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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवाँ बयान


भूतनाथ की बेहोशी जब दूर हुई तो उसने अपने को एक हरे-भरे सुन्दर बाग में नर्म-नर्म घास के ऊपर पड़े पाया। फूलों की मीठी-मीठी खुशबू उसके दिमाग को मुअत्तर कर रही थी और पश्चिम तरफ आसमान पर अस्त होते हुए सूर्य भगवान की लालिमा कह रही थी कि भूतनाथ अब उठ बैठो, अब यह गफलत की नींद सोने का समय नहीं है। भूतनाथ घबड़ा कर उठ बैठा और आश्चर्य की निगाह से चारों तरफ देखने लगा।

इस छोटे-से बाग के तीन तरफ ऊँची दीवारें थीं और चौथी तरफ दोमंजिला बहुत खूबसूरत एक मकान बना हुआ था। बाग के बीचोंबीच में एक छोटा-सा संगमरमर का चबूतरा था जिस पर चार-पाँच औरतें बैठी हुई दिखाई दे रही थीं।

भूतनाथ की निगाह सब तरफ से घूमती हुई उस चबूतरे पर जा पड़ी जिस पर कई औरतें बैठी हुई थीं। भूतनाथ ने बारीक निगाह से उनकी तरफ देखा और बोल उठा, ‘‘इनको तो मैं पहिचान गया हूँ!’’ यह कहते ही उस चबूतरे के पास जा पहुँचा और देखा कि जमना, सरस्वती, इन्दुमती तथा हाथों में नंगी तलवार लिए और भी दो औरतें वहाँ बैठी हुई आपस में कुछ बातें कर रही हैं। यद्यपि थोड़ी ही देर पहिले ईश्वर की प्रार्थना करता हुआ भूतनाथ कसम खा चुका था कि किसी को दुःख न देगा, मगर इस समय एकान्त में जमना, सरस्वती और इन्दुमति को देख उसके मुँह में पानी भर आया और वह अपनी प्रतिज्ञा को एकदम भूल गया।

जमना, सरस्वती और इन्दुमति ने भी भूतनाथ को देखा। चमक कर उठ खड़ी हुईं और आश्चर्य करती हुई भूतनाथ से पूछने लगीं—

जमना० : क्योंजी गदाधरसिंह, तुम यकायक यहाँ कैसे आ पहुँचे?

भूत० : इस बात को तो मैं खुद ही नहीं जानता।

जमना० : मगर मैंने तो सुना था कि तुम्हें भैयाराजा ने कैद कर लिया और तुमने ईश्वर को साक्षी देकर कसम खाई है कि अब किसी के साथ भी बुराई न करोगे।

भूत० : (दबी जुबान से) हाँ, सो तो ठीक है, मगर तुमने सुना नहीं कि बुद्धिमानों का कथन है कि हजार कसम खाकर भी अगर दुश्मन को मार सके तो जरूर मारे..।

सरस्वती : ठीक है, कम-हिम्मत, बुजदिल और नामर्द बुद्धिमानों का जरूर यह कौल है।

भूत० : खैर, मैं तुम्हारी बातों का जवाब देना मुनासिब नहीं समझता क्योंकि तुम मेरे मित्र और मालिक की स्त्री हो और मैं तुमको भी मालिक ही के समान मानता हूँ..।

जमना० : (मुस्करा कर) ठीक है, तब ही तो तुमने मुझ पर सफाई का हाथ फेरा था और एकदम जहन्नुम में मिला देने के लिये तैयार हो गये थे!

भूत० : इस विषय में तुम कोई भी सबूत नहीं दे सकती हो बल्कि मैं इस बात का सबूत दे सकता हूँ कि तुमने मुझे सताने के लिए कैसे-कैसे ढंग रचे थे जिनसे कि ईश्वर ही ने मुझे बचाया।

जमना० :हाँ, इस बात से तो मैं किसी तरह भी इनकार नहीं कर सकती क्योंकि तू मेरे पति का घातक है।

भूत० : (क्रोध के साथ) बस यही बात तो मेरे कलेजे में खटकती है। अगर तुम अपनी जुबान से ऐसा न कहा करतीं और तुम्हें इस बात का शक न होता तो मुझे तुम्हारे साथ दुश्मनी करने की कोई जरूरत ही न थी। तुम ही मुझे दुनिया में मुफ्त बदनाम और बर्बाद किया चाहती हो और सिवाय तुम्हारे और कोई भी मेरे माथे में कलंक का टीका नहीं लगा सकता क्योंकि वास्तव में मैं तुम्हारे पति का घातक नहीं हूँ। तुम मुझे मुफ्त में बदनाम करती हो और इसी बदनामी को दूर करने के लिए मुझे मजबूर होकर तुम्हारे साथ दुश्मनी करनी पड़ती है।

जमना० :अगर तुम इस बात का सबूत दे दो कि तुम वास्तव में मेरे पति के घातक नहीं हो तो मैं आज ही से तुम्हारे साथ दुश्मनी करने का ख्याल एकदम छोड़ दूँ। मगर साथ ही इसके तुमको भी मेरे साथ का अपना बर्ताव बदल देना अर्थात् दुश्मनी का ध्यान छोड़ देना पड़ेगा।

भूत० : मैं यह काम करने के लिए तैयार हूँ।

सरस्वती : बस तो सबूत देने में देर क्या है?

भूत० : इतना ही कि मेरा ऐयारी का बटुआ मुझे मिल जाय।

जमना० :तुम्हारे ऐयारी के बटुए में कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम अपनी सफाई के सबूत में पेश कर सको।

भूत० : (आश्चर्य से) यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

जमना० : तुम्हारा बटुआ मेरे कब्जे में है, मैं उसे अच्छी तरह देख चुकी हूँ।

भूत० : यह तो तुमने अच्छा नहीं किया!

जमना० : (मुस्करा कर) तुम दूसरे का सर्वस्व नाश कर दो तो कोई हर्ज नहीं मगर कोई दूसरा तुम्हारा ऐयारी का बटुआ किसी तरह ले ले तो कहो ‘बहुत बुरा किया’! जिन भैयाराजा को तुमने धोखा देकर फँसाया था उन्होंने ही तुम्हारे बटुए पर कब्जा कर लिया था और अब वह मेरे पास मौजूद है।

जमना की बातें सुनते-सुनते भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया और उसने बिना इस बात का विचार किये ही कि मैं कहा हूँ, किसके कब्जे में हूँ और क्या कर रहा हूँ उन तीनों पर हमला किया अर्थात् खंजर निकाल कर वार करने के लिए उन पर झपटा।

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