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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

पन्द्रहवाँ बयान


हम नहीं कह सकते कि इन्द्रदेव ने जमना और सस्वती को इतने बड़े कठिन साहस का काम करने के लिए इजाजत क्योंकर दे दी। जब तक दयाराम मरे हुए समझे जाते थे और जमना तथा सरस्वती बिल्कुल इन्द्रदेव के अधीन थीं तब तक जो कुछ इन्द्रदेव ने मुनासिब समझा किया और कर सकते थे परन्तु ऐसी अवस्था में जबकि दयाराम प्रकट हो गये और वे दोनों अपने पति के पास पहुँचा दी गईं, तब उन पर सिवाय दयाराम के और किसी का अधिकार न रह गया, अस्तु न जमना और सरस्वती ही को दयाराम की आज्ञा के बिना घर के बाहर निकलने और ऐसे काम में हाथ डालना उचित था और न इन्द्रदेव ही को ऐसी आज्ञा देने और उनका उत्साह बढ़ाने की जरूरत थी। सम्भव है कि इसमें इन्द्रदेव ने किसी तरह का फायदा समझ लिया हो, अस्तु।

सुबह की सुफेदी आसमान पर कुछ-कुछ फैल चुकी थी जब जमना और सरस्वती अपने सामान से हर तरह से दुरूस्त हो मरदाने भेष में तिलिस्मी झिल्ली चेहरे पर लगाये हुए घर से बाहर निकलीं। मकान के सदर फाटक पर दो कसे-कसाये घोड़े लिए साईस तैयार था, तथा और भी एक आदमी घोड़े पर सवार इन दोनों के आने का इन्तजार कर रहा था। जमना और सरस्वती दोनों घोड़ों पर सवार हो गईं और मैदान की तरफ चल निकलीं, वह आदमी भी पूछने पर ‘दत्त’ के नाम का परिचय देकर दोनों के साथ हो गया। दो-तीन जगह ठहर कर दिनभर बल्कि आधी रात तक सफर करने के बाद ये तीनों आदमी उस जंगल में जा पहुँचे जिसमें कि अजायबघर की इमारत थी।

इस अजायबघर का खुलासा हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में पूरा-पूरा लिखा जा चुका है, आशा है उसे हमारे पाठक भूले न होंगे, इसलिये यहाँ दोहरा कर उसके लिखने की कोई जरूरत नहीं जान पड़ती।

जब ये तीनों उस अजायबघर के पास पहुँचे तो कुछ दूर पहिले ही घोड़ों पर से नीचे उतर पड़े और घोड़ों को पेड़ के साथ बाँध कर पैदल अजायबघर की तरफ चल पड़े। जब उस चश्मे के पास पहुँचे जो अजायबघर के नीचे से होकर बहता था तब इन तीनों को अजायबघर के बंगले के बाहर निकलती हुई एक रोशनी दिखाई दी यह लोग अटक कर बड़े गौर से उस रोशनी की तरफ देखने लगे।

यद्यपि ये लोग पास पहुँच चुके थे मगर पेड़ों के ऐसे झुरमुट में खड़े थे कि इस अँधेरी रात के समय किसी के देख लेने का इन लोगों को बिल्कुल ही डर न था अस्तु बड़ी बेफिक्री के साथ ये लोग उस रोशनी की तरफ देखने लगे। कुछ ही क्षण में भूतनाथ पर इन लोगों की निगाह पड़ी जो कि अपने हाथ में रोशनी लिए हुए अजायबघर की सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था। उसके पीछे-पीछे चलते हुए जमानिया के दारोगा भी दिखाई पड़े ये दोनों सीढ़ियों के नीचे नहीं उतरे थे कि तीन लाशों को लिए और भी छः आदमी मकान के अन्दर से निकल कर इनके पीछे-पीछे आते दिखाई पड़े।

इन सभों को देख कर जमना, सरस्वती और दत्त तीनों घबड़ा उठे और उनके दिल में तरह-तरह के सोच-विचार पैदा और नष्ट होने लगे। जमना ने दत्त की तरफ घूम कर कहा-

जमना० : क्या यह सम्भव है कि यह सब उन्हीं लोगों को निकाल कर लिये जाते हों जिनको छुड़ाने के लिये हम लोग यहाँ आये हैं?

दत्त० : मुझे तो यही विश्वास होता है, क्योंकि जैपालसिंह का गिरफ्तार होकर तुम लोगों के कब्जे में पहुँचना ही इस बात की पुष्टि करता है कि भैयाराजा प्रभाकरसिंह और दयाराम ने भूतनाथ को छोड़ दिया। तो ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ ने दारोगा से मिल कर यह सब हाल नमक-मिर्च लगा कर बयान किया हो और दारोगा यह खयाल करके कि शायद जैपालसिंह की जुबानी किसी तरह वे लोग हमारे कैदियों का पता लगा लें और हमारे कैदियों को छुड़ा कर ले जाये। अपने कैदियों को दूसरी जगह रखने के लिये यहाँ से निकाल कर लिये जाते हों।

जमना० : बेशक यही बात है, वह देखो बंगले के अन्दर से एक आदमी और निकला, इसके हाथ में नंगी तलवार भी है।

दत्त : यह आदमी बहादुर मालूम पड़ता है और जान पड़ता है कि इन सभों का निगहबान है।

जमना० : ऐसी हालत में जिस तरह बन पड़े इन लोगों को रोकना और कैदियों को इनके कब्जे से छुड़ाना चाहिये नहीं तो हम लोगों की मेहनत बिल्कुल बर्बाद हो जायगी और पुनः कैदियों का पता लगाना बहुत मुश्किल हो जायेगा।

दत्त० : यह तो ठीक है मगर इतने आदमियों के कब्जे से इन कैदियों को छुड़ा लेना मुझ अकेले के लिये बहुत ही कठिन है, भूतनाथ साधारण ऐयार नहीं है, दारोगा भी लड़े बिना रह नहीं सकता और इनके पीछे-पीछे जो आदमी चला जा रहा है वह भी मुझे उन दोनों से बढ़ कर ताकतवर और बहादुर जान पड़ता है इसके अतिरिक्त जो लोग तीनों कैदियों को उठा कर लिये जा रहे हैं वे भी मुकाबला करने से बाज न आयेंगे।

जमना० : आप अकेले क्यों हैं? हम दोनों भी तो आपका साथ दे सकती हैं! यद्यपि हम दोनों औरतें हैं मगर जो तिलिस्मी खंजर इन्द्रदेव ने हम लोगों को दे रक्खा है उसका मुकाबला करना इन सभों के लिए कठिन ही नहीं, असंभव है।

दत्त० : हाँ ठीक है, मुझे भी इन्द्रदेव जी ने एक ऐसे ही गुण की तिलिस्मी तलवार दी है जिसके भरोसे पर मैं अकेला ही इन सभों का मुकाबला कर सकता हूँ यदि इन लोगों के पास कोई उसके मुकाबले का हरबा न हो तो।

जमना० : इन लोगों के पास भला इसके मुकाबले का हरबा कहाँ से आवेगा!

दत्त० : नहीं की हालत में तो कोई बात ही नहीं है, हम लोग जरूर फतह पावेंगे, परन्तु यदि कोई हरबा इसके जोड़ का इन लोगों के पास हुआ तो बड़ी ही मुश्किल होगी, हम लोग बिना गिरफ्तार हुए बाकी न रहेंगे। (कुछ रुक कर) अच्छा देखो में इनका मुकाबला करता हूँ, जरा इन लोगों को और आगे बढ़ लेने दो, तुम दोनों मेरी मदद के लिए तैयार रहना मगर दूर रहना, अगर देखना कि ये भी ऐसे ही तिलिस्मी हरबे से मेरा मुकाबला करने के लिए तैयार हो गये हैं ते तुम दोनों जरूर यहाँ से भाग जाना, मेरे लिए किसी तरह की चिन्ता न करना।

जमना० :मैं आपको ऐसे संकट में अकेले छोड़ कर..।

दत्त० : नहीं-नहीं मैं जो कहता हूँ कि तुम दोनों किसी बात का विचार न करके एकदम यहाँ से भाग जाना, मैं अपने को किसी-न-किसी तरह बचा ही लूँगा।

जमना० : खैर, जैसा आप कहते हैं मैं वैसा ही करूँगी।

भूतनाथ और दारोगा वगैरह कैदियों को लिए हुए लगभग दो-ढाई सौ कदम के आगे न बढ़े होंगे कि दत्त तेजी के साथ आगे बढ़ा और भूतनाथ का रास्ता रोक सामने खड़ा होकर बोला, ‘‘बस खबरदार, कदम रोक लो, बिना मेरी बात का जवाब दिये आगे मत बढ़ना नहीं तो अपनी जान से हाथ धो बैठोगे।’’

भूत० : (रुक कर और मशाल की रोशनी में अच्छी तरह दत्त का चेहरा देख कर) तुम कौन हो जो इस तरह से आकर मेरा रास्ता रोकते हो? तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूँ और मेरे साथ इस समय कितने आदमी हैं?

दत्त० : मैं तुम्हें खूब जानता हूँ और तुम्हारे साथियों को भी देख रहा हूँ।

भूत० : तो क्या तुम हम लोगों का मुकाबला करने के लिए तैयार हों?

दत्त० : बेशक! अगर तुम मेरी बातों का साफ-साफ जवाब न दोगे तो मैं अकेला तुम सबका मुकाबला करूँगा।

भूत० : तुम क्या पूछना चाहते हो?

दत्त० : सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि तुम लोग किस-किस को उठा कर कहाँ लिए जा रहे हो?

भूत० : इसका जवाब तुम कदापि नहीं पा सकते।

दत्त० : तो मैं तुम लोगों को जीता छोड़ भी नहीं सकता।

इतना कह कर दत्त ने म्यान से तलवार निकाल ली और मुकाबला करने के लिए भूतनाथ को ललकारा, भूतनाथ ने घूम कर दारोगा की तरफ देख कर कुछ इशारा किया और तब पीछे की तरफ हट मशाल ऊँची करके अपनी खास बोली में कुछ कहा दारोगा ने म्यान से तलवार निकाल ली और दत्त के मुकाबले में आ खड़ा हुआ, भूतनाथ की आवाज सुन कर वह आदमी भी आगे बढ़ आया जो सबके पीछे-पीछे आ रहा था, इसके अतिरिक्त वे लोग भी जो तीनों लाशों को उठाये हुए थे अपना बोझ जमीन पर रख कर आगे बढ़ आये और दत्त को पकड़ने के लिये तैयार हो गये। दारोगा ने दत्त पर तलवार से वार किया मगर उसका कोई नतीजा न निकला दत्त ने हँसकर दारोगा से कहा, ‘‘दारोगा साहब, क्या आप भी अपना नाम बहादुरों में लिखवाना चाहते हैं?’’

दारोगा० : क्या मैं मर्द नहीं हूँ?

दत्त० : आज तक तो कोई काम मर्दानेपन का आपने नहीं किया।

दारोगा० : खैर बहस की कोई जरूरत नहीं, तुम जो कुछ किया चाहते हो करो और समझ रक्खो कि (हाथ के इशारे से बता कर) इतने आदमियों का तुम कदापि मुकाबला नहीं कर सकते।

इतना कह कर दारोगा ने पुनः दत्त पर तलवार से वार किया और दत्त ने भी उसका जवाब तलवार से ही दिया। दत्त ने समझा था कि ये लोग सब बेईमान हैं। जरूर एक साथ मुझ पर हमला करेंगे। मगर ऐसा न हुआ, सब अलग खड़े तमाशा देखने लगे और दत्त तथा दारोगा साहब में लड़ाई होने लगी।

दत्त को बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब दारोगा साहब ने बड़ी मर्दानगी और दिलावरी के साथ उसका मुकाबला किया, दत्त जानता था कि दारोगा अपने घर के अन्दर ही के बहादुर हैं, किसी वीर के साथ वीरता प्रकट नहीं कर सकते।

लगभग आधे घण्टे के लड़ाई होती रही मगर दारोगा साहब को दत्त किसी रह से नीचा दिखा न सका। लाचार होकर दत्त ने कमर से तिलिस्मी तलवार निकाली और उससे दारोगा पर वार किया जिससे दारोगा के बदन पर एक छोटा-सा जख्म तो लगा मगर वह बेहोश नहीं हुआ।

यह तिलिस्मी तलवार वैसी ही थी जैसी कि प्रभाकरसिंह के पास थी और जो कुछ दिनों के लिये भूतनाथ के पास भी चली गई थी। इस समय दारोगा के पास भी वैसी ही तलवार और उसके जोड़ की अंगूठी मौजूद थी और यही सबब था कि दारोगा साहब जख्म खाकर भी बेहोश नहीं हुए मगर यह जान गये कि यह तलवार तिलिस्मी है और दत्त को भी विश्वास हो गया कि इसके पास कोई तिलिस्मी हरबा जरूर है।

मजबूर होकर दत्त ने यह तलवार भी म्यान के अन्दर रख ली और मुकाबला करने के लिए तिलिस्मी खंजर कमर से निकाला।

यह खंजर वैसा था जैसा कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को कमलिनी ने दिया था और जिसका खुलासा बयान चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है अर्थात् जिसका कब्जा दबाने से बिजली की तरह रोशनी पैदा होती थी और दुश्मनों की आँखें झप जाती थीं अथवा बदन के साथ लगाने से आदमी बेहोश हो सकता था।

दत्त ने खंजर का कब्जा दबाया और इसमें से बिजली की तरह रोशनी पैदा हुई जिससे दारोगा और भूतनाथ वगैरह सभों की आँखें बन्द हो गईं। मगर उस आदमी पर, जो इन सभों के पीछे आया था, और अब आगे बढ़ कर दत्त के पास पहुँच चुका था, इस रोशनी का कुछ असर न हुआ, थोड़ी देर के लिए हम इस आदमी का नाम भीम रख देते हैं क्योंकि इस जगह पर कह नहीं सकते कि वास्तव में उसका क्या नाम था।

दत्त के खंजर की अवस्था देख कर भीम आगे आया और दत्त के मुकाबले में खड़ा होकर बोला, ‘‘हम लोगों पर फतह नहीं पा सकते। क्यों व्यर्थ अपनी जान के दुश्मन बनते हो और हमारा हर्ज कर रहे हो!’’

भीम ने वैसा ही तिलिस्मी खंजर कमर से निकाला और दत्त का मुकाबला किया अर्थात दत्त और भीम में तिलिस्मी खंजर से लड़ाई होने लगी। खंजरबाजी में दोनों ही निपुण और होशियार मालूम पड़ते थे। लगभग आध घंटे दोनों तक लड़ाई होती रही मगर दोनों में से कोई एक-दूसरे पर फतह न पा सका।

दारोगा के साथियों में से कोई भी इस बहादुराना और अजीब लड़ाई का लुत्फ उठा न सका क्योंकि खंजरों की चमक ने उन सभों की बल्कि दारोगा तक की आँखें बन्द हो जाती थीं। हाँ जमना और सरस्वती जरूर उन लोगों की लड़ाई ताज्जुब के साथ देख रही थीं जो कि उन सभों से थोड़ी ही दूर पर झुर-मुट में छिपी हुई थीं।

जब खंजरों की लड़ाई का कुछ भी नतीजा न निकला तब दत्त और भीम दोनों एक-दूसरे का मुकाबला छोड़ कर खड़े हो गये और खंजरो की चमक में एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। भीम ने धीरे-से दत्त से कहा, ‘‘मालूम होता है कि बादलों में अब बरसने की ताकत नहीं रहीं।’’

दत्त० : बेशक ऐसा ही है क्योंकि हवा-पानी और धुएँ का सच्चा जमावड़ा नहीं हो सका।

दत्त का जवाब सुनते ही भीम उसके पैरों पर गिर पड़ा और दत्त ने उसे उठा कर छाती से लगा लिया। इसके बाद वे दोनों आदमी वहाँ से कुछ दूर हट कर खड़े हो गये और आपुस में धीरे-धीरे कुछ बातें करने लगे। इस मामले को सभों ने आश्चर्य और खेद के साथ देखा तथा जमना और सरस्वती को उन दोनों का ऐसा करना बहुत ही बुरा मालूम हुआ। केवल इतना ही नहीं बल्कि उन दोनों को दत्त पर एक तरह का शक पैदा हो गया। सरस्वती ने जमना से कहा, ‘‘यद्यपि हम लोगों ने उन दोनों की बातें नहीं सुनी मगर उनके ढंग से मालूम होता है कि दत्त ने अपने को कमजोर पाकर गिरफ्तार हो जाने के डर से दुश्मन को दोस्त बना लिया।’’

जमना० : मेरा भी यही खयाल है। अगर यह बात सच है तो हम दोनों के लिए भी खैरियत नहीं है।

सरस्वती० : बेहतर तो यही होगा कि हम दोनों यहाँ से हट जाएँ और किसी दूसरी जगह छिप कर तमाशा देखें, जिसमें दत्त हमारे दुश्मनों को लेकर अगर यहाँ आवे तो यकायक हम दोनों को पा न सके।

जमना० : हाँ, ऐसा ही करो।

इतना कह वे दोनों वहाँ से हट गईं और बहुत धीरे-धीरे कदम उठाती हुई दूसरी तरफ चलीं। जब दत्त और भीम की बातें समाप्त हो गईं तब वे दोनों पुनः उसी जगह पहुँचे जहाँ भीम के साथी लोग खड़े थे। भीम ने भूतनाथ और दारोगा का हाथ पकड़ कर कहा-‘‘आओ-आओ। जरा जमना और सरस्वती से मुलाकात करो। वे दोनों भी तुम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए इसी जगह आई हुई हैं!’’

दत्त, भीम, दारोगा और भूतनाथ उधर रवाना हुए जहाँ जमना और सरस्वती को दत्त छोड़ गया था, मगर ठिकाने पहुँच कर जब जमना और सरस्वती को नहीं पाया तब दत्त को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह खंजर की अद्भुत रोशनी में घूम-घूम कर जमना और सरस्वती को ढूँढने लगा। उसी समय बहुत-से आदमी हाथ में नंगी तलवारे, लिए हुए वहाँ आ पहुँचे जिन्होंने उस सारी जमीन को घेर लिया जहाँ दत्त, भीम, दारोगा, भूतनाथ और उनके साथी लोग थे तथा एक जगह मौका देख कर जमना और सरस्वती भी छिपी हुई थीं।

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