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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


दामोदरसिंह के जमानिया वाले आलीशान महल के फाटक के ऊपर जो इमारत बनी हुई है उसमें आजकल इन्द्रदेव का डेरा पड़ा है जो अपने ससुर के मरने की खबर पाकर यहाँ आए हुए हैं और आज इसी जगह हम भूतनाथ को भी देख रहे हैं जो इन्द्रदेव से मिलने की नीयत से कुछ ही देर हुई आया है और बाहरी कमरे में बैठा हुआ उसके आने की राह देख रहा है क्योंकि नौकर की जुबानी इन्द्रदेव ने उसे कहला भेजा है कि मैं एक जरूरी काम से छुट्टी पाकर अभी आता हूँ। मगर पाठकों को साथ ले हम भूतनाथ को यहीं छोड़ अन्दर की तरफ चलते और देखते हैं कि इन्द्रदेव क्या कर रहे हैं या किस जरूरी काम में फँसे हुए हैं।

इमारत के सबसे ऊपरी हिस्से में एक छोटा मगर खूबसूरती के साथ सजा हुआ बंगला है। इन्द्रदेव इस समय इसी बंगले में एक आरामकुर्सी पर लेटे हुए उस आदमी की बातें बड़े गौर से सुन रहे हैं जो उनके सामने एक कुर्सी पर बैठा हुआ है।

इस आदमी का चेहरा नकाब से ढका हुआ है इस कारण हम इसकी सूरत शक्ल के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते हाँ इसकी पोशाक इत्यादि की तरफ ध्यान देने से जरूर मालूम होता है कि यह कोई ऐयार है क्योंकि खंजर के अलावा इसके पास ऐयारी का बटुआ और कमन्द भी दिखाई दे रहा है। इस समय यह आदमी कोई गुप्त हाल इन्द्रदेव को सुना रहा है जिसे वे बड़े ध्यान से सुन रहे हैं और बीच-बीच में कोई सवाल भी करते जाते हैं।

इन्द्र० : इन बातों का पता भी आपको अपने उसी शागिर्द की जुबानी लगा होगा?

नकाबपोश : जी हाँ, और यद्यपि कहा जा सकता है कि ऐसा करके मालिक के दोस्त के साथ बुराई की और इस पर अपने मालिक के साथ विश्वासघात किया, पर यह एक ऐसी खबर थी कि जिसे सुन और जानकर मैं चुप भी नहीं रह सकता था।

इन्द्रदेव : बेशक ऐसा ही है। इन सब बातों को जानकर आप बिना कुछ किए किसी तरह रह नहीं सकते थे।

और इसके लिए कोई यदि आपको दोष दे तो वह पूरा बेवकूफ है। आपने उसको कैद से छुड़ाकर मेरे ऊपर एहसान किया है और इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ।

नकाब० : यह आपकी मेहरबानी है जो आप ऐसा कहते हैं। मैं आप को अपना बड़ा मानता हूँ और इस जगह मुझे सिर्फ आप ही का भरोसा भी है, इसलिए मैंने यह सब हाल आपको सुना देना बहुत ही जरूरी समझा क्योंकि यह तो मुझे दृढ़ निश्चय है कि आपके ससुर की मौत और इस घटना के बीच कोई न कोई संबंध जरूर है।

इन्द्र० : बेशक ऐसा ही है और आपने बहुत अच्छा किया जो मुझे ये सब बातें बता दीं, नहीं तो मैं सख्त परेशानी में पड़ा हुआ था। अच्छा अब आपका क्या इरादा है? क्या आप जमानिया में और कुछ दिन रहेंगे?

नकाब० : जी नहीं, मैं शीघ्र ही लौट जाऊँगा, कदाचित आपसे पुन: मिलने का मौका अब मुझे न मिले, यही समझकर बेमौका होने पर भी यहाँ आया था और अब यदि आज्ञा हो तो जाऊँ।

इन्द्र० : कैसे कहूँ, यदि गदाधरसिंह के आने की इत्तिला मुझे न मिली होती तो कुछ देर तक और भी रोकता और बातें करता।

नकाब० : गदाधरसिंह के विषय में तो मुझे केवल आप ही का भरोसा है, आप ही के साथ से वह ठीक हो सकेगा तो होगा नहीं तो मुझे उसके विषय में अब कुछ भी उम्मीद नहीं रह गई। इस बारे में जो कुछ कहना था मैं कह चुका हूँ पर फिर भी इतनी प्रार्थना है कि उस पर दया बनाए रहियेगा। उसके हाथ से बहुत दुष्कर्म हो चुके और हो रहे हैं।

इन्द्र० : मेरे हाथ से इसका कोई अनिष्ट कदापि न होगा, इसका आप विश्वास रक्खें, मैं बराबर उसको सुधारने की ही चेष्टा में लगा रहता हूँ, पर मेरी खुद अक्ल हैरान हो रही है कि उसे किस तरह कब्जे में करूँ!

नकाब० : मुझे तो उम्मीद है कि अब वह सम्हल जाएगा, इस बार की चोट उसके दिल पर बैठ गई है और अगर उसमें कुछ भी आदमीयत होगी तो वह कभी उस रास्ते पर पैर न रखेगा जिसने उसे इस दशा तक पहुंचाया है।

इन्द्र० : देखिए, ईश्वर की इच्छा!

इन्द्रदेव उठ खड़े हुए और वह नकाबपोश भी खड़ा हो गया। दोनों आदमी साथ ही साथ नीचे आये जहाँ कुछ और बातचीत के बाद इन्द्रदेव ने उसे विदा किया और तब उस कमरे की तरफ बढ़े जिसमें भूतनाथ के होने की उन्हें खबर लग चुकी थी।

भूतनाथ इस समय बेचैनी के साथ कमरे में इधर से उधर टहल रहा था। इन्द्रदेव के पहुँचते ही वह रुककर खड़ा हो गया। यद्यपि पहिली ही निगाह में इन्द्रदेव ने उसके दिल का भाव भली प्रकार समझ लिया और जान लिया कि बेचैनी और घबराहट ने उसे अपना शिकार बनाया हुआ है तथापि उन्होंने बनावटी मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘‘कहो भूतनाथ, अबकी तो बहुत दिनों पर आये! क्या हाल है? बहुत सुस्त मालूम पड़ रहे हो!’’

भूत० : मेरी सुस्ती और उदासी का पूछना ही क्या है, बस जान बची हुई है इसे ही गनीमत समझिए!

इन्द्र० : क्यों-क्यों, ऐसा क्यों?

भूत० : जैसी-जैसी आफतें मेरे ऊपर आई हैं उनको झेलकर भी जीता हूँ, यह मेरी बेहयाई है!

इन्द्र० : (अपनी गद्दी पर बैठकर) इस तरह पर नहीं, आओ मेरे सामने बैठो और साफ बताओ कि क्या बात है तथा तुम किस प्रकार मुसीबत में हो?

भूतनाथ इन्द्रदेव के सामने मगर उनसे कुछ हटकर बैठ गया और अपने चारों तरफ देखकर बोला, ‘‘यहाँ कोई मेरी बातें सुनने वाला तो नहीं है?’’

इन्द्र० : नहीं कोई नहीं, ऐसा ही सन्देह है तो दरवाजा बन्द कर सकते हो।

‘‘हाँ, यही ठीक होगा!’’ कह भूतनाथ ने उठकर कमरे का दरावाजा बन्द कर दिया और तब पुन: अपनी जगह पर आकर बैठ गया। कुछ देर के लिए सन्नाटा हो गया। इन्द्रदेव बड़े गौर से भूतनाथ की सूरत देख रहे थे जो जमीन की तरफ सिर झुकाये न जाने क्या सोच रहा था।

आखिर एक लम्बी साँस लेकर लेकर भूतनाथ ने सिर उठाया और इन्द्रदेव की तरफ देख हाथ जोड़कर बोला, ‘‘मेरे हाथ से आपका एक बड़ा भारी कसूर हो गया है।’’

इन्द्र० : सो क्या?

भूत० : यदि आप मुझे माफ करें तो मैं कहूँ!

इन्द्र० : ऐसा कौन-सा काम तुम कर बैठे कि माफी की जरूरत है?

भूत० : जमना और सरस्वती का मैंने खून कर डाला है।

भूतनाथ की बात सुन इन्द्रदेव चौंक पड़े। यद्यपि वे जानते थे कि भूतनाथ नकली प्रभाकरसिंह बनकर घाटी में घुस गया था और इसके बाद उसने (नकली) जमना और सरस्वती को मार डाला, पर यह विश्वास उन्हें कदापि न था कि वह उनके सामने इस तरह पर अपना कसूर साफ-साफ बयान कर देगा। वे कुछ आश्चर्य में होकर भूतनाथ का मुँह देखने लगे।

भूत० : एक ऐसी घटना हो गई है जिसने मुझे साफ-साफ बता दिया है कि मैं बहुत बुरे रास्ते पर जा रहा हूँ और अगर अब भी अपने को न सम्हालूँगा तो दुनिया में किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। आप पर मेरी श्रद्धा है और मुझे दृढ़ विश्वास है कि आप मेरे हितेच्छु हैं,

अस्तु यह सोचकर मैं आपके पास आया हूं कि अपने सब कसूर साफ-साफ कह दूंगा, और तब यदि आप मुझे क्षमा करेंगे बल्कि मुझे अपने को सम्हालने में सहायता देंगे तो फिर से इस दुनिया में कुछ नेकनामी हासिल करने की कोशिश करूँगा। मुझे दृढ़ निश्चय है कि आप ऊपर से नहीं तो भी दिल से मुझे प्यार करते हैं और यदि मेरे हाथ से आपका कोई अनिष्ट भी हो जाय तो आप मुझे माफ कर देंगे।

यही सोचकर मैं आपके पास आया हूँ कि अपने सब कसूर, अपनी सब भूलें, अपने सब दुष्कर्म, आपके सामने कह सुनाऊँ और यदि आप मुझे माफी के अयोग्य ठहराएँ तो फिर इस दुनिया ही को छोड़ दूँ, क्योंकि अब मुझे बदनामी के साथ इस संसार में रहना मंजूर नहीं है।

इन्द्र० : तुम्हारे स्वभाव में इतना परिवर्तन हो गया देख मुझे आश्चर्य होता है।

भूत० : जो बात देखने में आई है वह यदि आप देखते तो आपको और भी आश्चर्य होता। अपनी आँखों से मैंने मुर्दों को बातें करते देखा है।

इन्द्र० : (आश्चर्य से) सो कैसे और कहाँ?

इसके जवाब में भूतनाथ वह बिलकुल हाल बयान कर गया जो हम ऊपर के चौथे बयान में लिख आये हैं। इन्द्रदेव चुपचाप सब हाल सुनते रहे। इस समय उनका चेहरा बड़ा गंभीर था। और इस बात का पता लगाना बिलकुल असंभव था कि उनके दिल में क्या बातें उठ रही हैं या वे क्या सोच रहे हैं।

वह हाल कह सुनाने के बाद भूतनाथ अपना बाकी सब हाल यानी नागर के मकान से निकलती समय मेघराज के साथ हो प्रभाकरसिंह को गिरफ्तार कर दारोगा के कब्जे में पहुँचाने से लेकर तिलिस्मी घाटी में जाने और विचित्र ढंग से बाहर निकलने के बाद नकली जमना और सरस्वती के मार डालने तक सब हाल कह सुनाया जिसे इन्द्रदेव चुपचाप सुनते रहे। सब हाल कहकर भूतनाथ ने कहा- ‘‘मैंने सब हाल सच्चा-सच्चा और साफ-साफ आपको कह सुनाया, अब वह आपके हाथ में है कि मुझे मारें या जिलावें, क्योंकि यदि आप मुझे सच्चे मन से क्षमा न कर देंगे तो मैं इस दुनिया में किसी लायक न रहूँगा!’’ (१. भूतनाथ अभी तक बिल्कुल नहीं जानता कि यह मेघराज कौन है पर हमारे पाठक बखूबी जानते हैं कि दयाराम ही का नाम इन्द्रदेव ने मेघराज रख दिया था और आजकल वे सर्वत्र इसी नाम से पुकारे जाते हैं।)

इन्द्र० : (लम्बी साँस लेकर) मेरा तुम्हारे ऊपर जोर ही क्या है और मेरे माफ करने या न करने से होता ही क्या है। मैं हूँ कौन चीज! माफ करने और न करने वाला तो ईश्वर है जो सबका भला-बुरा देखता है और साथ ही सबको सजा देने की भी कुदरत रखता है।

भूत० : (लम्बी साँस लेकर) बस मालूम हो गया! मैं समझ गया कि आप मुझे माफ करना मुनासिब नहीं समझते! खैर तो मैं जाता हूँ!! इतना कह एकाएक भूतनाथ उठ खड़ा हुआ, मगर यह देखते ही इन्द्रदेव भी उठ खड़े हुए और भूतनाथ का हाथ पकड़कर बोले- ‘‘बैठो बैठो, भागे क्यों जाते हो? कुछ सुनो भी तो सही!’’

भूत० : नहीं, अब मैं कुछ सुना नहीं चाहता, जब आप ही मुझसे खफा हैं तो फि क्या? यद दुनिया किस मसरफ की है!

इन्द्र० : नहीं नहीं भूतनाथ, मैं तुमसे खफा नहीं हूँ। मेरा कहने का मतलब तो सिर्फ यही है कि तुम ईश्वर से प्रार्थना करो वही तुम्हारे कसूरों को माफ करेगा, मैं माफ करने वाला कौन?

भूत० : इस समय मेरे ईश्वर आप ही हैं। मैं आप ही को अपना बड़ा बुजुर्ग, सलाहकार, दोस्त, मुरब्बी सब कुछ समझता हूँ और आप ही पर भरोसा करता हूँ।

इन्द्र० : यह तुम्हारी गलती है।

भूत० : खैर जो कुछ हो, इस समय तो आप ही मेरे सब कुछ और आप ही से मैं माफी की उम्मीद रखता हूँ।

इन्द्रदेव ने यह सुनकर लम्बी साँस ली और तब भूतनाथ का हाथ छोड़ कुछ सोचते हुए कमरे में इधर से उधर टहलने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘भूतनाथ, तुम मुझसे माफी चाहते हो, और मैं अब भी तुम्हें माफ करने को तैयार हूँ, मगर तुमने यह भी कभी सोचा है कि तुमने मेरे साथ कैसा-कैसा बर्ताव किया है! कौन-सा ऐसा काम है जो तुम्हारे हाथ से नहीं हुआ, कौन-सा ऐसा पाप है जिससे तुम बचे हुए हो?

मैं नहीं चाहता कि अपने मुँह से इन बातों का जिक्र करूँ मगर फिर भी मुझे कहना ही पड़ता है कि तुमने हद्द से ज्यादा अत्याचार किए हैं- अपने कई निरपराध शागिर्दों की हत्या की अपने दोस्त गुलाबसिंह को तुमने मारा, भैया राजा तुम्हारी ही बदौलत खटाई में पड़ गये, दयाराम के मारने का इलजाम तुम्हारी गर्दन पर मौजूद था ही और अब तुम उनकी बेकसूर दोनों स्त्रियों को मार डालने का हाल मुझे सुना रहे हो- अब तुम ही सोचो कि ऐसी हालत में मैं क्योंकर तुम्हें माफ कर सकता हूँ या अगर मेरी जुबान तुम्हें माफ कर भी दे तो मेरा दिल क्योंकर उस बात को कबूल कर सकता है?

आखिर मैं भी तो आदमी हूँ, मेरा कलेजा तो पत्थर का नहीं है। अपनी आँख से तुमको अपने निर्दोष रिश्तेदारों और दोस्तों का अनिष्ट करते देखकर भी मैं कहाँ तक बर्दाश्त कर सकता हूं भला तुम ही तो इस बात पर विचार करो कि यदि इस समय मेरी जगह पर तुम होते और मैं तुम्हारा कसूरवार होता तो तुम्हारा दिल क्या कहता!’’

भूतनाथ की आँखों से बराबर आँसू जारी थे। इन्द्रदेव की बातें सुन उसका दिल भर आया और वह हाथ जोड़ हिचकियाँ लेता हुआ बोला, ‘‘इन्द्रदेवजी, बेशक आप मुझे माफ नहीं कर सकते! यह मेरी गलती है कि ऐसे कर्म करके भी मैं माफी की उम्मीद करता हूँ। मगर फिर भी इन्द्रदेव, आपका हृदय कितना प्रशस्त है इसे मैं बाखूबी जानता हूँ और इसी भरोसे पर कहता हूँ कि आप इस बार और मेरे अपराधों को क्षमा करें। इस संकट के मौके पर आप मुझ पर भरोसा करें और मुझसे काम लेकर अपने पिछले पापों का प्रायश्चित करने का मौका दें अगर आप ऐसा न करेंगे तो मैं कहीं का न रहूँगा!’’

इन्द्र० : (कुछ सोचकर) खैर तुम इस तरह पर कह रहे हो तो मैं तुम्हें माफ करता हूँ- सच्चे दिल से माफ करता हूँ!’’

इन्द्रदेव की यह बात सुनते ही गद्गद् होकर भूतनाथ ने उनके पैरों पर गिरना चाहा मगर बीच ही में उन्होंने उसे गले लगा लिया।

दोनों दोस्त देर तक एक-दूसरे से लिपटे रहे, भूतनाथ की आँखों से अब भी आँसू जारी था। इन्द्रदेव ने अपने रूमाल से उसकी आँखें पोछीं और तब अपनी जगह पर ला बैठाया।

भूत० : मेरा दिल कहता था कि आप मुझे अवश्य माफ कर देंगे और सच तो यह है कि आपके ऐसे ऊँचे दिल का कोई आदमी आज तक मैंने देखा ही नहीं। खैर अब इस विषय पर बात करना व्यर्थ है, अब जुबान से नहीं बल्कि अपने कामों से मैं आपको दिखला दूँगा कि मैं क्या कर सकता हूँ। या तो पिछली बदनामी की कालिख को दूर कर नेकनामी ही हासिल करूँगा और या फिर अपना काला मुँह कभी आपको न दिखाऊँगा।

इन्द्र० : ईश्वर तुम्हारी इच्छा को बनाये रक्खे। खैर यह तो बताओ कि अब तुम क्या किया चाहते हो?

भूत० : इस समय और सब कामों का खयाल छोड़ मैं सिर्फ दो बातों की फिक्र में लगता हूँ, एक तो आपके ससुर की मौत के विषय में पता लगाना, दूसरे प्रभाकरसिंह को खोज निकालना।

इन्द्र० : प्रभाकरसिंह को तो तुम दारोगा के हवाले कर आये थे?

भूत० : जी हाँ, मगर पता लगाने से मालूम हुआ कि इधर हाल ही में उन्हें कोई छुड़ा ले गया और अब वे दारोगा के कब्जे में नहीं हैं।

इन्द्र० : ठीक है, मुझे भी ऐसी ही खबर लगी है।

भूत० : मेरे शागिर्दों ने दो-तीन बार उन्हें एक औरत के साथ इधर-उधर आते-जाते देखा है, इससे मैं उम्मीद करता हूँ कि बहुत जल्द उनका पता लगा लूँगा।

इन्द्र० : मैं क्या बताऊँ, मेरे ससुर की मौत ने मुझे एकदम परेशान कर दिया है। मैं बिल्कुल घबड़ा गया हूँ और मुझको यह नहीं सूझता कि क्या करूँ। तो भी मैं उनका पता लगाने की पूरी कोशिश कर रहा हूँ। तुम भी कोशिश करो और पता लगाओ कि यह सब काम किसका है।

भूत० : मैं दिलोजान से कोशिश करूँगा मगर एक शक मुझे बारम्बार होता है।

इन्द्र० : क्या?

भूत० : यही कि दामोदारसिंहजी मारे नहीं गये, उनकी मौत के साथ कोई न कोई भेद छिपा हुआ है। यह एक विचित्र बात है कि उनकी लाश पाई जाय और सिर का पता न हो!

इन्द्र० : हाँ यही बात तो मुझे भी शक दिलाती है मगर कुछ ठीक पता नहीं लगता कि क्या मामला है, तुम ही कुछ कोशिश करके देखो।

भूत० : मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ और शीघ्र ही पुन: आपसे मिलकर नई बातें बताऊँगा जिनको जानकर आप आश्चर्य करेंगे।

इन्द्र० : मैं तुम्हारी चालाकी का कायल हूँ!

भूत० : अब आज्ञा हो तो मैं जाऊँ?

इन्द्र० : अच्छा जाओ, मगर ख्याल रखना कि फिर कहीं दारोगा और नागर वगैरह के फन्दे में न पड़ जाना!

भूत० : भला अब ऐसा हो सकता है! ईश्वर चाहेगा तो आप मुझको कभी उस रास्ते पर पैर रखते हुए न पावेंगे, इतनी तो मैं आपसे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।

इन्द्र० : ईश्वर तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी करे।

भूतनाथ उठा और इन्द्रदेव को सलाम कर कमरे का दरवाजा खोल मकान के बाहर निकल आया।

भूतनाथ, अब क्या वास्तव में तू नेक राह पर आ गया है! क्या वास्तव में तूने उस पेचीले और कंटीले रास्ते को छोड़ दिया जो तुझे अँधेरे गार की तरफ ले जा रहा था! क्या वास्तव में तू बदनामी की सड़क को छोड़ नेकनामी की पगडण्डी पर पैर रक्खा चाहता है!

यद्यपि तेरा कथन है, कथन ही नहीं निश्चय है, केवल निश्चय ही नहीं, तेरा प्रण है कि अब बुरे मार्ग पर न चलेगा, पर उन लोगों को जो तेरे दिल की मजबूती की थाह पा चुके हैं तेरे कहने पर विश्वास नहीं हो सकता, इसके पहिले भी अपने को सुधारने की न जाने कितनी प्रतिज्ञा, कितने वादे तू कर और तोड़ चुका है जिनका हाल जानने वाला अब कभी भी तुझ पर और तेरी बातों पर भरोसा नहीं कर सकता और जिन्होंने सभी का विश्वास तुझ पर से उठा दिया है!

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