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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


खासबाग में महल के अन्दर जो कमरा बहुरानी के लिए मुकर्रर था उसमें इस समय सिवा बहुरानी के कोई दूसरा दिखाई नहीं देता, यहाँ तक कि कोई लौंडी भी उस कमरे में मौजूद नहीं है जो जरूरत पर काम आवे, हम आश्चर्य के साथ देखते हैं कि उस कमरे में दीवार के साथ जो आलमारियाँ बनी हुई हैं उनमें से इस समय एक आलमारी कुछ अधुखुली-सी मालूम पड़ती है और उसके अन्दर से एक आदमी सर निकाल कर उस कमरे की अवस्था को बड़े गौर से देख रहा है।

आधी रात का समय है। कमरे के अन्दर सन्नाटा छाया हुआ है, केवल एक सुन्दर मसहरी पर बहुरानी आराम की नींद सो रही हैं और उसकी नाक से कोमल खर्राटे की आवाज आ रही है। कमरे में पूरब और पश्चिम की तरफ की खिड़कियाँ खुली हुई हैं और पूरब तरफ वाली खिड़की से जो आम की बारी की तरफ पड़ती है, ठंडी-ठंडी हवा आ रही है जिससे बहुरानी की मसहरी का जालीदार नफीस पर्दा दरियाई लहरों की तरह झकोरे ले रहा है, कमरे की दीवारगीरों में से दो में मोमबत्ती की रोशनी हो रही है।

उस आदमी ने जो आलमारी के अन्दर से सर निकाल कर झाँक रहा है, देखा कि इस कमरे का सदर दरवाजा जिधर से लोग इस कमरे में आते-जाते हैं, खुला हुआ है मगर जहाँ तक बाहर की तरफ निगाह जाती है कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता।

धीरे-धीरे उस आलमारी के दोनों पल्ले अच्छी तरह खुल गये और वह आदमी जो सिर निकाल कर झाँक रहा था और जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी, निकल कर कमरे में दाखिल हुआ धीरे-घीरे पैर रखता हुआ वह सदर दरवाजे के पास पहुँचा और उसे बहुत धीरे-से बन्द करके अन्दर से कुण्डी चढ़ा ली और तब उस मसहरी के पास आया जिस पर बहुरानी आराम कर रही थीं। उसने मसहरी का पर्दा हटाया और हाथ से हिला कर बहुरानी को जगाया। बहुरानी जब चैतन्य हुईं तो अपने सामने एक नकाबपोश को देख कर हैरान हो गईं मगर दिल कड़ा करके बोलीं, ‘‘तुम कौन हो जी?’’

इसके जवाब में नकाबपोश ने अपने चेहरे से नकाब हटा कर कहा, ‘‘देखो और पहिचानो कि मैं कौन हूँ।’’

नकाब हटते ही भैयाराजा की सूरत देख बहुरानी शरमा गई, मुस्कराती हुई उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘मैं कई दिन से तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ, तुमने तो मुझे ऐसा छोड़ा कि मानों मैं तुम्हारी कुछ थी ही नहीं! ऐसा ही था तो मुझे भी अपने साथ ले जाते, जो कुछ मुसीबत आती उसके झेलने में मैं भी शरीक होती और खुशी–खुशी तुम्हारे साथ दिन बिताती!’’

भैया० : (मुस्कुराते हुए) यह तो ठीक है मगर बिना किसी तरह का बन्दोबस्त किये तुम्हें ले जाना क्या सहज बात है? मैं तो मर्द ठहरा, हर तरह पर हर जगह जाकर समय बिता सकता हूँ मगर तुम्हारे लिये तो यह बात नहीं हो सकती। अब मौका देख कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ और खास करके इसलिये आया हूँ कि तुम्हें यहाँ से ले जाऊँ।

बहु० : खैर मैं चलने के लिये तैयार हूँ, मुझे उज्र ही क्या हो सकता है, आराम से बैठो और सुनाओ तो सही कि इधर क्या-क्या मामले हुए? दारोगा कम्बख्त को तो तुमने खूब ही छकाया! (दरवाजे की तरफ देख कर) क्या इस दरवाजे को तुमने बन्द कर दिया है? मैं तो खुला छोड़ कर सोई थी।

भैया० : हाँ, मैंने ही बन्द किया।

बहु० : अच्छा बैठिये और मेरी बातों का जवाब दीजिये।

भैया० : नहीं, मैं इसलिए नहीं आया हूँ कि आराम से तुम्हारे पास बैठूँ और बेफिक्री के साथ तुमसे बातें करूँ समय बहुत नाजुक है, बस तुम्हें यहाँ से जल्द चल देना ही चाहिए!

बहु० : (शोखी से) अब इतनी जल्दी क्या पड़ गई? बैठो तो सही, मैं तो सोचे हुए थी कि अबकी दफे तुम आओगे तो प्रकट रूप में अपने भाई के साथ मिलोगे और खुल्लमखुल्ला दारोगा का मुकाबला करोगे जैसाकि तुमने लिखा था। इस राय को मैं बहुत पसन्द करती हूँ और तुम्हारी भावज साहिबा भी ऐसा ही करने के लिए कहती हैं उनसे मुलाकात तो कर लो। मैंने उनसे वादा किया है कि अबकी आवेंगे तो तुम्हारा सामना कराऊँगी।

भैया० : बेशक मैं भी ऐसा ही चाहता था मगर अब मेरे दोस्तों की दूसरी राय हो गई है जो इससे बहुत अच्छी है। बस अब तुम किसी तरह का सोच-विचार मत करो और जल्दी से मेरे साथ चलो, किसी को खुटका हो जायगा तो ठीक न होगा।

बहु० : तो क्या बस निश्चय हो गया कि मैं तुम्हारे साथ चली चलूँ?

भैया० : हाँ, मैं कहता हूँ कि चलने में जल्दी करो।

बहु० : अब इसी तरह? बिना कुछ सामान लिए!

भैया० : हाँ, बस इसी तरह!

बहु० : अच्छा चलो, मैं तुम्हारे साथ चलने में खुश हूँ, किस राह से चलोगे?

भैया० : जिस तिलिस्मी रास्ते से आया हूँ उसी गुप्त राह से तुम्हें ले चलूँगा। मैं तो इतनी देर भी न लगाता जितनी बातचीत में लग गई है और तुम्हें बेहोश करके अपनी पीठ पर लाद कर जल्दी से ले भागता मगर क्या करूँ रास्ता इस लायक नहीं है। मेरे पीछे-पीछे चली आओ, कुछ दूर तक अँधकार में चलना होगा।

बहु० : मैं हर तरह से चलने के लिए तैयार हूँ, चलो।

इतना कह कर बहुरानी तैयार हो गई और भैयाराजा के पीछे-पीछे चल खड़ी हुई। भैयाराजा जिस आलमारी के अन्दर से निकले थे उसी में अपनी स्त्री को लिए हुए चले गये। भीतर से वह आलमारी बहुत लम्बी-चौड़ी थी और उसमें नीचे की तरफ उतर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। भीतर जाकर भैयाराजा ने न-मालूम किस ढंग से दरवाजा बन्द कर लिया और नीचे उतरने लगे। आगे-आगे भैयाराजा और पीछे-पीछे पीठ पर हाथ रक्खे हुए बहुरानी जाने लगी, रास्ता तंग और अंधकारमय था मगर सीढ़ियाँ बहुत छोटी थीं इसलिए उतरने में आसानी थी।

बहुत दूर तक नीचे उतर जाने के बाद वे दोनों एक कोठरी में पहुँचे जिसमें एक लालटेन की रोशनी हो रही थी। यह लालटेन भैयाराजा ऊपर जाते समय छोड़ गये थे।

इस कोठरी में पूरब और पश्चिम की तरफ से दो दरवाजे थे जिनमें से पूरब तरफ वाला दरवाजा इस समय खुला हुआ था। भैयाराजा ने वह लालटेन उठा ली और बहुरानी को साथ लिए हुए उस दरवाजे के अन्दर चले गये। भीतर जाकर उन्होंने दरवाजा बन्द कर दिया। केवल दोनों पल्ला मिला कर दबाने ही से एक खटके की आवाज हुई और वह दरवाजा मजबूती के साथ बन्द हो गया। अब ये दोनों आदमी एक सुरंग में दाखिल हुए और चुपचाप बहुत दूर तक चले गये। आधी घड़ी के बाद पुनः एक कोठरी मिली जिसका भैयाराजा ने एक मुट्ठा घुमाकर, जो उस दरवाजे में लगा हुआ था, खोला बहुरानी इस दरवाजे के खोलने का ढंग भी अच्छी तरह समझ न सकी क्योंकि मुट्ठा घुमाने में भी कोई खास तरकीब थी।

दरवाजे के अन्दर घुस कर भैयाराजा ने लालटेन बुझा दी और अब पुनः बहुरानी को अन्धकार में चलना पड़ा यह बात बहुरानी को अच्छी नहीं मालूम हुई और उसने कुछ चिढ़ कर भैयाराजा से कहा, ‘‘भला यहाँ पर लालटेन बुझा देने की क्या जरूरत थी? व्यर्थ ही अन्धकार में चलाकर तकलीफ देना..।!’’

भैया० : घबड़ाओ मत, यहाँ पर दो-चार चीजें ऐसी हैं जिन्हें देख कर तुम डर जाती इसीलिए मैंने लालटेन बुझा दी। बेखटके मेरे पीछे-पीछे चली आओ, मगर देखो आगे कुछ दूर तक पानी में चलना पड़ेगा।

वास्तव में यही बात थी। बहुरानी के कान में पानी के बहने की मीठी-मीठी आवाज आई और चन्द कदम चलने के बाद पानी में पैर पड़ा जिससे वह कपड़ा कुछ उठाकर चलने लगीं। मालूम होता है कि सुन्दर चिकने फर्श पर पानी बह रहा है जो कहीं बित्ता-भर, कही ज्यादे और कहीं उससे कम होगा। वहाँ पर बहुरानी को कई दफा चक्कर लगाना पड़ा और अन्त में वह एक चौखट लांघ कर सूखी जमीन पर पहुँची और पीछे से पुनः दरवाजा बन्द होने की आवाज आई।

यहाँ पर भैयाराजा ने लालटेन जलाई और बहुरानी को साथ लिए हुए आगे की तरफ बढ़े। अब वे दोनों एक मामूली सुरंग में जा रहे थे और रास्ता ऊँचाई की तरफ चढ़ रहा था। कुछ दूर जाने के बाद पुनः एक दरवाजे के पास पहुँचे और जब वह खोला गया तो दोनों आदमी खासबाग के बाहर होकर मैदान में पहुँचे जहाँ ठंडी-ठंडी हवा के झोंके लग रहे थे और एक रथ जिसमें मजबूत घोड़े जुड़े हुए थे, सामने खड़ा था।

दरवाजा बन्द करने के बाद भैयाराजा ने बहुरानी को उस रथ पर सवार कराया और आप भी सवार होकर रथ हाँकने का हुक्म दिया। रथ कुछ दूर निकल जाने के बाद उन्होंने बहुरानी से कहा, ‘‘मैं वास्तव में भैयाराजा नहीं हूँ, मैं वही दारोगा हूँ जिसे भैयाराजा ने बेइज्जत किया था। तुम्हें जहन्नुम की सैर कराने के वास्ते लिए जाता हूँ, ताज्जुब नहीं कि वहाँ बहुत जल्द असली भैयाराजा से तुम्हारी मुलाकात हो। बस खबरदार, चिल्लाने की कोशिश मत करना!’’

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