहाना जरूर है और यहाँ से तिलिस्म के अन्दर कई तरफ जाने के रास्ते हैं जिस कारण से इसे तिलिस्म भी कह सकते हैं तुमने जमानिया के भारी तिलिस्म का नाम सुना ही होगा।

इन्दु० : हाँ जरूर।

कल्याणी : तो उसी जमानिया के तिलिस्म का यह एक बाहरी हिस्सा है।

इन्दु० : तुम्हें इसका हाल कैसे मालूम हुआ?

कल्याणी : इस बात का ठीक जवाब मैं इस समय न दूँगी क्योंकि ऐसा करने से मुझे अपना परिचय देना पड़ेगा जिसके लिए मैं तैयार नहीं हूँ। हाँ मैं अपना कुछ ऐसा हाल तुमसे कहती हूँ जिससे तुम्हें कुछ-कुछ अन्दाज अवश्य लग जायगा। जमानिया के रईस दामोदरसिंह का नाम तो तुमने जरूर सुना होगा?

इन्दु० : बेशक, और बड़े अफसोस के साथ मैंने उनकी मौत की खबर भी सुनी है।

कल्याणी : हाँ ठीक है, यद्यपि मुझे उस खबर के ठीक होने पर विश्वास नहीं खैर तो वे मेरे रिश्तेदार हैं।(लम्बी साँस लेकर) एक जमाना था जब वे मुझे अपनी प्यारी बेटी की तरह समझते थे और मैं उन्हें अपने पिता से बढ़कर मानती और प्यार करती थी तथा उन्हीं के सबब से महाराज गिरधरसिंह भी मुझसे पिता की तरह प्रेम रखते थे। (अपनी उँगली में पड़ी हुई पन्ने की अँगूठी दिखाकर) यह अंगूठी महाराज ने ही विवाह के दहेज के लिए भेजी थी।

(कुछ देर तक चुप रह कर) अब वह सब एक स्वप्न की-सी बात मालूम होती है, बहिन इन्दु, इस समय भी जब मैं उस जमाने की बातें खयाल करती हूँ तो कलेजा मुँह को आता है और जब दारोगा की हरामजदगी का ध्यान आता है तो दिल काबू में नहीं रहता। इन्दु, क्या तू खयाल भी कर सकती है कि इसी स्थान में जहां तू इस समय बैठी है तेरे से भी कम उम्र नाजुक और सुन्दर एक लड़की ने तड़प-तड़प कर जान दी है?

क्या तू खयाल भी कर सकती है कि इसी इमारत में एक मासूम और भोली लड़की की बोटी-बोटी काटकर चील और कौवों को खिला दी गई है। नहीं, तू इस खयाल से ही काँप रही है, तेरा चेहरा इसके सुनने से ही पीला पड़ गया है, तेरी साँस रुक रही है, मगर मैंने अपनी इन आँखों से यह भयानक कार्रवाई इसी जगह होते हुए देखी है नहीं-नहीं, इन्दु मैं तेरे नाजुक कलेजे को दहलाना नहीं चाहती, खुद मुझमें इतनी ताकत नहीं है कि उस बात को दुबारा अपनी जुबान से बयान कर सकूँ।

मैं वह पूरा हाल आज भी तुझे सुना नहीं सकती क्योंकि इतने जमाने के बाद भी, बरसों बीत जाने पर भी, जरा-सा जिक्र आते ही वह भयानक घटना मेरी आँखों के सामने घूम जाती और मेरी प्यारी सखी की सूरत आँखों के सामने फिरने लगती है पर साथ ही रुलाई मुँह रोक देती है और आँसू आँखे बन्द कर देते हैं।

कल्याणी ने दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया मगर उन आँसुओं को रोक न सकी जो जबर्दस्ती उसकी आँखों के बाहर निकलकर उसके दामन को तर करने लगे थे। इन्दुमति का भी कलेजा हिल गया था और उसकी आँखें भी सूखी नहीं थीं, पर उसने अपने को सम्हाला और कल्याणी को दमदिलासा देकर शान्त किया। कल्याणी ने फिर कहा--

कल्याणी : मेरे दुश्मनों को पता लग गया कि मुझे उनके इस दुष्कर्म का हाल मालूम हो गया अस्तु वे मुझको मार डालने की फिक्र में लगे। नतीजा यह निकला कि ठीक ब्याह के मौके पर दारोगा ने मुझे गिरफ्तार करवा लिया।

इन्दु० : तो क्या इस खूनी काम को करने वाला दारोगा ही था?

कल्याणी : हाँ, दारोगा और हेलासिंह। अफसोस की बात तो यह है कि जिस लड़की का मैंने हाल कहा वह महाराज गिरधरसिंह के कुटुम्ब की और दामोदरसिंह की तो खास रिश्तेदार थी, फिर भी दारोगा और हेलासिंह वह काम कर गुजरे जो मैंने कहा, दामोदरसिंह तक को इस बात का पता न लगा और महाराज के कान तक भी इसकी खबर न पहुँची।

मेरे गिरफ्तार होने और दुःख उठाने का भी यही कारण हुआ क्योंकि दारोगा और हेलासिंह को गुमान हुआ कि अगर मैं बची रहूँगी तो जरूर महाराज या दामोदरसिंह के कान भरूँगी। मुझसे भी भारी गलती हो गई जो मैंने उस बात को उसी समय या किसी से भी कह न दिया और डर, घबराहट या किसी और सबब से कुछ समय के लिए छिपा रखने की बेवकूफी की।

खैर मैं दारोगा की कैद में बरसों तक पड़ी रही और इस बीच में मुझे जो-जो तकलीफें उठानी पड़ीं मेरा ही दिल जानता है बल्कि मुझे ताज्जुब तो इस बात का है कि दारोगा ने इतने दिनों तक मुझे जीता ही क्यों छोड़ रक्खा। बेशक अब जो मैं खयाल करती हूँ तो इसमें भी कोई गुप्त भेद मालूम होता है...(रुककर) खैर।

तो मैंने इस बीच में बड़ी-बड़ी तकलीफें उठाईं और बड़े-बड़े कष्ट भोगे। मेरे रिश्तेदार भी मुझे मुर्दा समझ चुप हो बैठे और दामोदरसिंह भी मुझे भूल गए। आखिर न जाने ईश्वर की किस दयादृष्टि ने मेरी जान बचाई और मेरे एक बुजुर्ग को उस कैदखाने में पहुँचाया जिसमें कम्बख्त दारोगा ने मुझे बन्द कर रक्खा था। उसने मुझे रिहाई दी और इस जगह का पता बताया।

पहले तो यहाँ का नाम सुनकर मैं काँप गई फिर उनके समझाने-बुझाने और यहाँ का कुछ अधिक हाल बताने पर तथा इस जगह की मजबूती और हिफाजत का खयाल कर मैंने रहना कबूल किया। आज कई दिन से मैं इस जगह हूँ इस बीच में मैंने प्रभाकरसिंह जी को उनके दुश्मनों के हाथ से बचाया तथा और भी कई बातों का पता लगाया, मगर अफसोस मैं दामोदरसिंह जी से मिलने का मौका न पा सकी और कम्बख्त दारोगा ने उन्हें मिट्टी में मिला दिया। खैर कोई हर्ज नहीं, अब तो मैने अपनी जान पर खेला ही है, या तो मैं ही रहूँगी और दारोगा वगैरह को जहन्नुम पहुँचाकर छोडूँगी और या फिर दारोगा ही रहेगा। अगर तुम मेरी मदद करो तो मैं अब भी बहुत कुछ कर गुजरने की हिम्मत रखती हूँ।

इन्दु०: (प्रेम से कल्याणी का पंजा पकड़ के) मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा मैं करने को तैयार हूँ। तुम इसका पूरा विश्वास रक्खो।

कल्याणी : (इन्दु को गले लगाकर) मुझे विश्वास है।

इन्दु० : अब तुम क्या किया चाहती हो?

कल्याणी : महाराज गिरधरसिंह दारोगा पर कभी सन्देह न करेंगे, वह उनकी नाक का बाल हो रहा है और महाराज उसे केवल अपना शुभचिन्तक ही नहीं बल्कि रक्षक, त्राता, विधाता सभी कुछ समझे बैठे हैं और हम लोग बिना पूरा-पूरा सबूत हाथ में किये अगर कोई कार्रवाई करेंगे तो अवश्य धोखा खाएँगे। अस्तु मैं दारोगा के पाजीपन का काफी सबूत हाथ में करके तभी आगे बढ़ा चाहती हूँ। मुझे पक्का पता लगा है कि दारोगा ने कई बेकसूर आदमियों को यहाँ इस लोहगढ़ी में अथवा पास वाले उस अजायबघर में बन्द कर रक्खा है।

तुम्हारी जमना और सरस्वती आदि के भी तिलिस्म में फंस जाने का मुझे पूरा विश्वास हो गया है और उनके छुड़ाने का जरिया भी इसी गढ़ी में है। मैं चाहती हूँ कि इन सभों को कैद से छुड़ाऊँ और तब उनके दुख-दर्द की पूरी कहानी लेकर दारोगा के ऊपर महाराज के दरबार में दावा करूँ क्योंकि बिना पूरा सबूत जुटाए कुछ भी नहीं हो सकेगा कहो तुम्हारी क्या राय है?

इन्दु० : बेशक मैं इस बात को पसन्द करती हूँ।

कल्याणी : मैंने कैदियों का पता लगाने की कोशिश की थी और डरते-डरते तिलिस्म के उन हिस्सों तक गई भी जहाँ तक मैं जा सकती थी। पर नतीजा कुछ न निकला क्योंकि मुझे यहां का पूरा हाल मालूम नहीं और जब तक पूरा हाल न मालूम हो तिलिस्मी मामलों में हाथ डालना नादानी है।

कल्याणी : मैंने सुना है कि यहाँ की कोई ताली है। यह तो नहीं कह सकती कि वह कैसी या किस तरह की है मगर इतना जानती हूँ कि वह हेलासिंह के कब्जे में है और अब उसी ताली को पाने की मैं कोशिश किया चाहती हूँ।

इन्दु० : जैसी तुम्हारी मर्जी।

कल्याणी : उस ताली को कब्जे में कर मैं तिलिस्म में घुसूँगी और जहाँ तक जा सकूँगी जाकर कैदियों का पता लगाऊँगी और सम्भव हुआ तो उन्हें छुड़ाऊँगी, फिर भगवान जो करे सो होगा

इन्दु० : अच्छी बात है।

कल्याणी : तो इस समय हम लोगों को दो काम करने हैं। एक तो प्रभाकरसिंह जी को छुड़ाना और दूसरे हेलासिंह से वह ताली कब्जे में करना।

इन्दु० : ठीक है।

कल्याणी : मैं चाहती हूँ कि खाने-पीने से निश्चिन्त होकर हम लोग सूरत बदलकर बाहर निकलें और कुछ करें।

इन्दु० : मैं इसके लिए दिलोजान से तैयार हूँ।

कल्याणी और इन्दुमति ने भोजन किया, इसके बाद कल्याणी इन्दुमति को एक ऐसी आलमारी के पास ले गई जिसमें ऐयारी करने और सूरत बदलने के कुछ मुख्तसर से सामान तथा कपड़े मौजूद थे दोनों ही ने अपनी सूरतें बदलीं, मर्दानी पोशाकें पहनीं और ऐयारी का बटुआ कमर में छिपा लोहगढ़ी के बाहर निकलने पर तैयार हो गईं।

यों तो इस लोहगढ़ी में आने के और इसके बाहर जाने के कई गुप्त रास्ते हैं मगर जो सदर दरवाजा है वह पूरब की तरफ पड़ता है। यद्यपि वह दरवाजा देखने में मामूली मालूम होता है पर वास्तव में वैसा नहीं है क्योंकि यहाँ तक पहुँचने के लिए भी राह में कई और दरवाजे पड़ जाते हैं जो कारीगरी से खुलते हैं पर फिर भी यह राह सरल है और बाकी की राहें पेंचीली, खतरनाक और तिलिस्मी होने के कारण केवल जानवरों के ही आने-जाने लायक हैं।

इन्दुमति को साथ लिए कल्याणी उस बंगले के नीचे उतरी और पतली-पतली सीढ़ियों के जरिए बाग में पहुँच पूरब और उत्तर के कोने की तरफ रवाना हुई जिधर दो तरफ की ऊँची दीवारें जो चहारदीवारी की तरह इस जमीन को घेरे हुए थीं और जिनका हाल हम पहले लिख आए हैं, आपुस में मिली थीं और उस जगह एक छोटी गुमटी-सी बनी हुई थी। एक छोटे दरवाजे की राह जिसमें पल्ला न था ये दोनों इस गुमटी के अन्दर चली गईं जो सिर्फ छः हाथ के घेरे में बनी हुई थी मगर इसकी छत बहुत ऊँची थी, यहाँ तक कि एक आदमी के कन्धे पर दूसरा खड़ा होकर भी उस छत को छू नहीं सकता था। (१.देखिए भूतनाथ दसवाँ भाग, बारहवाँ बयान।)

गुमटी का फर्श काले और सुफेद संगमर्मर के तिकोने टुकड़ों का बना हुआ था। बीचोंबीच में लगभग एक हाथ की गोलाई में लोहे का एक गोल टुकड़ा जड़ा हुआ था जिस पर एक आदमी खड़ा हो सकता था।

कल्याणी ने उस टुकड़े की तरफ बताकर इन्दुमति से कहा, ‘‘इस पर खड़े होकर एक तर्कीब करने से यह टुकड़ा जमीन में धँस जाता है और आदमी को नीचे की एक कोठरी में पहुँचा देता है मगर तरद्दुद यही है कि इस राह से एक दफे में केवल एक ही आदमी आ-जा सकता है अस्तु पहले तुम इस राह से चली जाओ फिर मैं आती हूँ।’’

इन्दुमति ने उस टुकड़े पर पैर रक्खा। टुकड़े के बीचोंबीच में तीन लोहे की काँटियाँ करीब एक अंगुल के ऊपर की तरफ उभरी हुई थीं। कल्याणी ने इनकी तरफ इन्दु का खयाल दिला कहा, ‘‘बाईं तरफ वाली काँटी को तीन दफे दबाओ, फिर दाहिनी तरफ वाली को सात दफे और तब बीच वाली को दो दफे दबाओ। ऐसा करने से यह टुकड़ा नीचे की तरफ उतरेगा। जब इसका उतरना रुक जाय तो तुम इस पर से उतर जाना, उतरने के साथ ही यह ऊपर लौट आयेगा।’’

इन्दु ने ऐसा ही किया और उन काँटियों के दबाने के साथ ही वह लोहे का टुकड़ा धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। थोड़ी ही देर में वह बहुत नीचे चला गया और वहाँ कूएँ की तरह का एक गोल गड़हा दिखाई देने लगा।

लगभग पाँच मिनट के बाद वह टुकड़ा फिर अपनी जगह वापस आया। तब कल्याणी उस पर सवार हुई और उसी तर्कीब से नीचे उतर गई। टुकड़ा बहुत दूर तक नीचे उतर जाने के बाद एक तंग कोठरी की सतह तक पहुँचकर रुका और कल्याणी ने नीचे उतर इन्दुमति को उसी जगह खड़े पाया।

यह कोठरी बहुत छोटी थी मगर जमीन के इतना नीचे होने पर भी यहाँ रोशनी का अभाव न था क्योंकि कई छोटे सूराखों की बदौलत रोशनी और हवा दोनों ही आ रही थीं। सामने की तरफ एक तंग दरवाजा था।

कल्याणी ने इसके भी खोलने की तर्कीब इन्दु को बताई बल्कि उसी के हाथ से वह दरवाजा खुलवाया और दूसरी तरफ होकर बन्द भी कराया। अब ये दोनों एक छोटी सुंरग में थीं जो लगभग बीस हाथ के लम्बी होगी, इसे पार करने पर पुनः एक दरवाजा मिला और इसे भी कल्याणी की बताई तर्कीब से इन्दु ने खोला। यह एक दूसरी कोठरी थी और इसके बीचोंबीच में भी लोहे का एक गोल टुकड़ा था। फर्क इतना ही था कि तर्कीब करने पर यह टुकड़ा ऊपर उठता और आदमी को ऊपर ही सतह पर पहुंचा देता था। इसी राह से पहले इन्दु और तब कल्याणी ऊपर पहुंची। कल्याणी को ऊपर पहुँचा वह टुकड़ा फिर नीचे चला गया और उस जगह एक गोल गड़हा दिखाई देने लगा।

इन्दुमति ने पूछा। ‘‘अच्छा इस राह से अगर भीतर कोई आदमी जाना चाहे है, तो किस तरह जाएगा? क्या कोई तर्कीब करने से यह नीचे वाला टुकड़ा ऊपर आ जाता है?’’

कल्याणी ने कहा, ‘‘नहीं, यह राह सिर्फ भीतर से बाहर आने वाले के लिए है, बाहर से अन्दर जाने के लिए दूसरी राह है जो इसकी उल्टी है, इस लोहगढ़ी की सबसे भारी मजबूती वह चारदीवारी है जो इतनी मजबूत है कि उसे किसी तरह से छेद करके राह पैदा नहीं की जा सकती। सिर्फ उसके नीचे या ऊपर से होकर ही दूसरी तरफ आदमी जा सकता है क्योंकि जहाँ तक मुझे पता है दीवार के भीतर से होकर दूसरी तरफ जाने का कोई रास्ता नहीं है। तुम समझ ही गई होगी कि जिस राह से हम दोनों आई हैं वह दीवार के नीचे से होकर निकली है, इसी तरह दीवार के ऊपर से होकर आने-जाने का भी रास्ता है मगर मुझे उसकी खबर नहीं।’’

इन्दु को इस इमारत के बारे में और भी कई तरह की बातें बताती कल्याणी सदर दरवाजे के पास जा पहुँची। दरवाजा देखने में तो काठ का मालूम होता था पर वास्तव में लोहे का बना हुआ था। कल्याणी ने उसे खोला और दोनों आदमी बाहर आए। कल्याणी ने खींचकर दोनों पल्ले बन्द कर दिए, इन्दु ने पूछा, ‘‘इस दरवाजे को बाहर से बन्द करने या खोलने की क्या तर्कीब है?’’ कल्याणी ने बाहर दरवाजे में लगे हुए दो मोटे कड़ों की तरफ बताकर कहा, ‘‘इनको एक तर्कीब के साथ घुमाने, दबाने और खींचने से बन्द किया या खोला जाता है।’’ कल्याणी ने इन्दु को बताकर उसी के हाथ से वह दरवाजा बन्द करा दिया।

कल्याणी इन्दु को लिए घूमती हुई मकान के पश्चिम तरफ गई जिधर ऊपर की तरफ गणेशजी की एक लाल रंग की मूर्ति बनी हुई थी। इन्दु को बताकर उसने कहा,‘‘ यहाँ से भी एक रास्ता मकान के अन्दर जाने का है। यदि हो सका तो लौटती बार मैं तुझे इधर ही से ले चलूँगी मगर इस समय अपने काम पर रवाना होना चाहिए क्योंकि देर हो रही है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book