मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 2 भूतनाथ - खण्ड 2देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण
बारहवाँ बयान
दोपहर की कड़ी धूप में भी भूतनाथ को चैन नहीं। देखिये किस तेजी के साथ सन्नाटे में सर पर कपड़ा रक्खे हुए चला जा रहा है! जमानिया को छः सात कोस पीछे छोड़ आया है और दक्खिन झुकता हुआ पश्चिम की तरफ चला जा रहा है सामने कोस-डेढ़ कोस की दूरी पर एक जंगल है जिसकी तरफ वह कभी-कभी सर उठा कर देख लेता है और पुनः सर झुका तेजी के साथ रवाना होता है।
जंगल के पास पहुँच कर उसने अपनी चाल धीमी कर दी और चौकन्ना हो कर इधर-उधर देखता हुआ जंगल के भीतर जाने लगा। एक कोस से ज्यादा न गया होगा कि बहुत धने और भयानक जंगल में जा घूमता-फिरता ऐसे ठिकाने पर पहुँचा जहाँ पानी का एक सुन्दर चश्मा बह रहा था और किनारे पर बड़े-बड़े साखू और शीशम के पेड़ बहुतायत के साथ मौजूद थे जिनके नीचे पत्थर के बड़े-बड़े चट्टान थे जो इस समय पेड़ों की सूखी पत्तियों से प्रायः ढके-से दिखाई दे रहे थे। चारों तरफ अच्छी निगाह दौड़ाने के बाद भूतनाथ एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और सर झुकाकर कुछ सोचने तथा किसी के आने का इन्तजार करने लगा, थोड़ी-थोड़ी देर में जब कभी पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज उसके कान में पड़ती तो वह सिर उठा कर उस तरफ देख लेता और जब किसी पर निगाह न पड़ती तो फिर सिर झुका कर सोचने लग जाता।
इसी तरह पर सर उठा कर देखते और सोचते हुए उसे डेढ़ घण्टे से ज्यादे बीत गया और तब वह घबड़ा कर इधर-उधर घूमने के लिए उठा और यह कहता हुआ सामने की तरफ बढ़ा, ‘ओफ उसके आने में बड़ी देर हो गई कदाचित कोई विघ्न तो नहीं पड़ा’! इसी समय सामने से उसका एक शागिर्द आता हुआ दिखाई पड़ा जिसका चेहरा खून से रंगा हुआ था और कपड़े भी खून से तरबतर थे।
पास पहुँचने पर भूतनाथ ने ताज्जुब के साथ उसकी तरफ देखा और कहा, ‘‘पारस, यह क्या मामला है, तुम इस तरह पर जख्मी क्यों हो रहे हो?’’
पारस० : आपकी आज्ञानुसार हम तीनों आदमी जैपालसिंह की गठरी बारी-बारी से पीठ पर लादे हुए इस तरफ आ रहे थे। जब यहाँ से सिर्फ एक कोस की दूरी पर रह गए तब एक सवार ने वहाँ पहुँच कर हम लोगों का मुकाबला किया जो बहुत ही बहादुर और नौजवान जान पड़ता था तथा उसका घोड़ा भी बहुत ही अनमोल खूबसूरत और ताकतवर था। उसने हम लोगों से डपट कर पूछा, ‘‘तुम लोग कौन हो?’’ परन्तु हम लोगों ने उसे किसी तरह का साफ और सच्चा जवाब न दिया, इस पर उसने रंज होकर हम लोगों पर चाबुक का वार किया। मैंने जैपालसिंह की गठरी जमीन पर रख दी और तीनों आदमी एक साथ उस पर टूट पड़े मगर उसका कुछ भी न बिगाड़ सके। उसने भी तलवार म्यान से निकाल ली और हम तीनों के हमले का अच्छी तरह जवाब दिया।
हम तीनों उसके हाथ से जख्मी हुए मगर उसके करारेपन में कुछ भी फर्क न पड़ा, हम लोगों के सामने खड़ा रहा और अन्त में बोला कि ‘तुम लोग कौन हो इसे हम खूब जानते हैं’। इतना कह कर वह घोड़े से नीचे उतरा और जैपालसिंह की गठरी खोल कर उसने उसे अच्छी तरह देखा, तब अपनी जेब में से लखलखे की डिबिया निकाल कर जैपाल को सुँघाया और जब वह होश में आया तो उसे कहा कि ‘उठो और जल्दी से भाग जाओ। क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि गदाधरसिंह ने तुम्हे कैद कर लिया और ये तीनों गदाधरसिंह के आदमी हैं जो तुम्हें कहीं लिए जा रहे हैं? मैंने तुम्हे इस आफत से रिहाई दी है, अब तुम जाकर दारोगा से कह दो कि गदाधरसिंह पर कदापि भरोसा न करे। उठो और जल्दी के साथ यहाँ से भागो’!
उस सवार की बातें सुन कर जैपालसिंह चैतन्य हो गया और बड़े गौर से हम लोगों को देख कर सवार से बोला, ‘‘मैं खूब अच्छी तरह से पहिचान गया, बेशक ये लोग गदाधरसिंह के शागिर्द हैं। आपने मुझ पर बड़ी ही कृपा की कि इस आफत से मेरी जान बचाई। क्या आप अपना परिचय मुझको नहीं दे सकते है?’’ इसके जवाब में सवार ने कहा कि ‘हम अपना परिचय तुम्हें नहीं दे सकते, हाँ, इस घोड़े पर अपने साथ सवार करा तुम्हें कुछ दूर तक पहुँचा तो सकते हैं जिससे ये लोग तुम्हारा पीछा करके तुम्हें पुनः गिरफ्तार न कर सकें।’’
हम लोगों में इतनी हिम्मत न थी कि उठ कर उस सवार का मुकाबला करते या उससे कुछ कहते। देखते-ही-देखते उस सवार ने जैपालसिंह को अपने घोड़े पर बैठा लिया और एक तरफ का रास्ता लिया। घण्टे-भर बाद हम लोगों में उठने की ताकत हुई, मै यहाँ आपके पास पहुँचा और मेरे साथी भी पीछे-पीछे आ रहे हैं।
पारस की बातें सुन कर भूतनाथ ने उदासी के साथ कहा, ‘‘यह बहुत ही बुरा हुआ! हम जैपालसिंह के दिल में यह बात जमा दिया चाहते थे कि तुम्हें तुम्हारे एक दुश्मन मेघराज नामी ने गिरफ्तार कर लिया था और हमने उसके हाथ से तुम्हारी जान बचाई है, मगर अफसोस, तुम लोगों के किए कुछ न हुआ।’’
पारस० : आखिर हम लोग करते ही क्या?
भूत० : तुम लोग तीन ऐयार होकर एक आदमी का मुकाबला न कर सके तो अब क्या कहा जाय!
पारस ० : दुश्मन ही ऐसा जबर्दस्त था, अगर आपका उसका मुकाबला हो जाता तो आपको भी मालूम हो जाता कि उसका मुकाबला..।
भूत० : (चिढ़कर) अजी रहने भी दो। अगर मेरा उसका मुकाबला हो जाता तो उसे मजा भी चखा देता और तुम लोगों को भी दिखा देता कि ऐयारी और बहादुरी किसे कहते हैं।
पारस० : शायद ऐसा ही हो। मगर आपकी बराबरी हम लोग क्योंकर कर सकते हैं। (घबराहट के साथ सामने की तरफ देखता हुआ) ईश्वर कुशल करे, लीजिये वह यहाँ भी आ पहुँचा! अब आप भी इसका मुकाबला करके अपने दिल का हौसला मिटा लीजिये।
भूतनाथ ने चौकन्ने होकर उस तरफ देखा जिधर पारस ने इशारा किया था। एक खुशरू नौजवान और बहादुर शहसवार पर उसकी निगाह पड़ी जिसका घोड़ा भी बहुत खूबसूरत और ताकतवर मालूम होता था और अठखेलियाँ करता हुआ भूतनाथ की तरफ बढ़ा आता था।
उस सवार की पोशाक अमीराना थी और कई तरह के हरबों से वह अपने को सजाए हुए था। रंग गोरा, चेहरा साफ और सुडौल तथा बड़ी-बड़ी आँखों में हिम्मत और मर्दानगी की झलक पाई जाती थी। पर उसकी सिकुड़ी हुई चौड़ी पेशानी की मददगार चढ़ी भृकुटी की तरफ ध्यान देने से मालूम होता था कि इस समय वह बड़े ही क्रोध में है। यद्यपि ढाल-तलवार, खंजर, नेजा, कमान और तीर इत्यादि उसके पास सभी कुछ थे परन्तु हाथ में वह एक मजबूत कोड़ा ही लिए था जिसकी सुनहरी डण्डी पर नेहायत ही नफीस जड़ाऊ काम किया हुआ था और उसमें जड़े हुए कीमती हीरे दूर से ही अपनी चमक-चमक दिखा रहे थे।
देखते-ही-देखते वह सवार भूतनाथ के पास आकर खड़ा हो गया और मीठी परन्तु गम्भीर आवाज में बोला, ‘‘तुम्हारे पास सिर्फ एक ही शागिर्द को देखता हूँ बाकी के दो कहाँ गये जो मेरे हाथ से जख्मी हुए थे?’’
भूत०: (बड़े क्रोध के साथ सवार की तरफ देखता हुआ) यद्यपि चेहरे पर नकाब नहीं है तथापि मैं तुम्हें पहिचान न सका। तुम कौन हो और मेरे साथ ऐसी बेअदबी करने का कारण क्या है?
सवार० : यद्यपि तुम मुझे पहिचानते नहीं मगर मेरा और तुम्हारा कई दर्फ सामना हो चुका है! मेरी और तुम्हारी दुश्मनी पुरानी है, यद्यपि तुम मुझे नहीं पहिचानते! मैं तुम्हारा पुराना खैरख्वाह मगर अब बदख्वाह हूँ, यद्यपि तुम मुझे नहीं पहिचानते! मैंने तुम्हारा बहुत कुछ भला किया है और अब बुरा करने के लिये तैयार हूँ यद्यपि तुम मुझे नहीं पहिचानते! तुम्हारी हर एक कार्रवाई को जानता हूँ, तुम्हारी नीयत को पहिचानता हूँ तुम्हारी चालबाजियों का हाल रोज ही सुना और समझा करता हूँ, यद्यपि तुम मुझे नहीं पहिचानते!
भैयाराजा के साथ जिस तरह पर दारोगा से मिल कर तुमने दुश्मनी की और पुनः भैयाराजा के कब्जे में फँस कर तथा उनकी कुदरत को जान कर उनके ताबेदार बने और सदैव ताबेदार बने रहने की कसम खाई, वह भी मुझसे छिपा हुआ नहीं है। और अब जो तुम एक अदनी बात पर भैयाराजा से चिढ़ गये और दारोगा को अन्धा बना कर उसे धोखा देते हुए अपना काम सिद्ध किया चाहते हो उसे भी मैं देख सुन रहा हूँ, यद्यपि तुम मुझे नहीं पहिचानते! मैंने ही तुम्हारे कब्जे से जैपाल को छुड़ा कर दारोगा के पास भेज दिया है और अब पुनः तुम्हारा सामना करने के लिए तैयार हूँ, यद्यपि..।
भूत०: (झुँझला कर) मगर इन बातों से तुम्हें मतलब ही क्या कौन हो सो बताओ।
सवार० : मैं वही हूँ जिसे तुम जानते हो मगर पहिचानते नहीं। मैं वही हूँ जिसने तुम्हारी वह सब दौलत छीन ली जो किसी महात्मा ने तुम्हें दी थी मैं वही हूँ जिसने भोलासिंह बन कर तुम्हारी कैद से प्रभाकरसिंह को छु़ड़ाया, और मैं वही हूँ जिसके आधीन तुम्हारे वे सब शागिर्द काम कर रहे हैं जिनके साथ तुमने उस खोह में बड़ी ही बेइज्जती का बर्ताव किया था। मगर अफसोस, मैं तुम्हें अभी अपना नाम नहीं बता सकता।
भूत० :(म्यान से तलवार खैंच कर) खैर तो मालूम हो गया कि मेरे सबसे बड़े दुश्मन तुम हो और तुमसे मुझे जरूर बदला लेना चाहिए।
इतना कह कर भूतनाथ ने उस सवार पर तलवार से हमला किया जिसे उसने बड़ी खूबी के साथ अपने चाबुक की डण्डी पर रोका और तब उसी से भूतनाथ की गर्दन पर एक ऐसा हाथ मारा कि भूतनाथ का सिर घूम गया और वह बेचैन होकर जमीन पर बैठ गया। सवार ने ललकारा और कहा, ‘‘बस सिर्फ एक ही चाबुक में तुम्हारा यह हाल है! मैं तुमसे लड़ने और तुम्हारा हौसला देखने के लिए आया हूँ। मालूम होता है कि तुम्हारे लिये मुझे तलवार या खंजर निकालने की जरूरत न पड़ेगी और सिर्फ इस चाबुक ही से अच्छी तरह तुम्हारा मुकाबला कर सकूँगा!’’
भूतनाथ फिर सम्हल कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘खैर यह इत्तिफाक की बात थी कि तुम्हारी एक जरा-सी लकड़ी से मैं चोट खा गया। आओ मैं अब अच्छी तरह मुकाबला करने के लिए तैयार हूँ।’’
सवार० : मगर गदाधरसिंह तुम इस बात का भी खयाल कर लेना कि इस समय मेरे पास यह तलवार भी मौजूद है जो तुमने धोखा देकर प्रभाकरसिंह की कमर से निकाल ली थी और जिसे तुम्हारे एक शागिर्द ने तुम्हें उल्लू बना कर तुम्हारे कब्जे से ले लिया था। (तलवार निकाल कर और दिखा कर) देखो यह वही तलवार है और इसके जोड़ की यह अँगूठी। मगर सम्भव है कि तुम्हारे लिए इसे काम में लाने की जरूरत न पड़े। लो उस तरफ देखो। तुम्हारे वे दोनों शागिर्द भी यहाँ आ पहुँचे जो मेरे हाथ से जख्मी हुए थे।
सवार की बातें सुन कर और उस अजीब तलवार की सूरत देख कर भूतनाथ का कलेजा काँप उठा और वह घबड़ा कर उस सवार का मुँह देखने लगा। सवार ने पुनः भूतनाथ से कहा, ‘‘तुम्हारा वह शागिर्द भी मेरे साथ है जिसने यह तलवार ले ली थी और जो चन्द्रशेखर के नाम से तुम्हारी खबर लिया करता है।’’
भूत० : मेरे साथ तुम्हारे दुश्मनी करने का सबब क्या है?
सवार० : यही कि मैं भैयाराजा और प्रभाकरसिंह का दोस्त हूँ।
भूत० : क्या तुम्हें यह नहीं मालूम है कि भैयाराजा और प्रभाकरसिंह से अच्छा बर्ताव रखने के लिए मैं कसम खा चुका हूँ और भैयाराजा से प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि अब कदापि आप लोगों के साथ बुरा बर्ताव न करूँगा।
सवार० :हाँ मालूम है, मगर अब जो तुम्हारी नीयत पुनः खराब हो गई है तो क्या किया जाय?
भूत० : मेरी नीयत कुछ खराब नहीं है, आपको कोई भी बात ऐसी मालूम नहीं होगी जो कि इन दिनों में मैंने उन लोगों को नुकसान पहुँचाने के खयाल से की हो।
सवार० : उस दिन मेघराज का परिचय न पाने के कारण जो तुम भैयाराजा से रूठ कर और तनक कर चले गये क्या वह मामूली बात थी! उसके बाद तुम जाकर दारोगा के दोस्त बन बैठे और हरनामसिंह को कैद से छुड़ाने के बाद जैपाल को जिसे तुमने खुद गिरफ्तार किया था दोस्त बना दारोगा के पास ले चले थे, वह क्या ध्यान देने योग्य नहीं हैं?
भूत० : मगर तुम नहीं समझ सकते कि ये सब काम मैं किस नीयत से कर रहा हूँ।
सवार० : मैं खूब जानता हूँ। तुम्हारी नीयत का हाल किसी से छिपा हुआ नहीं है, लालच, बदनीयती और बेईमानी तो मानो तुम्हारे ही लिये बनाई गई है। अब हम लोग तुम्हारे धोखे में कभी नहीं आ सकते।
भूत० : खैर जब तुम्हारी ऐसी ही समझ है तो तुम्हारे साथ बहस करने की कोई जरूरत नहीं।
भूतनाथ ने इतना कहने को तो कह दिया मगर वास्तव में वह बहुत ही डरा हुआ था और आश्चर्य के साथ सोच रहा था कि यह सवार कौन है और मेरे भेद की बातें इसे कैसे मालूम हुईं तथा अब देखा चाहिये कि यह मेरे साथ कैसा बर्ताव करता है।
इतने में भूतनाथ की निगाह मैदान की तरफ जा पड़ी और उसने दो नकाबपोश सवारों को अपनी तरफ आते देखा। उसे विश्वास हो गया कि वे दोनों नकाबपोश सवार भी जरूर इस सवार के साथी और मददगार ही होंगे। भूतनाथ को उत्कण्ठा के साथ मैदान की तरफ देखते पा उस सवार ने भी घूम कर देखा और कहा, ‘‘लो गदाधरसिंह, मेरे दोनों साथी भी यहाँ आ पहुँचे, अब तो तुम्हारी हिम्मत बिल्कुल ही टूट गई होगी!’’
भूत ० : अगर ईमानदारी और धर्म का मार्ग छोड़ा न जाए तो मेरी हिम्मत कभी टूट नहीं सकती।
सवार० : इसका क्या मतलब? ईमानदारी और धर्म की क्या बात है?
भूत० : इसका मतलब यह है कि अगर मुकाबिले की लड़ाई की जाय, एक पर दो टूट न पड़े, पैदल के मुकाबले में सवार न लड़े और मामूली हर्बें के मुकाबले में तिलिस्मी हर्बा न बर्ता जाय- तो मेरी हिम्मत कभी नहीं टूट सकती, यों तो आप तीनों सवारों के मुकाबले में मैं अभी से हार मानता हूँ, हर्बा छोड़े देता हूँ और आपका हुक्म मानने के लिए तैयार हूँ। परन्तु यदि आपको बहादुरी का घमंड है और मेरी बहादुरी भी देखा चाहते हैं तो उन दोनों सवारों को दूर खड़ा कीजिये, तिलिस्मी तलवार कमर में रखिये और घोड़े से नीचे उतर कर मुकाबिले में आइये।
सवार० : बेशक मैं ऐसा ही करूँगा।
इतने ही में वे दोनों सवार भी वहाँ आ पहुँचे। पहिले सवार ने उनसे अपनी खास भाषा में जिसे भूतनाथ समझ न सका कुछ कहा जिसे सुनते ही वे दोनों कुछ दूर हट कर खड़े हो गये और तब पहिला सवार तिलिस्मी तलवार कमर में रख कर घोड़े से नीचे उतर पड़ा और खंजर हाथ में लेकर भूतनाथ के सामने आया।
भूत० : हाँ, अब आप मेरे हौसले को देख सकते हैं।
सवार० : खैर वार करो। मैं जवाब देने के लिए तैयार हूँ।
भूतनाथ और सवार में लड़ाई होने लगी यद्यपि वह सवार बहादुर और लड़का था परन्तु भूतनाथ ने भी उसका खूब ही मुकाबिला किया। पूरे घण्टे-भर तक लड़ाई हुई मगर हताश न हुए। लड़ते और पैंतरा बदलते हुए भूतनाथ ने कई चक्कर काटे और मौका देखता हुआ सवार के घोड़े के पास पहुँचा जो बिना बँधे हुए चुपचाप खड़ा अपने टापों से जमीन खोद रहा था। फुर्ती के साथ छलाँग मार कर भूतनाथ उस घोड़े पर सवार हो गया और एक तरफ को भाग निकला।
यह सवार जो भूतनाथ से लड़ रहा था पैदल होने के कारण भूतनाथ का पीछा न कर सका मगर उसके दोनों दोस्त नकाबपोश सवारों ने फौरन बड़ी तेजी के साथ भूतनाथ का पीछा किया।
वह घोड़ा बहुत ही उम्दा था जिस पर सवार होकर भूतनाथ भाग निकला था परन्तु इन दोनों नकाबपोशों के घोड़े भी उससे कम न थे इसलिए बराबर भूतनाथ का पीछा किये चले गये, यद्यपि उसके पास नहीं पहुँच सके परन्तु उसके और बीच में फासला भी न बढ़ने दिया। जब नकाबपोशों ने देखा कि भूतनाथ हम लोगों को अपने पास पहुँचने नहीं देगा और सोचा कि अगर इसी तरह हम लोग पीछा किये चले जायेंगे तो तीनों घोड़े बेकार हो जायेगें, और अपने साथी से भी (जो भूतनाथ से लड़ा था) बहुत दूर निकल जायँगे, लौट कर पुनः उसके पास पहुँचना कठिन हो जायेगा तब उन दोनों में से एक घोड़े की लगाम तो काठी के साथ अड़ा दी और तीर-कमान निकाल कर वार करने के लिए तैयार हो गया।
यह देखकर दूसरे नकाबपोश ने आवाज दी और कहा, ‘‘देखना मेघराज गदाधरसिंह पर तीर मत चलाना।’’ इसके जवाब में मेघराज ने कहा, ‘‘नहीं, गदाधरसिंह को नहीं मारूँगा बल्कि घोड़े को कुछ जख्मी करूँगा, यद्यपि वह अपना ही घोड़ा है मगर लाचारी है!’’ इतना कह कर मेघराज ने तीर चलाया जो कि भूतनाथ के घोड़े के पिछले पैर में लगा और जख्मी हो जाने के कारण उसकी चाल भी धीमी पड़ गई।
कुछ ही मौका मिलना इन दोनों पीछा करने वालों के लिए काफी था। बात-की-बात में ये दोनों भूतनाथ के पास जा पहुँचे और उसको ललकारा। जब भूतनाथ ने देखा कि अब भागना व्यर्थ है और घोड़ा भी जिस पर वह सवार था बेकार हो गया है तब वह खड़ा हो गया और न-मालूम क्या-क्या सोचता हुआ उन दोनों सवारों की तरफ देखने लगा।
मेघ० : क्यों जी गदाधरसिंह, तुम तो अपने को बहादुर कहते थे और एक पर एक लड़ने के लिए ललकारते थे। इस तरह धोखा देकर भागने की क्या जरूरत थी?
भूत० : जब मैंने देखा कि तुम तीनों आदमी नाहक मेरे पीछे पड़े हुए और इन्साफ पर कुछ भी ध्यान नहीं देते तब मुझे यही रास्ता अच्छा मालूम हुआ।
मेघ० : ईश्वर को धन्यवाद दो कि हम तीनों आदमी तुम्हारे दोस्त हैं, अगर इस समय हमारे बदले कोई तुम्हारा दुश्मन होता तो जान से तुम्हें मारे बिना न रहता।
भूत० : (हँस कर) क्या अच्छे दोस्तों से सामना पड़ा है! यद्यपि मेरा दिल भी यही गवाही देता है कि आप लोग मेरे दुश्मन नहीं हैं परन्तु इस दोस्ती की बलिदहारी है कि नाहक मेरे बने-बनाये काम को आप लोगों ने बिगाड़ दिया और बहादुर भैयाराजा के पुनःकुछ दिनों तक संकट में पड़े रहने का सामान कर दिया।
मेघराज : सो क्योंकर? कौन-सा तुम्हारा काम हम लोगों ने बिगाड़ दिया?
भूत० : यही कि जैपालसिंह को मेरे कब्जे से बाहर कर दिया जिसकी बदौलत मैं आज ही किसी समय भैयाराजा की स्त्री को दारोगा के पंजे से रिहाई दिलाने वाला था।
मेघ० : मगर हम लोगों को कैसे विश्वास हो सकता है कि जो कुछ तुम कह रहे हो वह सच है और तुम हम लोगों को धोखे में नहीं डाला चाहते।
भूत० : अब आप लोगों को विश्वास हो, या न हो हमारा काम तो बिगड़ ही गया।
मेध० : ऐसा तुम नहीं कह सकते, क्योंकि यद्यपि हमारे दोस्त ने जैपालसिंह को तुम्हारे कब्जे से बाहर निकाल दिया मगर अपने कब्जे से बाहर नहीं निकाला।
भूत० : (आश्चर्य और कुछ भरोसे के साथ) क्या वास्तव में जैपाल अभी आप लोगों के कब्जे में है?
मेघ० : बेशक!
भूत० : तब आप लोग अपना ठीक-ठीक परिचय मुझे क्यों नहीं देते कि मैं भी अपना खुलासा हाल आप लोगों से बयान करूँ? जैपाल का आपके कब्जे में बने रहना मेरे लिए खुशी की बात होगी यदि आप लोग वास्तव में मेरे विपक्षी न होंगे।
इतना सुन कर मेघराज के साथी ने भूतनाथ से कहा, ‘‘और कोई चाहे अपना परिचय तुम्हें दे या न दे परन्तु मैं अपना परिचय तुम्हें जरूर दूँगा। यद्यपि तुम बड़े बेमौके मुझसे रूठ कर भाग गये और मेरे बने-बनाये काम में बाधा डाल कर तुमने मेरा मन मैला कर दिया तथापि मैं इसी समय अपना परिचय देता हूँ!’’
इतना कह कर उस सवार ने जो वास्तव में भैयाराजा थे, अपने चेहरे पर से तिलिस्मी झिल्ली उतार दी और भूतनाथ से कहा-‘‘देखो और पहिचानों कि मैं कौन हूँ!’’
भैयाराजा को पहिचान कर भूतनाथ हँसा और झुक कर सलाम करने के बाद बोला, ‘‘बस सिर्फ एक मौके पर रूठ कर मेरे चले जाने से आपका दिल इतना बदल गया! अच्छा अब इसके पहिले कि मैं आपसे कोई मौके की बात कहूँ आप अपना निशान भी दीजिए, सिर्फ इस झिल्ली के उतर जाने से मेरा सन्तोष नहीं।
भैया० : क्या अब मैं शंखध्वनि करूँ?
भूत० : नहीं, कोई जरूरत नहीं, विश्वास हो गया। अब यह बताइये कि ये आपके साथी साहब कौन हैं?
भैया० : इन्हीं का परिचय न पाने से तुम रूठ गये थे, और इस समय भी तुम इनका परिचय नहीं पा सकते।
भैयाराजा की यह आखिरी बात सुन कर भूतनाथ बड़ा ही क्रोधित हुआ परन्तु अपने दिल के इस भाव को भी उसने खूब दबाया और कहा, ‘‘खैर इनका परिचय पाने की मुझे जरूरत भी नहीं, अब मैं इनके बारे में कभी कुछ न पूछूँगा। हाँ, उन साहब के बारे में आप कुछ कहियेगा जिनसे लड़ता हुआ मैं भाग आया हूँ?’’
भैया० : नहीं, उनके बारे में भी मैं कुछ नहीं कह सकता जब तक कि वे खुद अपना परिचय देने के लिए तैयार न हो जायँ।
भूत० : खैर उन्हें भी जाने दीजिये और यह बताइये कि मेरे साथ अब आप कैसा सलूक किया चाहते हैं?
भैया० : इसका जवाब देना तब तक मुश्किल है जब तक तुम्हारी नीयत का ठीक-ठीक हाल न मालूम हो जाय, सच तो यह है कि मैं अभी तक तुम पर भरोसा करता हूँ और तुम्हारी कसमों पर विश्वास रखता हूँ मगर तुम्हारी करतूतों को देख कर मुझे लोगों के सामने शर्मिन्दा होना पड़ता है। लोग यह कहते है कि तुम्हारा गदाधरसिंह पर भरोसा करना परले सिरे की बेवकूफी है, तुम उसके हाथ से जरूर सताए जाओगे और धोखा उठाओगे।’
भूत० : बेशक लोग आपसे ऐसा कहते होंगे और मैं अपने ऊपर ध्यान देता हूँ तो यही निश्चय होता है कि जो कुछ मैं कर रहा हूँ वह मेरी नादानी और बेवकूफी है। बैठे-बैठाए नाहक जी तोड़ कर मेहनत करना और उसके बदले में बदनामी उठाना बस इसके सिवाय और कुछ भी नहीं होता मेरे सिर पर जो पाप का कटोरा लदा हुआ है उसका बोझ दिनों-दिन बढ़ता ही जाता है। दोस्तों के दिल में मैल बैठती जाती है और दुश्मनों की गिनती तरक्की कर रही है। जिसके साथ नेकी करो वही बदी करने के लिए तैयार हो जाता है, जिसकी खिदमत करो वही नालायक बनाता है और जिसका साथ करो वही घृणा करता है, ऐसी अवस्था में मैं यह नहीं समझता कि मेरे लिए अब क्या कर्तव्य है।
यदि मैं सब झंझटों को छोड़ कर अपने घर बैठता हूँ तो लोग आराम से बैठने भी नहीं देते। इसके अतिरिक्त पेशा ऐयारी का भी ऐसा खराब है कि बिना मालिक का या अपना काम किए चुपचाप बैठ ही नहीं सकता और जब काम करने के लिए निकलूँगा तो किसी से दोस्ती और किसी से दुश्मनी जरूर ही पैदा होती अस्तु क्योंकर कह सकता हूँ कि मेरी जिन्दगी किसी तरह आराम से बीत सकती है।
आप ही देखिए कि आपके लिए मैं कितनी मेहनत कर रहा हूँ और अपनी मेहनत का अच्छा फल भी पा चुका हूँ मगर इस समय आप ही को मेरी बातों पर विश्वास नहीं होता और मेरी सचाई का आप सबूत खोजते है जिसका मुझे बड़ा ही दुःख है। मैं खूब समझता हूँ कि जिस तरह आप मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते उसी तरह मेरी कसमों पर भी विश्वास न करेंगें परन्तु कोई चिन्ता नहीं, मैं बहुत अच्छा सबूत देकर आपको अपनी बातों पर विश्वास दिलाऊँगा और फिर इसके बाद ही से दुनिया के सब मामलों से हाथ धो बैठूँगा। आज से आप गदाधरसिंह को किसी काम में हाथ डालते न देखेंगे। अच्छा आप लोग घोड़ों के नीचे उतरें और मैं भी कुछ अपनी सफाई का सबूत दिखाता हूँ उसे देखें।
भैया० : (मुस्कुराते हुए) इस समय तो तुम बड़े ज्ञानी मालूम पड़ते हो! ईश्वर करे तुम्हारा यह ज्ञान बराबर बना रहे और तुम्हारे सिर पाप का बोझ बढ़ने न पावे। अगर इस समय तुमने कोई वाजिब सबूत देकर अपने को सच्चा साबित कर दिया तो बेशक मैं तुमको अपना दोस्त मानूँगा और तुम्हारी तरफ से जो कुछ मैल मेरे दिल में बैठ गई उसे साफ कर दूँगा।
इतना कह कर भैयाराजा घोड़े से नीचे उतर पड़े। भूतनाथ और मेघराज भी घोड़े से नीचे उतरे और तीनों आदमी घोड़ों का उचित प्रबन्ध करने के बाद एक सायेदार पेड़ के नीचे बैठ कर पुनः बातचीत करन लगे।
भूत० :बेशक मैं अपनी सचाई के लिये जो कुछ सबूत दूँगा, उसे आप किसी तरह भी रद्द न कर सकेगें। आप लोगों के खयाल से मैं दारोगा का दोस्त बना हूँ, यह सही है मगर मेरे दिए सबूत को देख कर आपका यह खयाल भी बदल जायगा और आपको विश्वास हो जायगा कि जो कुछ मैं कर रहा हूँ वह केवल आपकी स्त्री को उस दुष्ट के पंजें से छुड़ाने के लिए, बस अब मेरे लिए इस दुनिया में इतना ही काम बाकी है। फिर मै किसी का मुँह न देखूँगा और न मेरा ही मुँह कोई देख सकेगा। सबूत ढूँढने के लिए भी मुझे कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं हैं।
सब इसी जगह मेरे बटुए के अन्दर मौजूद हैं।
इतना कह कर भूतनाथ अपने ऐयारी के बटुए को खोल कर उसकी हर एक चीज जाँचने और इधर-उधर करने लगा, साथ-ही-साथ बात भी करता जाता था।
भूत० : सबसे पहिले मुझे इस बात का बन्दोबस्त करना है कि आपका शक दूर करने के बाद फिर मुझे कोई काम न करना पड़े। (अपने बटुए में से कोई दवा निकाल कर और अपने मुँह में रख) मेरे और दारोगा के बीच जो इकरार नामा हुआ है वह इसी बटुए में मौजूद है। जैपालसिंह ने आपकी स्त्री का पता जिस चीठी में लिख कर मेरे पास भेजा था वह भी इस बटुए के अन्दर है और उस अजायबघर में जिसमें आपकी स्त्री कैद है मुझे किस तरह पहुँच कर उसे छुड़ाना चाहिए यह भी एक कागज पर लिखा हुआ इसी बटुए में रक्खा है जिसे आप स्वयं निकाल कर देख सकते हैं।
इतना कहते हुए भूतनाथ ने दवा की एक शीशी जिसमें किसी तरह का अर्क भरा हुआ था और उसी बटुए में थी, खोल कर उसकी दवा उसी बटुए के अन्दर लुढ़का दी और इसके बाद एक चीठी निकाल कर भैयाराजा के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘लीजिये इस चीठी को पढ़िये, आप तो दारोगा के अक्षर अच्छी तरह पहिचानते हैं। देखिये उसी के हाथ का लिखा हुआ है या नहीं?’’
भैया० : (चीठी देख कर) बेशक यह उसी कम्बख्त के हाथ का लिखा हुआ है।
इतना कह कर भैयाराजा ने वह चीठी पढ़ी, यह लिखा हुआ थाः-
‘‘मेरे प्यारे गदाधरसिंह ,
देखो, मैं तुम्हारी बात नहीं टालता, मगर तुम्हें भी हमारी इज्जत का खयाल रखना चाहिए! परसों शाम को तुम मुझसे मिलो, मैं भैयाराजा की स्त्री को तुम्हारे हवाले कर दूँगा। मगर खूब होशियार! शिकार खराब न जाय।
वही-दा०’’
भैया० : यह चीठी तुम्हें कब मिली थी?
भूत० : परसों।
भैया० : तो आज तुम उसे लेने के लिए दारोगा के पास जाओगे?
भूत० : हाँ, मैं जरूर जाने वाला था।
भैया० : तो अब क्या हुआ?
भूत० : अब तो जो होना था हो गया आपने देखा नहीं कि मैंने इस बटुए में से एक दवा निकाल कर खा ली है। वह जहर कातिल है जो कि प्राण लिये बिना कभी न रहेगा। एक दवा और इसी बटुए में थी जिससे उस जहर का असर दूर हो सकता था, मैंने वह दवा इसी बटुए में उंड़ेल कर बर्बाद कर दी, इस ख्याल से कि कहीं आप लोग जहर उतारने के लिए मुझे जबर्दस्ती वह दवा पिला न दें क्योंकि मैं अब इस दुनिया में रहना नहीं चाहता। (बटुए में से खाली शीशी निकाल और भैयाराजा को दिखा कर) देखिये यह शीशी खाली हो गई। इस पर लिखा हुआ है, ‘‘यह दवा सब तरह के जहरों को दूर करती है,’’ अब यह दवा भी इस दुनिया से उठ गई, सिर्फ इसकी गमक थोड़ी देर के लिए रहेगी। इसी बटुए में और भी कई चिट्ठियाँ हैं।
भैया० : (बात काट कर) भला यह दवा तुमने बटुए के अन्दर क्यों उंड़ेल दी?
भूत० :अगर मैं बाहर फेंकता तो शायद आप लोग मेरा हाथ पकड़ लेते और शीशी में कुछ दवा बच रहती तो ताज्जुब नहीं कि आप लोग मुझे बचा लेते। जो हो अब मैं जीते रहना नहीं चाहता..।
भैया० : गदाधरसिंह, यह तुमने बहुत बुरा किया कि..।
भूत० : खैर बुरा तो जो कुछ होना था हो गया। (भयानक चेहरा बना कर) ओफ! अब मुझे तकलीफ हो रही है। मेरी थोड़ी बातें और सुन लीजिये, शायद थोड़ी देर बाद मैं कुछ भी न बोल सकूँ। मेरे इस बटुए में बहुत-सी चीठियाँ है जो दारोगा और जैपाल के हाथ की लिखी हुई हैं, कोई खुली हैं, कोई डिबिया में हैं। कोई कपड़े में बँधी हुई हैं, जिनके देखने से आपको मालूम हो जायगा कि मैंने दारोगा के साथ मिल कर आपका नुकसान किया था या..।ओफ! अब मेरा हाथ नहीं चलता, आप लोग स्वयं इस बटुए में..।आह!
इतना कह कर भूतनाथ चुप हो गया और सर पर हाथ रख कर आँखें बन्द कर लीं परन्तु यह अवस्था भी उसको ज्यादे देर तक न रही और कुछ ही देर में वह जमीन पर लेट कर लम्बी साँसे लेने लगा।
मेघराज (जो वास्तव में दयाराम थे) और भैयाराजा को उसकी इस अवस्था पर बहुत दुःख हुआ और दोनों आदमी इस खयाल से उसके बटुए की तलाशी लेने लगे कि शायद कोई चीज ऐसी निकल आये जिससे गदाधरसिंह की हालत कुछ सुधर जाय। थोड़ी देर बाद जब उन्होंने गौर किया तो मालूम हुआ कि गदाधरसिंह बिल्कुल ही बेहोश है, ताज्जुब नहीं कि थोड़ी ही देर में उसका दम निकल जाय।
यह सब कुछ तो हुआ मगर मेघराज और भैयाराजा को अवस्था भी अच्छी न रही। भूतनाथ ने तो दवा बटुए के अन्दर उंड़ेल दी थी उसकी तेज महक ने इन दोनों का दिमाग फिरा दिया और भूतनाथ के बटुए की तलाशी लेते-लेते ये दोनों भी बेहोश होकर जमीन पर लेट गये। उस समय भूतनाथ मुस्कुराता हुआ उठ बैठा और खड़े होकर मूँछों पर ताव देता हुआ बोला। ‘‘वह मारा! कैसा छकाया है बच्चाजी को। अपने को बड़ा होशियार मानते थे।’’
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