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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


रात पहर-भर से ज्यादे जा चुकी है। दारोगा के मकान में हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, सिवाय पहरे वाले सिपाहियों और दो-तीन खिदमतगारों के और कोई जागता हुआ दिखाई नहीं देता। दारोगा अपने एकान्त कमरे में बैठा हुआ कुछ लिख रहा है। है।

लिखते-ही-लिखते वह यकायक किसी गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो जाता है और देर तक उसकी यही हालत बनी रहती है। कभी-कभी वह घबड़ा कर उठ बैठता और कमरे में इधर-उधर टहलने लगता है। कभी अपने कलमदान में से बाहर की आई हुई चिट्ठियाँ निकाल कर देखता और फिर उसी तरह रख कर पुन: लिखने लग जाता है। उसका चेहरा बड़ा ही उदास और चिन्तित जान पड़ता है। उसके सामने संगमरमर की एक चौकी पर मोमी शमादान जल रहा है और छत से लटकती हुई चार-पाँच बिल्लौरी हण्डियों में भी मोमबत्ती की रोशनी हो रही है।

इसी तरह कभी लिखते, कभी पढ़ते और टहलते हुए उसने दो घंटे का समय बिता दिया और अन्त में पुन: अपनी गद्दी पर आकर गाव तकिये के सहारे लेट गया, उसी समय एक खिदमतगार ने हाजिर होकर अर्ज किया है कि गदाधरसिंह आये हैं।

दारोगा सम्हल कर उठ बैठा और बोला, ‘भेज दो।’ कुछ क्षण में भूतनाथ आ मौजूद हुआ। दारोगा ने बड़ी खातिरदारी से उसे अपने पास बैठाया और कुशल मंगल पूछा। दो-चार मामूली प्रश्न और उत्तर के बाद इस तरह बातचीत होने लगी-

दारोगा : कहिये इधर कोई नई घटना भी देखने-सुनने में आई है या नहीं?

भूत० :हमारे और आपके लिए नई घटनाओं की कमी नहीं है। जब से मैंने सुना है कि दयाराम जी आपकी कैद में तब से मुझे क्षण-क्षण में नई घटना का अनुमान होता है। मैं नहीं कह सकता कि मेरे और आपके प्रारब्ध में क्या लिखा हुआ है।

दारोगा : (आश्चर्य का ढंग दिखाता हुआ) दयाराम का मेरे कैद में होना कैसा?

भूत० :हाँ, इस बात से रात को भी आपने इनकार किया था मगर साथ ही इसके आपने यह भी वादा किया था कि अगर तुम कल मिलोगे तो तुम्हारे बिगड़ैल शागिर्दों का तुम्हें पता बता देंगे।

दारोगा : (सच्चे आश्चर्य से) यह मैंने तुमसे वादा किया था!

भूत० : मैं आज ही की बीती हुई रात का जिक्र कर रहा हूँ, क्या आप नशे में तो नहीं थे या इस समय तो नशे में नहीं हैं।

दारोगा : मैं तो नशे में नहीं हूँ मगर तुम्हारे बारे में ऐसा जरूर शक कर सकता हूँ। कई दिन के बाद आज शाम को तो मैं घर आया हूँ, यहाँ के सभी आदमी, इस बात को जानते हैं बल्कि हमारे अड़ोस-पड़ोस वालों से भी यह बात छिपी हुई नहीं होगी और तुम कहते हो कि कल रात को तुमसे मुलाकात हुई थी?

भूत० : (कुछ गौर और चिन्ता के बाद) यह अजीब है, आपका कहना मैं झूठ नहीं मान सकता मगर यह भी आप सच समझिए कि कल मैं आपके यहाँ आया था आपसे मुलाकात भी हुई थी, अगर वास्तव में वह आप नहीं थे तो जरूर आपकी सूरत में कोई आपका दुश्मन होगा।

दारोगा : मुझे भी शक होता है कि मेरे बाद कोई मेरा दुश्मन इस मकान में जरूर आया था क्योंकि मैं अपने कई तरह के सामानों में रद्दोबदल देखता हूँ। तुम्हारी जुबानी खुलासा हाल सुनूँगा तो शायद कुछ पता लगेगा।

भूत० : सच्ची बात तो यह है कि कल मैं आपसे लड़ने का उलाहना देने के लिए यहाँ आया था क्योंकि मुझे इस बात की पक्की खबर लगी है कि दयाराम आपके यहाँ कैद है, परन्तु आपसे मुलाकात न होने के कारण मैं वापस चला गया और रात को तलाशी लेने की नीयत से चोरों की तरह आपके मकान में पहुँचकर दयाराम की तलाश करने लगा, मैं विशेष ढूंढने भी न पाया था कि दो नकाबपोशों से आपके मकान के ऊपरी हिस्से में मुलाकात हुई। कई तरह की बातचीत होने के बाद एक ने जब अपने चेहरे पर से नकाब हटाई तब आपकी सूरत दिखाई दी। केवल इतना ही नहीं उसने कई ढंग से अपने को दारोगा साबित करके मुझसे तरह-तरह की बातचीत की और आज मुझे बुलाया।

इतना कह भूतनाथ ने पूरा-पूरा हाल अपने रात में यहाँ आने का बयान किया जिसे सुन कर दारोगा बड़ी चिन्ता में पड़ गया और भय, चिन्ता तथा घबराहट के साथ भूतनाथ का मुँह देखने लगा। भूतनाथ ने पुन: दारोगा से पूछा, ‘‘क्या ये सब बातें आपसे कुछ भी संबंध नहीं रखतीं!’’

दारोगा : कुछ नहीं। मैं तो यहाँ था ही नहीं, बातें क्या खाक होतीं मगर यह घटना बहुत ही बेढब हुई! मुझे यहाँ आये अभी ज्यादे देर नहीं हुई तथापि जब मैं यहाँ आया तो सोचता था कि कई दिनों के बाद मुझे देख कर मेरे नौकर-चाकर बहुत प्रसन्न होंगे और मुझसे मेरे गायब होने का सबब पूछेंगे मगर सो कुछ भी नहीं, इन लोगों ने इतना भी न पूछा कि कहाँ गये थे या आपका मिजाज कैसा है। मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ और मैं उनसे तरह-तरह की बातें पूछने लगा जिससे मालूम हो गया कि मेरी कई दिन के गैरहाजिरी में यहाँ क्या-क्या हुआ तथा कौन-कौन आदमी मुझे ढूँढ़ने के लिए आये थे, परन्तु मेरी बातों का जो कुछ जवाब मेरे आदमियों ने दिया उससे यही जाहिर होता था कि मानों एक दिन के लिए भी घर से बाहर नहीं गया था।

इन सब बातों से साबित होता है कि मुझे कैद कर लेने के बाद मेरा दुश्मन मेरी सूरत बना कर यहाँ आया था और कई दिन तक रहा भी था। मैंने अपने मुँह से अभी तक अपने आदमियों को यह नहीं कहा है कि वास्तव में मैं यहाँ नहीं था, मुझे किसी ने कैद किया था, या मेरा दुश्मन मेरी सूरत बन कर यहाँ आया था, हाँ जब से यहाँ आया हूँ अपने घर की अवस्था पर जरूर ध्यान दे रहा हूँ, दयाराम तो मेरे यहाँ है नहीं, यह खबर तुमने बिल्कुल ही झूठी सुनी है, हाँ एक आदमी मेरे यहाँ कैद जरूर था जिसे वह छुड़ा कर ले गया जो मेरी सूरत बन कर आया था। इसके सिवाय और किसी तरह का मेरा नुकसान नहीं हुआ है।

भूत० :(आश्चर्य से) आपको किसी ने कैद कर लिया था!

दारोगा : हाँ गदाधरसिंह, भला मैं तुमसे क्यों छिपाऊँ, तुम तो मेरे मेहरबान ठहरे और तुम्हारा मुझे बहुत कुछ भरोसा भी रहता है। किसी दुष्ट ने मुझे और इन्द्रदेव दोनों को कैद कर लिया था। तीन दिन के बाद इन्द्रदेव के शागिर्द ने हम लोगों को छुड़ाया। अब ख्याल होता है कि शायद इसीलिए उसने हमें कैद कर लिया था कि मेरे यहाँ से उस कैदी को ले जाय।

भूत० :(आश्चर्य से) क्या आपको और इन्द्रदेव को दोनों को ही कैद कर ले गया था? यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! इन्द्रदेव को अजातशत्रु कहलाते हैं! उनका कोई दुश्मन ही नहीं कहा जाता, फिर उनके साथ यह कैसा बर्ताब? इसके अतिरिक्त एक बात और है, आपके यहाँ से तो उसे उस कैदी को छुड़ा ले जाना था मगर इन्द्रदेव से क्या मतलब था?

दारोगा : शायद उनसे भी कुछ मतलब हो, जब उससे दरियाफ्त किया जाय तो मालूम हो। या शायद इसका सबब हो कि हम और वे उस समय एक साथ ही सफर कर रहे थे जब गिरफ्तार हुए, ऐसी अवस्था में वे उन्हें छोड़ मेरे अकेले साथ क्योंकर दगा कर सकता था?

भूत० : हाँ ऐसा हो सकता है, मगर..।

दारोगा : मगर क्या?

भूत० : (अपने दिल का असली विचार छिपा कर) कुछ नहीं, ख्याल यही है कि दयाराम जरूर आपके यहाँ कैद हैं या वह दयाराम ही थे जिन्हें आपका दुश्मन यहाँ से छुड़ा कर ले गया है।

दारोगा : नहीं-नहीं भूतनाथ, ऐसा खयाल मत करो, अगर तुम मेरे उस दुश्मन का पता लगाओगे जिसने हमें कैद किया था तो असल हाल तुमको खुद मालूम हो जाएगा।

भूत० : हाँ है तो ऐसी ही बात। आपके दुश्मन का जिसने आपको कैद किया था पता लगाये बिना ठीक-ठीक हाल मालूम न होगा पर यद्यपि मैं बहुत जल्द उसका पता लगा सकता हूँ मगर मुझे क्या गरज पड़ी है कि व्यर्थ इस मामले में हाथ डाल कर परेशान होऊँ। काम आपका निकलेगा, मेहनत मुझे करनी पड़ेगी।

दारोगा : क्या तुम मेरे दोस्त नहीं हो? क्या मैं तुम्हारा भरोसा नहीं कर सकता, या समय पड़ने पर मैं मदद करने से भाग सकता हूँ? न-मालूम तुम्हारा दिल ईश्वर ने कैसे बनाया है!

भूत० : (मुस्कुराता हुआ) आप जो कुछ कहें और समझें ठीक है, मगर असल बात तो यही है कि आप मुझसे सफाई का व्यवहार नहीं रखते। मैं कई दफे कई मामलों में देख चुका हूँ कि आप बिना कुछ गिरह रक्खे मुझसे भेद की बात नहीं करते!

दारोगा : यह तुम्हारा भ्रम है। तुम्हारी आदत है कि बिना कुछ समझे-बूझे या बिना असल मामले की जाँच किये शक कर बैठते हो और खफा हो जाते हो, मैं तुम्हें भाई की तरह मानता हूँ और वक्त पर मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ मगर फिर भी..।

भूत० : आपके इस कहने का मैं शुक्रिया अदा करता हूँ मगर लाचार हूँ कि बिना कुछ मामला पड़े..।

दारोगा : (बात काट कर) मैं तो पहिले ही कह चुका हूँ कि तुम्हारा मिज़ाज शक्की है, जो कुछ इल्जाम तुम मेरे ऊपर लगाते हो क्या उसका कोई सबूत भी तुम्हारे पास है?

भूत० :हाँ है।

दारोगा : कहिये जरा मैं भी सुनूँ!

भूत० : पिछली बातों को जाने दीजिये, एक बात तो इसी समय सामने मौजूद है कि आप उस कैदी का ठीक-ठीक हाल नहीं बताते जो आपके यहाँ से निकाल लिया गया है और दयाराम के भेद को छिपाते हैं यद्यपि मैं इस उलझन को अच्छी तरह सुलझा चुका हूँ और रत्ती-रत्ती भेद मय सबूत के पा चुका हूँ।

दारोगा : तो क्या किसी ने तुम्हें यह निश्चय दिया है कि दयाराम को मैंने कैद कर रक्खा है?

भूत० : बेशक ऐसा ही है, इस बात का इल्जाम मैं आपको नहीं, देता कि दयाराम को रणधीरसिंहजी के यहाँ से आप गिरफ्तार कर लाये थे। नहीं वहाँ से तो उन्हें राजसिंह ले गया था, हाँ राजसिंह के यहाँ से आप चुरा लाये हैं और अब मेरा विश्वास यह है कि कल जो कैदी यहाँ से निकल गया है वह दयाराम ही थे। यह बात स्वयम् राजसिंह के लड़के ध्यानसिंह ने मुझे लिखी है और उसके लिखने पर मैंने जब तहकीकात की तब अच्छी तरह से निश्चय हो गया कि ध्यानसिंह का लिखना ठीक है। अभी परसों ही की बात है कि मैं स्वयं ध्यानसिंह से मिलने गया था। उसका कथन है कि तुम खुद राजसिंह से दयाराम को माँग कर ले आये थे और इसके बदले में उसने तुमसे मनमानी रकम ली थी।

दारोगा : ये सभी बातें बनावटी और झूठी हैं, अगर सचमुच ऐसा ही था तो ध्यानसिंह ने तभी तुमसे क्यों नहीं कहा?

भूत० : इसके लिए तो उसने आपसे रकम ही वसूल की थी अस्तु इस भेद को छिपाना उसके लिए जरूरी था, साथ ही इसके वह मुझे दुश्मनी की निगाह से देखता था मगर अब जबकि उसे मुझसे खास जरूरत आ पड़ी है तब सब कुछ कहने और सब भेद खोलने के लिए तैयार हुआ है।

दारोगा : कुछ नहीं, यह सब उसकी बदमाशी है, इन सब बातों का तुम कुछ खयाल मत करो, तुम जरा खयाल करो और सोचो तो सही कि जमना और सरस्वती के बारे में मैंने तुम्हारी कैसी मदद की थी। अगर मुझे तुमसे दुश्मनी ही करनी होती तो ऐसे गूढ़ मूल मामले में मदद करने की मुझे क्या जरूरत थी? हाँ तुमने बेशक अपने वादे का कुछ भी खयाल नहीं किया और भैयाराजा के विषय में मदद करने की प्रतिज्ञा करके भी कुछ न किया। खैर अब तुम्हें उचित है कि मेरे दुश्मन का पता लगाओ और निश्चय करो कि मेरे कैदी को यहाँ से कौन निकाल कर ले गया है तब तुम्हें आप ही मालूम हो जायगा कि मैं सच्चा हूँ या झूठा।

भूत० : बेशक मैं आपकी खातिर आपके दुश्मन का पता लगाऊँगा और अगर आप सच्चे निकलेंगे तो हमेशा आपका मददगार बना रहूँगा। भैयाराजा के विषय में मैं आपके लिए अभी तक कोशिश कर रहा हूँ। यद्यपि इस काम में मुझे हद्द-दर्जे की तकलीफ उठानी पड़ी जोकि मैं अभी इसी समय आपसे बयान करने वाला हूँ परन्तु क्या करूँ मेरी आर्थिक अवस्था बहुत ही खराब हो रही है, रुपये की मुझे सख्त जरूरत आ पड़ी है, मेरे कई शागिर्द मुझसे रंज होकर भाग गये हैं और मेरी तमाम दौलत चुरा कर ले गये हैं, मैं इस समय पूरा कंगाल हो रहा हूँ और रुपये के बिना मेरे सभी कामों में बड़ा हर्ज हो रहा है।

दारोगा : मेरे लिये तुम अभी तक भैयाराजा के विषय में कोशिश कर रहे हो यह जान कर मुझे प्रसन्नता हुई। मैं इधर बहुत दिनों से तुम्हारा हाल जानने के लिए बेताब हो रहा हूँ, क्योंकि बहुत दिनों से मुलाकात न होने के कारण तरह-तरह की चिन्ता लगी रहती है। मैं जरूर सुनूँगा कि इस बीच में तुम पर क्या बीती और क्या-क्या हाल हुआ।

इसके बाद दारोगा और भूतनाथ में देर तक बातें होती रहीं जिनके लिखने की यहाँ कोई जरूरत नहीं जान पड़ती। इसके अतिरिक्त दारोगा ने रुपये-पैसे से भी भूतनाथ की पूरी मदद की।

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