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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


दिन को दोपहर के समय हम इन्द्रदेव को एक घने जंगल में बहते हुए नाले के किनारे गुंजान पेड़ के नीचे बैठे देखते हैं। पास में उनका एक शागिर्द खड़ा है और सामने जमीन पर बेहोश दारोगा लिटाया हुआ है। नाले के जल से कपड़ा गीला करके इन्द्रदेव दारोगा के सर पर बार-बार रखते और बीच-बीच में लखलखा भी सुँघाते जाते हैं, कुछ ही देर में दारोगा ने आँखें खोलीं और घबरा कर अपने चारों तरफ देखने के बाद इन्द्रदेव पर ताज्जुब के साथ निगाह डाली। जब उसे हवास अच्छी तरह दुरुस्त हो गये तब उठ बैठा और इन्द्रदेव से बोला, ‘‘यह क्या मामला है, हम और तुम यहाँ पुन: क्योंकर इकट्ठे हुए?’’

इन्द्रदेव : (अपने शागिर्द की तरफ इशारा करके) मेरे इस शागिर्द ने आज हम दोनों ही को दुश्मन के पंजे से छुड़ाया। कम्बख्त दुश्मन ने हम दोनों को कैद तो कर ही लिया था परन्तु एक साथ रक्खा भी नहीं, अगर हम लोग एक साथ रहते तो कुछ तो दिल बहलता। मेरे इस शागिर्द ने हकीकत में बड़ी होशियारी और चालाकी का काम किया कि इतनी जल्द हम लोगों का पता लगा लिया और छुड़ा भी लिया।

दारोगा : ईश्वर ही ने हम लोगों की जान बचाई, नहीं तो मैं एकदम ना उम्मीद हो गया था, जान बचने की भी कुछ आशा न थी। खैर वह था कौन जिसने हम लोगों के साथ ऐसा बुरा बर्ताव किया?

इन्द्र०: इस बात का तो निश्चय अभी तक नहीं हुआ है मगर दो-चार दिन में छिपा न रहेगा।

दारोगा : उसका नाम जरूर मालूम होना चाहिए जिसमें आइन्दा उससे होशियार रहा जाय। मैं उस कम्बख्त से जरूर बदला लूँगा। तुम्हारे साथ रहने के कारण मैं इस तरह धोखे में आ गया नहीं तो एकाएक धोखा खाने वाला नहीं हूँ।

इन्द्र० : उसका पता लगाने के लिए पूरा उद्योग किया जायगा। आप खूब जानते हैं कि मैं कभी भी किसी के साथ बुराई नहीं करता तिस पर भी न-मालूम क्यों मेरे साथ ऐसा बर्ताव किया। हाँ, अपने लिए बहुत दुश्मन जरूर बना रक्खे हैं और जहाँ तक समझता हूँ आप ही के संबंध में मुझे भी यह दु:ख भोगना पड़ा बीमारी की हालत में ईश्वर ही ने मेरी रक्षा की नहीं तो कैद की अवस्था में मेरी बीमारी का बढ़ जाना कोई आश्चर्य की बात न थी सो इसके बदले मैं बराबर तन्दुरुस्त ही होता गया, शायद इसका कारण यह हो कि मैंने तीन दिन तक सिवाय जल पीने के कुछ भी भोजन नहीं किया क्योंकि जो कुछ भोजन की सामग्री मिली वह मुझ बीमार के खाने योग्य न थी। मैं आपको फिर भी यही कहता हूँ कि आप अपनी चालचलन को बदल लीजिए। इस छोटी सी जिन्दगी में पापों का ढेर लगाते जाना और दिनोंदिन दुश्मनों की गिनती बढ़ाते रहना आप ऐसे गृहस्थी-शून्य पुरुष को अच्छा नहीं लगता। कौन आपके आगे बाल-बच्चों का बाजार लगा हुआ है कि जिनके लिए आप इतना अर्थप्रिय हो रहे हैं- ताज्जुब नहीं कि इसके लिए आपको एक दिन हद्द दर्जे की तकलीफ उठानी पड़े।

दारोगा : तुम हमेशा ही मुझको इस तरह की नसीहतें किया करते हो मगर मैं तो अपने खयाल से कोई भी बुरा काम नहीं करता हूँ, हाँ मेरे साथ जो कोई दुश्मनी का बर्ताव करता है उसको मैं जवाब देने के लिए जरूर तैयार रहता हूँ।

इन्द्र० : खैर मैं आपसे बहस करना पसन्द नहीं करता, जो कुछ आप करते हैं वह मुझसे छिपा नहीं है।

दारोगा : अच्छा जो होगा देखा जायगा, यह समय इस तरह की बातचीत का नहीं है, आप बताइये कि हम लोगों का पता आपके शागिर्द को क्योंकर लगा और उसने किस मकान से हम लोगों को छुड़ाया?

इन्द्र० : पता क्योंकर लगा इसकी कथा तो बहुत लम्बी-चौड़ी है, ऐयार लोग जिस तरह पता लगाते हैं वह ढंग आपसे छिपा हुआ भी नहीं, हाँ इतना कहना जरूरी है कि जमानिया में जो ‘हरि मन्दिर’ के समीप पुरानी टूटी-फूटी इमारत है उसी के एक तहखाने के पास-ही-पास हम लोग कैद किए गये।

पुरानी इमारत का नाम सुनकर दारोगा थोड़ी देर के लिए गौर में पड़ गया और बहुत कुछ विचारने के बाद इन्द्रदेव से बोला-

दारोगा : हाँ, मैं कुछ-कुछ समझ गया, आशा है कि अब बहुत जल्द अपने दुश्मन का पता लूँगा, अब कुछ सवारी का बन्दोबस्त करना चाहिए जिसमें हम पहुँच सकें।

इन्द्र० : आपके और मेरे लिए यहाँ पास ही में कसे-कसाए दो घोड़े तैयार हैं।

इतना कह कर इन्द्रदेव ने अपने शागिर्द की तरफ देखा और कुछ इशारा किया। शागिर्द चला गया और कुछ ही देर में दो घोड़े जिनके साथ साइस भी थे ले आया और मामूली बातचीत करने के बाद एक घोड़े पर दारोगा सवार हुआ और साईस को साथ लिए हुए हुए जमानिया की तरफ रवाना हुआ, उसके बाद इन्द्रदेव भी दूसरे घोड़े पर सवार हुए और अपने शागिर्द से बातचीत करते धीरे-धीरे कैलाश-भवन की तरफ चल पड़े।

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