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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान

वृद्ध महात्मा का ठाठ कुछ अजब ही ढंग का था, सिर से पैर तक तमाम बदन में भस्म लगे रहने के कारण इनके रंग का बयान करना चाहे कठिन हो परंतु फिर भी इतना जरूर कहेंगे कि लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी उनके खूबसूरत और सुडौल बदन में अभी तक कहीं झुर्री नहीं पड़ी थी और न उनके सीधेपन में कोई झुकाव आया था।

बड़ी-बड़ी आँखों में अभी तक गुलाबी डोरियाँ दिखाई दे रही थीं और उनके कटाक्ष से जाना जाता था कि अभी तक उनकी रोशनी और ताकत में किसी तरह की कमी नहीं हुई है। रोआबदार चेहरा, चौड़ी छाती तथा मजबूत और गठीले हाथ-पैरों की तरफ ध्यान देने से कहने को जी चाहता है कि यह शरीर तो छत्र और मुकुट धारण करने योग्य है न कि जटा और कम्बल की कफनी के योग्य।

महात्मा के सिर पर लम्बी जटा थी जो खुली हुई पीठ की तरफ लहरा रही थी। मोटे और मुलायम कम्बल का झगा बदन में और लोहे का एक डण्डा हाथ में था, बस इसके अतिरिक्त उनके पास और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।

महात्मा को देखते ही प्रभाकरसिंह ने झुक के प्रणाम किया। बाबाजी ने भी पास आकर आशीर्वाद दिया और कहा, ‘‘प्रभाकरसिंह, बस जाने दो, बहादुर लोग ऐयारों को जान से नहीं मारते और ऐयार भी जान से मारने योग्य नहीं होते बल्कि कैद करने के योग्य होते हैं। तुम इस समय यद्यपि यदि कहो तो हम इसका प्रबन्ध कर दें क्योंकि इस तिलिस्म के अन्दर हम इस बात को बखूबी कर सकते हैं।’’

प्रभाकर : (बात काटकर) आपकी आज्ञा के विरुद्ध मैं कदापि न करूँगा। आप बड़े हैं, मेरा दिल गवाही देता है और कहता है कि यदि आप वास्तव में साधु न भी हों तो भी मेरे पूज्य और बड़े हैं। जो कुछ आज्ञा कीजिए मैं करने को तैयार हूं, पर आपको कदाचित् यह न मालूम हुआ होगा कि इसने मुझे कैसी-कैसी तकलीफें दी हैं और किस तरह मेरा सर्वनाश किया है, और इस समय भी यह कैसी ढिठाई के साथ बातें कर रहा है, अपना नाम तक नहीं बताता।

बाबा : मैं सबकुछ जानता हूँ, तुमने स्वयं भूलकर अपने को इसके हाथ फँसा दिया है, अगर वह किताब जिसमें इस तिलिस्म का कुछ थोड़ा-सा हाल लिखा हुआ था और इन्द्रदेव ने तुमको दी थी, इसने तुम्हारी जेब से न निकाल ली होती तो यह कदापि यहाँ तक पहुँच न सकता, मगर तुमने पूरा धोखा खाया और उस किताब की भी बखूबी हिफाजत न कर सके।

प्रभाकर : बेशक ऐसा ही है, मुझसे बड़ी भूल हो गई। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि वास्तव में यह कौन है।

बाबा : हाँ तुम इसे नहीं जानते, हरदेई समझकर तुम इसके हाथ से बर्बाद हो गए, यह असल में गदाधरसिंह का शागिर्द रामदास है। इसी ने असली हरदेई को धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया और स्वयं हरदेई की सूरत बन जमना और सरस्वती को धोखे में डाला, इसने तिलिस्म घाटी का रास्ता देख लिया और भूतनाथ को इस घाटी के अन्दर लाकर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को आफत में फँसा दिया। भूतनाथ ने अपने हिसाब से तो उन तीनों को मार ही डाला था परन्तु ईश्वर ने उन्हें बचा लिया, सुनो हम इसका खुलासा हाल तुमसे बयान करते हैं।

इतना कहकर बाबाजी ने भूतनाथ और रामदास का पूरा-पूरा हाल जो हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं कह सुनाया अर्थात जिस तरह रामदास ने हरदेई को गिरफ्तार किया, स्वयं हरदेई की सूरत बनकर कई दिनों तक जमना, सरस्वती के साथ रहा, घाटी में आने-जाने का रास्ता देख कर भूतनाथ को बताया, प्रभाकरसिंह की सूरत बन कर जिस तरह भूतनाथ इस घाटी के अन्दर आया और जमना, सरस्वती, इन्दुमति तथा और लौंडियों को भी कुएँ के अन्दर फेंक कर बखेड़ा तै किया और अन्त में रामदास स्वयं जिस तरह कुएँ के अन्दर जाकर खुद भी उसमें फँस गया आदि-आदि रत्ती-रत्ती हाल बयान किया, जिसे सुन कर प्रभाकरसिंह हैरान हो गये और ताज्जुब करने लगे।

प्रभाकर : (आश्चर्य से) यह सब हाल आपको कैसे मालूम हुआ?

बाबा : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं, जब हमको तुम पहिचान जाओगे तब स्वयं तुम्हें इसका सबब मालूम हो जायगा। (रामदास की तरफ देख के) क्यों रामदास, जो कुछ हमने कहा वह सब सच है या नहीं?

रामदास : बेशक आपने जो कुछ कहा सब सच है।

बाबाः (रामदास से) अब तो बताओ कि तुम्हारा गुरु भूतनाथ कहाँ है?

रामदास : मुझे नहीं मालुम।

बाबा : (हँस कर) अगर तुम्हें मालूम नहीं हैं तो मुझे जरूर मालूम है! (प्रभाकरसिंह से) अच्छा अब हम जाते हैं, जरूरत होगी तो फिर मुलाकात करेंगे केवल इसीलिए तुम्हारे पास आये थे कि इस रामदास और भूतनाथ की चालबाजी से तुम्हें होशियार कर दें, जिसमें इन लोगों के बहकाने में पड़कर तुम जमुना, सरस्वती और इन्दुमति के साथ किसी तरह की बेमुरौवती न कर जाओ।

मगर अफसोस हमारे पहुँचने के पहिले ही तुमने इन लोगों के धोखे में पड़ कर इन्दुमति और साथ ही उसके जमना-सरस्वती का तिरस्कार कर दिया और उन लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया जो तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान के योग्य न था।

प्रभाकर : (डबडबाई हुई आँखों से और लम्बी साँस लेकर) बेशक मैंने बहुत बुरा धोखा खाया, मेरी किस्मत ने मुझे डुबा दिया और कहीं का न रखा! (आसमान की तरफ देखकर) हे सर्वशक्तिमान जगदीश्वर! क्या मैं इसीलिए इस दुनिया में आया था कि तरह-तरह की तकलीफें उठाऊँ? जबसे मैंने होश सम्भाला तब से आज तक साल-भर सुख से बैठना नसीब न हुआ। किस-किस दुःख को रोऊँ और किस-किस को याद करूँ!

हाय, माता-पिता की अवस्था पर ध्यान देता हूँ तो कलेजा मुँह को आता है, अपनी दुर्दशा पर विचार करता हूँ तो दुनिया अन्धकारमय दिखाई पड़ती है। तो फिर क्या मैं ऐसा ही बदकिस्मत बनाया गया हूँ? क्या यह मेरे कर्मों का फल है! कदाचित् ऐसा भी हो तो फिर दुनिया में जितने आदमी हैं सभी तो अपने-अपने कर्म का फल भोग रहे हैं, फिर मुझमें और अन्य अभागों में भेद ही किस बात का ठहरा? और जब अपने ही कर्मों का फल भोगना ही ठहरा तो तुम्हारा भरोसा ही करके क्या किया? अगर यह कहो कि इस भरोसे का फल किसी और समय मिलेगा तो यह भी कोई बात न ठहरी, जब मेरे समय पर तुम्हारा भरोसा काम न आया तो खेत सूखे पर वर्षा वाली कहावत सिद्ध हुई।

बाबा : (बात काटकर) बेटा, घबड़ाओ मत और परमेश्वर का भरोसा मत छोड़ो वह तुम्हारे सभी दुःखो को दूर करेगा। उसकी कृपा के आगे कोई बात कठिन नहीं है, यदि वह दयालू होगा तो तुम्हें तुम्हारे माता-पिता से भी मिला देगा और तुम्हारी स्त्री इन्दुमति भी पुनः तुम्हारी सेवा में दिखाई दे जायेगी। बस अब मैं जाता हूँ, ईश्वर तुम्हारा भला करे।

प्रभाकर : (बाबाजी को रोक कर) कृपा कर और भी मेरी दो-एक बातों का जवाब देते जाइये।

बाबा : पूछो क्या पूछना चाहते हो!

प्रभाकर : जिस मनुष्य के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह पंच तत्त्व में मिल गया भला उससे पुनः क्योंकर मुलाकात हो सकती है!

बाबा : ईश्वर की माया बड़ी प्रबल है, मैं यह नहीं कह सकता कि ऐसा अवश्य ही होगा परन्तु यह जरूर कहूँगा कि ईश्वर पर भरोसा रखने वाले के लिए कोई भी बात असंभव नहीं, अच्छा पूँछो और क्या पूँछते हो।

प्रभाकर : मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज के बाद मैं आपसे मिलना चाहूँ तो क्योंकर मिल सकता हूँ?

बाबा : तुम अपनी इच्छानुसार मुझसे नहीं मिल सकते।

प्रभाकर : आपका परिचय जान सकता हूँ?

बाबा : नहीं।

इतना कहकर बाबाजी वहाँ से रवाना हो गये और देखते-देखते प्रभाकरसिंह की नजरों से गायब हो गये।

बाबाजी के चले जाने के बाद कुछ देर तक प्रभाकरसिंह खड़े कुछ सोचते रहे, इसके बाद क्रोध भरी आँखो से रामदास की तरफ देखा और कहा, ‘‘रामदास यद्यपि लोग कहते हैं कि ऐयारों को मारना न चाहिए बल्कि कैदकर रखना चाहिए परन्तु यह काम ऐयारों का और राजा लोगों का है।

मैं न तो ऐयार हूँ और न राजा ही हूँ, इसके अतिरिक्त मेरे पास कोई ऐसी जगह भी नहीं है जहाँ तुझे कैद करके रक्खूँ अतएव मैं तुझ पर किसी तरह का रहम नहीं कर सकता, (रामदास का खंजर उसके आगे फेंक कर) ले अपना खंजर उठा ले और मेरा मुकाबला कर क्योंकि मैं उस आदमी पर वार करना पसन्द नहीं करता जिसके हाथ में किसी तरह का हर्बा नहीं है, साथ ही तूने मुझ पर जो जुल्म किया है उसे मैं बर्दाश्त भी नहीं कर सकता।

राम० : (खंजर उठाकर) तो क्या मैं किसी तरह भी माफी पाने लायक नहीं?

प्रभा० : नहीं, अगर इन्दुमति इस दुनिया से उठ न गई होती तो कदाचित् मैं तेरा अपराध क्षमा कर सकता मगर इन्दुमति का वियोग, जो केवल तेरी ही दुष्टता के कारण हुआ है, मैं सह नहीं सकता।

राम० : अगर तुम्हारी इन्दुमति को तुमसे मिला दूँ तो?

प्रभा० : अरे दुष्ट! क्या अब भी तू मुझे धोखा दे सकेगा? जिसकी चिता मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ उसके विषय में तू इस तरह की बातें करता है मानों बह्मा तू ही है।

राम० : नहीं-नहीं, आपने मेरा मतलब नहीं समझा।

प्रभा० : तेरा मतलब मैं खूब समझ चुका अब समझाने की जरूरत नहीं है, बस अब सम्हल जा और अपनी हिफाजत कर।

इतना कह कर प्रभाकरसिंह ने म्यान से तलवार खींच ली और रामदास को ललकारा। रामदास ने जब देखा कि अब वह भाग कर भी अपने को प्रभाकरसिंह के हाथ से नहीं बचा सकता तब उसने खंजर सम्हाल कर प्रभाकरसिंह का मुलाबला किया। दो ही चार हाथ के लेने-देने के बाद प्रभाकरसिंह की तलवार से रामदास दो टुकड़े होकर जमीन पर गिरा पड़ा और वहाँ की मिट्टी से अपनी तलवार साफ करके प्रभाकरसिंह पुनः उसी दीवार की तरफ रवाना हुए जिसके अन्दर इन्दुमति सुलगती हुई चिता देख चुके थे।

तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे चलकर उसी चिता के पास पहुँचे जो अभी तक निर्धूम हो जाने पर भी बड़े अंगारों के कारण धधक रही थी और जिसके बीच-बीच में हड्डियों के छोटे-छोटे टुकडे़ दिखाई दे रहे थे।

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