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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान

दूसरी पहाड़ी पर चढ़कर ऊपर-ही-ऊपर जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास पहुँचने पर जल्दी करने पर भी प्रभाकरसिंह को आधे घण्टे से ज्यादे देर लग गई, ‘‘क्या इतनी देर तक दुश्मन ठहर सकता है? क्या इतनी देर तक ये नाजुक औरतें ऐसे भयानक दुश्मन के हाथ से अपने को बचा सकती हैं? क्या इस निर्जन स्थान में कोई उन औरतों का मददगार पहुँच सकता है? नहीं ऐसा तो नहीं हो सकता!’’ यही सब कुछ सोचते हुए प्रभाकरसिंह बड़ी तेजी के साथ रास्ता तै करके वहाँ पहुँचे जहाँ जमना, सरस्वती और इन्दुमति को छोड़ गये थे।

उन्हें यह आशा न थी कि उन तीनों से मुलाकात होगी, मगर नहीं, ईश्वर बड़ा ही कारसाज है, उसने इस निर्जन स्थान में भी उन औरतों के लिए एक बहुत बड़ा मददगार भेज दिया जिसकी बदौलत प्रभाकरसिंह के पहुँचने तक वे तीनों दुश्मन के हाथ से बची रह गईं।

प्रभाकरसिंह ने वहाँ पहुँचकर देखा कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति दुश्मन के खौफ से बदहवास होकर मैदान की तरफ भागी जा रही हैं और एक नौजवान बहादुर आदमी जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है तलवार से उस दुश्मन का मुकाबला कर रहा है जो उन तीनों औरतों को मारने के लिए वहाँ आया था।

यह तमाशा देख प्रभाकरसिंह तरद्दुद में पड़ गये और सोचने लगे कि हम उन भागती हुई औरतों को ढाढ़स देकर लौटा लावें या पहिले इस बहादुर की मदद करें जो इस समय हमारे दुश्मन का मुकाबला बड़ी बहादुरी के साथ कर रहा है। उन दोनों बहादुरों की अद्भुत लड़ाई को देखकर प्रभाकरसिंह प्रसन्न हो गये।

थोड़ी देर के लिए उनके दिल से तमाम कुलफत जाती रही, और वे एकटक उन दोनों की लड़ाई का तमाशा देखने लगे।

शैतान जो जमना इत्यादि को मारने आया था यद्यपि बहादुर था और लड़ाई में अपनी तमाम कारीगरी खर्च कर रहा था, मगर उस नकाबपोश के मुकाबले वह बहुत दबा हुआ मालूम पड़ने लगा। यहाँ तक कि उसका दम फूलने लगा और नकाबपोश के मोढ़े पर बैठ कर उसकी तलवार दो टुकड़े हो गई।

कुछ देर के लिए लड़ाई रुक गई और दोनों बहादुर हटकर खड़े हो गये। उस शैतान दुश्मन को जिसका नाम इस मौके के लिए हम बैताल रख देते है, विश्वास था कि तलवार टूट जाने पर नकाबपोश उस पर जरूर हमला करेगा, मगर नकाबपोश ने ऐसा न किया, वह हट कर खड़ा हो गया और बैताल से बोला, ‘‘कहो अब किस चीज से लड़ोगे? मैं उस आदमी पर हर्बा चलाना उचित नहीं समझता जिसका हाथ हथियार से खाली हो।’’

इसका जवाब बैताल ने कुछ न दिया उसी समय नकाबपोश ने प्रभाकरसिंह की तरफ देखा और कहा, ‘‘मुझे तुम्हारी मदद की कोई जरूरत नहीं है, तुम (हाथ का इशारा करके) उन औरतों को सम्हालों और ढाढ़स दो जो इस शैतान के डर से बदहवास होकर भागी जा रही हैं या दुश्मन का मुकाबला करो तो मैं उन्हें जाकर समझाऊँ और यहाँ लौटा ले आऊँ।’’

प्रभाकरसिंह के दिल में यह खयाल बिजली की तरह दौड़ गया कि मैं उन औरतों की तरफ जाता हूँ तो यह नकाबपोश मुझे नामर्द समझेगा और अगर स्वयं दुश्मन का मुकाबला करके नकाबपोश को औरतों की तरफ जाने के लिए कहता हूँ तो क्या जाने यह भी उन सभी का दुश्मन ही हो और उन औरतों के पास जाकर कोई बुराई का काम कर बैठे। इस खयाल ने क्षणमात्र के लिए प्रभाकरसिंह को चुप कर दिया, इसके बाद प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘जो तुम कहों वही करूँ।’’

नकाब० : बेहतर होगा कि तुम उन्हीं औरतों की तरफ जाओ!

‘‘बहुत अच्छा’’ कह प्रभाकरसिंह बड़ी तेजी के साथ उनकी तरफ लपक पड़े जो भागती हुई अब कुछ-कुछ आँखों की ओट हो चली थीं। वे भागती चली जाती थीं और पीछे की तरफ फिर-फिर कर देखती जाती थीं। दौडते-दौड़ते वे एक ऐसे स्थान पर पहुँची जिसके आगे एक लम्बी और बहुत ऊँची दीवार थी और बीच में उस पार जाने के लिए एक दरवाजा बना हुआ था जो इस समय खुला था।

इन औरतों को इतनी फुर्सत कहाँ कि दीवार की लम्बाई-चौड़ाई की जाँच करती या दूसरी तरफ भागने की कोशिश करती? वे सीधी उस दरवाजे के अन्दर घुस गईं, खास करके इस खयाल से भी कि अगर इसके अन्दर दरवाजा बन्द कर लेंगे तो दुश्मन से बचाव हो जायगा।

उसी समय प्रभाकरसिंह भी नजदीक पहुँच गये और इन्दुमति की निगाह प्रभाकरसिंह के ऊपर जा पड़ी। प्रभाकरसिंह ने हाथ के इशारे से उसे रुक जाने के लिए कहा परन्तु उसी समय वह दरवाजा बन्द हो गया जिसके अन्दर जमना, सरस्वती, और इन्दुमति घुस गई थीं, प्रभाकरसिंह को यह चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह दरवाजा खुद बन्द हो गया या इन्दुमति ने जान-बूझ कर दिया।

थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह उस दरवाजे के पास पहुँचे और धक्का देकर उसे खोलना चाहा मगर दरवाजा न खुला। प्रभाकरसिंह ने चाहा कि आगे बढ़कर देखें कि यह दीवार कहाँ तक गई है परन्तु उसी समय सरस्वती की आवाज कान में पड़ने से वे रुक गए और ध्यान देकर सुनने लगे। यह आवाज उस दरवाजे के पास दीवार के अन्दर से आ रही थी मानों सरस्वती किसी दूसरे आदमी से बातचीत कर रही है, जैसा कि नीचे लिखा जाता है–

सरस्वती : हाय, यहाँ भी दुष्टों से हम लोगों का पिंड न छूटेगा! ये लोग इस तिलिस्म के अन्दर आ क्योंकर गये यही ताज्जुब है!

जवाब : (जो किसी जानकार आदमी के मुँह से निकली हुई आवाज मालूम पड़ती थी) खैर अब तो आ ही गए, अब तुम लोगों के निकाले हम लोग नहीं निकल सकते और अब तुम लोग जान बचा ही कर क्या करोगी क्योंकि प्रभाकरसिंह की निगाह में तुम लोगों की कुछ भी इज्जत न रही उन्हीं को नहीं बल्कि मुझे भी वह सब हाल मालूम हो गया। इस समय तुम लोग उसी पाप का फल भोग रही हो! अफसोस, मुझे तुम लोगों से ऐसी आशा कदापि न थी! अगर मैं ऐसा जानता तो इस पवित्र घाटी को तुम लोगों के पापमय शरीर से कभी अपवित्र होने न देता।

प्रभाकर : (ताज्जुब से मन में) हैं? क्या यह आवाज इन्द्रदेव की है!

सरस्वती : मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो! क्या किसी दुष्ट ने हम लोगों को बदनाम किया है? क्या किसी कमीने ने हम लोगों पर कलंक का धब्बा लगाना चाहा है? नहीं कदापि नहीं, स्वप्न ने भी ऐसा नहीं हो सकता! हम लोगों के पवित्र मनों को डावाँडोल करने वाला इस संसार में कोई भी नहीं है! मैं इसके लिए खुले दिल से कसम खा सकती हूँ।

जवाब : दुनिया में जितने बदकार आदमी होते है वे कसम खाने में बहुत तेज होते हैं! मुझसे तुम लोगों की यह चालाकी नहीं चल सकती। जो कुछ मैं इस समय कह रहा हूँ वह केवल किसी से सुनी-सुनाई बातों के कारण नहीं है बल्कि मुझे इस बात का बहुत ही पक्का सबूत मिल चुका है जिससे तुम कदापि इनकार नहीं कर सकतीं।

प्रभाकर : (मन में) बेशक वह बात ठीक मालूम होती है जो हरदेई ने मुझसे कही थी।

सर० : कैसा सबूत और कैसी बदनामी? भला मैं भी तो उसे सुनूँ।

जवाब : तुम तो जरूर ही सुनोगी, अभी नहीं तो और घंटे भर में सही प्रभाकरसिंह के सामने ही मैं इस बात को खोलूँगा और इस कहावत को चरितार्थ करके दिखा दूँगा कि ‘छिपत न दुष्कर पाप, कोटि जतन कीजे तऊ’।

सर० : कोई चिन्ता नहीं, मैं भी अच्छी तरह उस आदमी का मुँह काला करूँगी जिसने हम लोगों को बदनाम किया है और अपने को अच्छी तरह निर्दोष साबित कर दिखाऊँगी।

आवाज : अगर तुम्हारे किये हो सकेगा तो जरूर ऐसा करना।

सर० : हाँ-हाँ जरूर ही ऐसा करूँगी। मेरा दिल उसी समय खटका था जब प्रभाकरसिंह ने कुछ व्यंग्य के साथ बातें की थीं। मैं उस समय उनका मतलब कुछ नहीं समझ सकी थी मगर अब मालूम हो गया कि कोई महापुरुष हम लोगों को बदनाम करके अपना काम निकालना चाहते हैं।

जवाब : इस तरह की बातें तुम प्रभाकरसिंह को समझाना, मुझ पर इसका कुछ भी असर नहीं हो सकता, यदि मैं तुम्हारा नातेदार न होता तो मुझे इतना कहने की कुछ जरूरत भी न थी। मैं तुम लोगों का मुँह भी न देखता और अब भी ऐसा ही करूँगा। मैं नहीं चाहता कि अपना हाथ औरतों के खून से नापाक करूँ तथापि एक दफे प्रभाकरसिंह के सामने इन बातों को साबित जरूर करूँगा। जिसमें कोई यह न कहे कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति पर किसी ने व्यर्थ ही कलंक लगाया! अच्छा अब मैं जाता हूँ। फिर मिलूँगा।

सर० : अच्छा-अच्छा देखा जायगा, इन चालबाजियों से काम नहीं चलेगा। कान लगा कर ध्यान देने के बाद प्रभाकरसिंह पुनः उस दीवार के अन्दर जाने का उद्योग करने लगे। इस ख्याल से कि देखें यह दीवार कहाँ पर खतम हुई है वे दीवार के साथ-ही-साथ पूरब तरफ रवाना हुए।

दीवार बहुत दूर तक नहीं गई थी, केवल चार या पाँच बिगहे के बाद मुड़ गई थी, अस्तु प्रभाकरसिंह भी घूम कर दूसरी तरफ चल पड़े बीस-पचीस कदम आगे जाने के बाद उन्हें एक खुला दरवाजा मिला।

प्रभाकरसिंह उस दरवाजे के अन्दर चले गए और दूर से जमना, सरस्वती और इन्दुमति को एक पेड़ के नीचे बैठे देखा जो नीचे की तरफ सिर झुकाए हुए आँखों से गरम-गरम आँसू गिरा रही थीं। क्रोध में भरे हुए प्रभाकरसिंह उन तीनों के पास चले गये और सरस्वती की तरफ देख के बोले, ‘‘वह कौन आदमी था जो अभी तुमसे बातें कर रहा था?’’

सरस्वती : मुझे नहीं मालूम कि वह कौन था।

प्रभा० : फिर तुमसे इस तरह की बात करने की उसे जरूरत ही क्या थी?

सरस्वती : सो भी मैं कुछ कह नहीं सकती।

प्रभा० : हाँ ठीक है, मुझसे कहने की तुम्हें जरूरत ही क्या है! खैर जाने दो, मुझे भी विशेष सुनने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं तो पहिले ही हरदेई की जुबानी तुम लोगों की बदकारियों का हाल सुनकर अपना दिल ठंडा कर चुका था।

अब इस आदमी की बातें सुनकर और भी रहा-सहा शक जाता रहा, यद्यपि तुम लोग इस योग्य थीं कि इस दुनिया से उठा दी जातीं और यह पृथ्वी तुम्हारे असह्य बोझ से हलकी कर दी जाती, परन्तु नहीं, उस आदमी की तरह जो अभी तुम से बातें कर रहा था मैं भी तुम लोगों के खून से अपना हाथ अपवित्र नहीं करना चाहता। खैर तुम दोनों बहिनों से तो मुझे कुछ कहना नहीं है, रही इन्दुमति सो इसे मैं इस समय से सदैव के लिए त्याग करता हूँ, शास्त्र में लिखा हुआ है कि किसी का त्याग कर देना मार डालने के ही बराबर है।

इन्दु० : (रोती हुई हाथ जोड़ कर) प्राणनाथ! क्या तुम दुश्मनों की जुबानी गढ़ी-गढ़ाई बातें सुन कर मुझे त्याग कर दोगे!!

प्रभा० : हाँ त्याग कर दूँगा, क्योंकि जो कुछ बातें तुम्हारे विषय में मैने सुनी हैं उन्हें यह दूसरा सबूत मिल जाने के कारण मैं सत्य मानता हूँ। केवल इतना ही नहीं, तुम्हारी ही जुबान से उन बातों की पुष्टि हो चुकी है। अब इसकी भी कोई जरूरत नहीं कि तुम लोगों को इस तिलिस्म के बाहर ले जाने का उद्योग करूँ, अस्तु अब मैं जाता हूँ। (छाती पर हाथ रख कर) मैं इस वज्रकी चोट को इसी छाती पर सहन करूँगा और फिर जो कुछ ईश्वर दिखावेगा देखूँगा, मुझे विश्वास हो गया कि बस मेरे लिए दुनिया इतनी ही थी।

इतना कह कर प्रभाकरसिंह वहाँ से रवाना हो गए। इन्दुमति रो-रोकर पुकारती ही रह गई मगर उन्होंने उसकी कुछ भी न सुनी। जिस खिड़की की राह वे इस दीवार के अन्दर गये थे उसी राह से वे बाहर चले आये और उस तरफ रवाना हुए जहाँ नकाबपोश और बैताल को लड़ते हुए छोड़ आये थे।

वहाँ पहुँचकर प्रभाकरसिंह ने दोनों में से एक को भी न पाया, न तो बैताल ही पर निगाह पड़ी और न नकाबपोश ही की सूरत दिखाई दी। ताज्जुब के साथ प्रभाकरसिंह चारों तरफ देखने और सोचने लगे कि कहीं मैं जगह तो नहीं भूल गया या वे दोनों ही तो आपुस में फैसला करके कहीं नहीं चले गये।

कुछ देर तक इधर-उधर ढूँढ़ने के बाद प्रभाकरसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये और झुकी हुई गर्दन को हाथ का सहारा दे कर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। उन्हें इन्दुमति को त्याग देने का बहुत ही रंज था और वे अपनी जल्दबाजी पर कुछ देर के बाद पछताने लग गये थे। वे अपने दिल में कहने लगे कि अफसोस मैंने इस काम में जल्दबाजी की। यद्यपि इन्दुमति की बदकारी का हाल सुन कर मेरे सिर से पैर तक आग लग गई थी, मगर मुझे उसका कुछ सबूत भी तो ढूँढ़ लेना चाहिए था। सम्भव है कि हरदेई इन सभों की दुश्मन बन गई हो और उसने हम लोगो को रंज पहुँचाने के खयाल से ऐसी मनगढंत कहानी कह कर और इन्दुमति पर इलजाम लगा कर अपना कलेजा ठण्डा किया हो।

अगर वास्तव में यही बात हो तो कोई ताज्जुब नहीं क्योंकि हरदेई का उन तीनों के साथ न रहकर अलग ही तिलिस्म के अन्दर दिखाई देना कोई मामूली बात नहीं है बल्कि इसका कोई खास सबब जरूर है। अच्छा तो वह दूसरा आदमी कौन हो सकता है जिसने उस दीवार के अन्दर सरस्वती से बातचीत की थी? सम्भव है कि बैताल की तरह वह भी इन्दुमति, जमना और सरस्वती का दुश्मन हो और मुझे सुनाने और धोखे में डालने के लिए उसने यह ढंग रचा हो। हो सकता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

साथ ही इसके यह भी तो सोचना चाहिये कि अगर जमना सरस्वती को ऐसा ही बुरा काम करना होता तो वे मुझे और इन्दुमति को अपने घर क्यों लातीं और मेरे साथ ऐसा अच्छा सलूक क्यों करती? नहीं-नहीं, इन्दुमति से मुझे ऐसी आशा नहीं हो सकती। वह इन्दुमति जो लड़कपन से आज तक अपने विशुद्ध आचरण के कारण बराबर अच्छी और नेक गिनी गई है आज ऐसा कर्म करे यह कब सम्भव है? और हो भी तो क्या आश्चर्य है, आदमी के दिल को बदलते क्या देर लगती है? जो हो मगर मुझे ऐसी जल्दी न करनी चाहिए थी। और कुछ नहीं तो इन्दुमति से हरदेई वाली बात खुलासे तौर पर कह कर उसका जवाब भी तो सुन लेना उचित था।

आह, मैंने जो कुछ किया वह कर्तव्य के विरुद्ध था। हरदेई ने जरूर मुझे धोखे में डाला, वह दगाबाज थी, अगर ऐसा न होता तो मेरे जेब से तिलिस्म की किताब चुरा कर क्यों भाग जाती?

परन्तु उसके भाग जाने का भी तो कोई सबूत नहीं है। उसका खून से भरा हुआ कपड़ा केलों के झुरपुट में मिला था जिससे खयाल हो सकता है कि वह दुश्मनों के हाथ पड़ गई लेकिन अगर ऐसा ही था और दुश्मन उसके सर पर आ गया था तो उसने चिल्लाकर मुझे जगा क्यों न दिया! सम्भव है कि वह खून से भरा हुआ कपड़ा हरदेई ही के हाथ का रक्खा हो।

इस तरह की बातें थोड़ी देर तक प्रभाकरसिंह सोचते और दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने से बेचैन होते रहे, परन्तु इस बात का ठीक निश्चय नहीं कर सकते थे कि उन्होंने जो कुछ बर्ताव इन्दुमति के साथ किया वह उचित था या अनुचित।

इस तरह की चिन्ता करते-करते संध्या हो गई, सूर्य भगवान इस दुनिया तो छोड़ किसी दूसरी ही दुनिया को अपनी चमक-दमक से प्रफुल्लित करने के लिए चले गये। यह बात औरों को चाहे बुरी मालूम हो परन्तु खुले दिल से मुँह दिखाने वालों में आसमान के सितारों को बहुत भली मालूम हुई, अस्तु वे दुनिया के विचित्र मामले को लापरवाही के साथ देखने के लिए निकल आये और औरों के साथ ही प्रभाकरसिंह की अवस्था पर अफसोस करने लगे। प्रभाकरसिंह अपने विचारों में ऐसा डूबे हुए थे कि उनको इस बात की कुछ खबर ही न थी।

जब रात कुछ ज्यादे बीत गई और सर्दी लगने लगी तब प्रभाकरसिंह चैतन्य हुए और आसमान की तरफ देख कर आश्चर्य करने लगे तथा अपने ही आप बोल उठे, ‘‘ओह बहुत देर हो गई। मैंने इस तरफ कुछ ध्यान ही नहीं दिया और न अपने लिए कुछ बन्दोबस्त ही किया। अस्तु अब तो रात इसी जंगल मैदान में बिता देनी पड़ेगी।’’

अपनी चिन्ता में निमग्न प्रभाकरसिंह को खाने-पीने की तथा और किसी जरूरी काम की फिक्र न रही और वे पुनः उसी तरह सिर नीचा करके सोचने लग गये। ऐसी अवस्था में निद्रादेवी ने भी उनका साथ छोड़ दिया और उन्हें अपने खयाल में डूबे रहने दिया।

आधी रात बीत जाने के बाद अपनी बाई तरफ कुछ उजाला देख प्रभाकरसिंह चौंक पड़े और उजाले की तरफ देखने लगे।

यह रोशनी उसी दीवार के अन्दर से आ रही थी जिसके अन्दर जाकर प्रभाकरसिंह ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति से मुलाकात की थी और अनुचित अवस्था में उनका तिरस्कार किया था।

यह रोशनी मामूली नहीं थी बल्कि बहुत ज्यादे और दिल में खुटका पैदा करने वाली थी। मालूम होता था कि कई मन लकड़ियाँ बटोर कर उससें किसी ने आग लगा दी हो। प्रभाकरसिंह का दिल धड़कने लगा और वे घबराहट के साथ उस पल-पल में बढ़ती हुई रोशनी को बड़े गौर से देखते हुए उठ खड़े हुए।

प्रभाकरसिंह के दिल की इस समय क्या अवस्था थी इसका कहना बड़ा ही कठिन है। यद्यपि वे उस दीवार के अन्दर जाकर उस रोशनी का कारण जानने के लिए उत्कंठित हो रहे थे परन्तु दिल की परेशानी और घबड़ाहट ने मानों उनकी कठिनता से अपने दिल को सम्हाला और धीरे-धीरे कदम उठाकर उसी दीवार की तरफ आने लगे। जब उस दीवार के पास पहुँचे तो उसी खिड़की की राह उसके अन्दर घुसे जिस राह से पहिले गये थे। इस समय वह रोशनी जो एक दफे बड़ी तेजी के साथ बढ़ चुकी थी धीरे-धीरे कम होने लगी थी।

जहाँ पर जमना, सरस्वती और इन्दुमति से मुलाकात हुई थी वहाँ पहुँच कर प्रभाकरसिंह ने देखा कि एक बहुत बड़ी चिता सुलग रही है और बहुत ध्यान देने पर मालूम होता है कि उसके अन्दर कोई लाश भी जल रही है जो अब अन्तिम अवस्था को पहुँचकर भस्म हुआ ही चाहती है। धुएँ में बदबू होने से भी इस बात की पुष्टि होती थी।

प्रभाकरसिंह का दिल बड़ी तेजी के साथ उछल रहा था और वे बेचैनी और घबराहट के साथ उस चिता को देख रहे थे कि यकायक उनकी आँखे डबडबा आई और गरम-गरम आँसू उनके गुलाबी गालों पर मोतियों की तरह लुढकने लगे। इससे भी उनके दिल की हालत न सम्हली और वे बड़े जोर से पुकार उठे, ‘‘हाय इन्दे! क्या इस धधकती हुई अग्नि के अन्दर तू ही तो नहीं है? इतना कह कर प्रभाकरसिंह जमीन पर बैठ गए और सर हाथ रख कर अपने दिल को काबू में लाने की कोशिश करने लगे।

घंटे भर तक अपने को सम्हालने का उद्योग करने पर भी वे कृतकार्य न हुए-और फिर उठ कर बड़ी बेदिली के साथ पुनः उस चिता की तरफ देखने लगे जो अब लगभग निर्धूम हो रही थी परन्तु उसकी रोशनी दूर-दूर तक फैल रही थी।

यकायक प्रभाकरसिंह की निगाह किसी चीज पर पड़ी जो उस चिता से कुछ दूरी पर थी परन्तु आग की रोशनी के कारण अच्छी तरह दिखाई दे रही थी। प्रभाकरसिंह उसके पास चले गये और बिना कुछ सोचे-विचारे उसे उठा कर बड़े गौर से देखने लगे। यह कपड़े का एक टुकड़ा था जो हाथ भर से कुछ ज्यादे बड़ा था। प्रभाकरसिंह ने पहिचाना कि यह इन्दुमति की उसी साड़ी में का टुकड़ा है जिसे पहिरे हुए उसे आज उन्होंने उस जगह पर देखा था। इस टुकड़े ने उनके दिल को चकनाचूर कर दिया और उस समय तो उनकी अजीब हालत हो गई जब उस टुकड़े के एक कोने में कुछ बँधा हुआ उन्होंने देखा। खोलने पर मालूम हुआ कि वह एक चिट्ठी है जिसकी लिखावट ठीक इन्दुमति के हाथ की लिखावट की-सी है, परन्तु अफसोस कि इस रोशनी में तो वह पढ़ी ही नहीं जाती और चिता की आँच अपने पास आने की इजाजत नहीं देती। अब उस चिता में इतनी रोशनी भी नहीं रह गई थी कि दूर ही से इस लिखावट को पढ़ सकें।

इस समय कोई दुश्मन भी प्रभाकरसिंह की बेचैनी को देखता तो कदाचित् उनके साथ हमदर्दी का बरताव करता।

धीरे-धीरे चिता ठंडी हो गई मगर प्रभाकरसिंह ने उसका पीछा न छोड़ा, उस के पास ही बैठकर रात बिता दी। हाथ में वह कागज लिए हुए कई घण्टे तक प्रभाकरसिंह सुबह की सुफेदी का इन्तजार करते रहे और जब पत्र पढ़ने योग्य चाँदनी हो गयी तब उसे बड़ी बेचैनी के साथ पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ थाः-

‘‘प्राणनाथ! बस हो चुका, दुनिया इतनी ही थी। मैं अब जाती हूँ और तुम्हें दयामय परमात्मा के सुपुर्द करती हूँ। मैं जब तक इस दुनिया में रही बहुत ही सुखी रही, तरह-तरह के दुःख भोगने पर भी मुझे विशेष कष्ट न हुआ क्योंकि तुम्हारे प्रेम का सहारा हरदम मेरे साथ था। इसके अतिरिक्त आशालता की हरियाली जिसका सब कुछ सम्बन्ध तुम्हारे ही शरीर के साथ था, मुझे सदैव प्रसन्न रखती थी, परन्तु अब इस दुनिया में मेरे लिए कुछ नहीं जब तुम्हीं ने मुझे त्याग दिया तो अब क्यों और किसके लिए जीऊँ?

मैं इसी विचार से बहुत सन्तुष्ट हूँ कि तुम्हें मेरे लिए दुःख न होगा क्योंकि किसी दुष्ट की कृपा से तुम मुझसे रुष्ट हो चुके हो इसलिए तुमने मुझे त्याग दिया और तुम्हें मेरे मरने का कुछ भी दुःख न होगा, परन्तु यदि कदाचित् किसी समय इस जालसाजी का भंडा फूट जाय और तुम्हारे विचार से मैं बेकसूर समझी जाऊँ तो यही प्रार्थना है कि तुम मेरे लिए कदापि दुःखी न होना। बस...’’

इस पत्र को पढ़कर प्रभाकरसिंह बहुत बेचैन हुए। मालूम था कि किसी ने अन्दर घुस और हाथ से पकड़ के उनका कलेजा ऐंठ दिया है। यद्यपि उन्होंने इन्दुमति का तिरस्कार कर दिया था परन्तु इस समय उनके दिल ने गवाही दे दी कि ‘हाय, तूने व्यर्थ इन्दुमति को त्याग दिया! वह वास्तव में निर्दोष थी इसी कारण तेरे उन शब्दों को बर्दाश्त न कर सकी जो उसके सतीत्व में धब्बा लगाने के लिए तूने त कहे थे! हाय इन्दे!

अब मुझे मालूम हो गया कि तू वास्तव में निर्दोष थी, आज नहीं तो कल इस बात का पता लग ही जायगा’। इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने पुनः उस चिता की तरफ देखा और कुछ सोचने के बाद गरम-गरम आँसू बहाते हुए वहाँ से रवाना हुए मगर उनकी भृकुटी, उनके फड़कते हुए होंठ और उनकी लाल-लाल आँखों से जाना जाता है कि इस समय किसी से बदला लेने का ध्यान उनके दिल में जोश मार रहा था।

उस दीवार के बाहर हो जाने के बाद प्रभाकरसिंह को यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि इन्दुमति का हाल तो जो कुछ मालूम हो गया, परन्तु जमना और सरस्वती के विषय में कुछ मालूम न हुआ, सम्भव है कि वहाँ उन लोगों ने भी इसी तरह कुछ लिखकर रख दिया हो जिसके देखने से उन लोगों का कुछ हाल मालूम हो जाय।

यदि उन लोगों से मुलाकात हो गई तो उनकी जुबानी इन्दुमति की अन्तिम अवस्था का ठीक-ठाक हाल मालूम हो जायगा। यह सोचकर प्रभाकरसिंह पुनः पलट पड़े और उस चिता के पास जाकर इधर-उधर देखने लगे परन्तु और किसी बात का पता न लगा, लाचार प्रभाकरसिंह लौट कर उस दीवार के बाहर निकल आये।

अब दिन घण्टे-भर से ज्यादे चढ़ चुका था। दीवार के बाहर निकल कर प्रभाकरसिंह कुछ सोचने लगे और इधर-उधर देखने के बाद कुछ सोच कर एक पेड़ के ऊपर चढ़ गये और दूर तक निगाह दौड़ा कर देखने लगे। यकायक उनकी निगाह हरदेई के ऊपर पड़ी जो उसी दीवार की तरफ बढ़ी जा रही थी जिसके अन्दर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को प्रभाकरसिंह ने छोड़ा था। हरदेई को देखते ही प्रभाकरसिंह पेड़ के नीचे उतरे और बड़ी तेजी के साथ उसी तरफ जाने लगे।

यह हरदेई वही नकली हरदेई थी जो एक दफे प्रभाकरसिंह को धोखे में डाल चुकी थी अर्थात् भूतनाथ का शागिर्द रामदास इस समय भी हरदेई की सूरत बना हुआ भूतनाथ के साथ ही इस तिलिस्म के अन्दर आया हुआ था और पुनः जमना, सरस्वती, इन्दुमति और प्रभाकरसिंह को धोखे में डालकर अपना या अपने ओस्ताद का कुछ काम निकालना चाहता था, मगर इस समय उसे यह खबर न थी कि प्रभाकरसिंह मुझे देख रहे हैं और न प्रभाकरसिंह से मिला ही चाहता था।

रामदास ने जब आशा के विरुद्ध प्रभाकरसिंह को अपनी तरफ आते देखा तो ताज्जुब में आकर चौंक पड़ा तथा भाग जाना मुनासिब न समझ कर खड़ा हो गया और सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।

प्रभाकरसिंह : (नकली हरदेई के पास पहुँच कर) हरदेई, तू यहाँ कैसे आई?

हरदेई : मेरी किस्मत मुझे यहाँ ले आई। मैं तो उसी समय अपनी जान से हाथ धो चुकी थी जिस समय आपसे अलग हुई थी, मगर मेरी किस्मत में अभी कुछ और जीना बदा था इसलिए एक महापुरुष की मदद से बच गई।

प्रभाकरसिंह : आखिर तुम पर यहाँ क्या आफत आई थी सो तो सुनूँ?

हरदेई : आप जब थकावट मिटाने के लिए चबूतरे पर लेट गये तो उसी समय आपकी आँख लग गई, मैं बड़ी देर तक चुपचाप बैठी-बैठी घबड़ा गई थी इसलिए उठ कर इधर-उधर टहलने लगी। घूमती-फिरती मैं कुछ दूर निकल गई, उसी समय यकायक पत्तों के झुरमुट में से एक आदमी निकल आया जो स्याह कपड़े और नकाब से अपने बदन और चेहरे को छिपाये हुए था।

मैं उसे देखकर घबड़ा गई और दौड़ कर आपकी तरफ आने लगी मगर उसने झपट कर मुझे पकड़ लिया और एक मुक्का मेरी पीठ पर इस जोर से मारा कि मैं तिलमिला कर बैठ गई। उसने मुझे जबरदस्ती कोई दवा सुँघा दी जिससे मैं बेहोश हो गई और तनोबदन की सुधि जाती रही। दूसरे दिन जब मैं होश में आई तो अपने को मैदान और जंगल में पड़े हुए पाया, तब से मैं आपको बराबर खोज रही हूँ।

प्रभाकरसिंह : (हरदेई की बेतुकी बातों को ताज्जुब से सुन कर) आखिर उसने तुझे इस तरह सता कर क्या फायदा उठाया?

हरदेई : (कुछ घबड़ानी सी होकर) सो तो मैं कुछ भी नहीं जानती।

प्रभाकरसिंह : उसने छुरी या खंजर से तुझे जख्मी तो नहीं किया?

हरदेई : जी नहीं।

प्रभाकरसिंह : मैं जब सोकर उठा तो तुझे ढूँढने लगा। एक जगह केले के झुरमुट में तेरे कपड़े का टुकड़ा खून से भीगा हुआ देखा था जिससे मुझे खयाल हुआ कि हरदेई को किसी ने खंजर या छुरी से जख्मी किया है।

हरदेई : जी नहीं, मुझे तो इस बात की कुछ भी खबर नहीं।

प्रभाकरसिंह : और वह महात्मा पुरुष कौन थे जिन्होंने तुझे बचाया? अभी-अभी तो तू कह चुकी है कि ‘बेहोशी के बाद जब मैं होश में आई तो अपने को मैदान और जंगल में पड़े हुए पाया’ अस्तु कैसे समझा जाय कि किसी महापुरुष ने तुझे बचाया?

नकली हरदेई के चेहरे पर घबराहट की निशानी छा गई और वह इस भाव को छिपाने के लिए मुड़ कर पीछे की तरफ देखने लगी मगर प्रभाकरसिंह इस ढंग को अच्छी तरह समझ गए और जरा तीखी आवाज में बोले, ‘‘बस मुझे ज्यादे देर तक ठहरने की फुरसत नहीं है, मेरी बातों का जवाब जल्दी-जल्दी देती जा!’’

हरदेई : जी हाँ, जब मैं खुलासे तौर पर अपना हाल कहूँगी तब आपको मालूम हो जाएगा कि वह महात्मा कौन था और अब कहाँ है जिसने मुझे बचाया था, मैंने संक्षेप में ही अपना हाल आप से कहा था।

प्रभा० : खैर तो वह खुलासा हाल कहने में देर क्या है! अच्छा जाने दे खुलासा हाल भी मैं सुन लूँगा, पहिले तेरी तलाशी लिया चाहता हूँ।

हरदेई० : (घबरा कर) तलाशी कैसी और क्यों?

प्रभा० : इसका जवाब मैं तलाशी लेने के बाद दूँगा।

हरदेई० : आखिर मुझ पर आपको किस तरह का शक हुआ?

प्रभा० : मुझे कई बातों का शक हुआ जो मैं अभी कहना नहीं चाहता। इतना कहते ही कहते प्रभाकरसिंह ने हरदेई का हाथ पकड़ लिया क्योंकि उसके रंग-ढंग से मालूम होता था कि वह भागना चाहती है। हरदेई ने पहिले तो चाहा कि झटका देकर अपने को प्रभाकरसिंह के कब्जे से छुड़ा ले मगर ऐसा न हो सका। प्रभाकरसिंह ने जब देखा कि यह धोखा देकर भाग जाने की फिक्र में है तब उन्हें बेहिसाब क्रोध चढ़ आया और एक मुक्का उसकी गरदन पर मार कर जबरदस्ती उन्होंने उसके ऊपर का कपड़ा खैंच लिया।

रामदास यद्यपि ऐयार था मगर उसमें इतनी ताकत न थी कि वह प्रभाकरसिंह का मुकाबला कर सकता। प्रभाकरसिंह के हाथ का मुक्का खाकर वह बेचैन हो गया और उसकी आँखों के आगे अन्धेरा छा गया, और फिर उसकी हिम्मत न पड़ी कि वह भाग जाने के लिए उद्योग करे।

प्रभाकरसिंह को भी विश्वास हो गया कि यह हरदेई नहीं बल्कि कोई ऐयार है। मामूली कपड़ा उतार लेने के साथ ही प्रभाकरसिंह का बचा-बचाया शक भी जाता रहा, साथ ही इसके उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया कि हमारी तिलिस्मी किताब जरूर इसी ऐयार ने चुराई है।

तिलिस्मी किताब पा जाने की उम्मीद में प्रभाकरसिंह ने जहाँ तक हो सका बड़ी होशियारी के साथ उसकी तलाशी ली और उसके ऐयारी के बटुए में भी, जिसे वह छिपा कर रक्खे हुए था, देखा मगर किताब हाथ न लगी। तलाशी में केवल ऐयारी का बटुआ, खंजर और एक कटार उसके पास से मिला जिसे प्रभाकरसिंह ने अपने कब्जे में कर लिया और पूछा, ‘‘बस अब तो तेरा भेद अच्छी तरह खुल गया। खैर यह बता कि तेरा क्या नाम है और मेरे साथ तूने इस तरह की दगाबाजी क्यों की?’’

राम० : क्या जो कुछ मैं बताऊँगा उस पर आप विश्वास कर लेंगे?

प्रभाकर० : नहीं।

राम० : फिर इसे पूछने से फायदा क्या?

प्रभाकरसिंह ने क्रोध-भरी आँखों से सिर से पैर तक उसे देखा और कहा, ‘‘बेशक कोई फायदा नहीं मगर तूने मेरे साथ बड़ी दगाबाजी की और व्यर्थ ही बेचारी इन्दुमति पर झूठा कलंक लगा कर उसे और साथ-ही-साथ इसके मुझे भी बर्बाद कर दिया।’’

राम० : बेशक मैंने किया तो बहुत बुरा मगर मैं तो ऐयार हूँ, मालिक की भलाई के लिए उद्योग करना मेरा धर्म है। जो कुछ मुझसे बन पड़ा किया, अब आपके कब्जे में हूँ जो उचित और धर्म समझिए कीजिए।

प्रभाकर : (क्रोध को दबाते हुए) तू किसका ऐयार है?

राम० : मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि मेरी बातों पर आपको विश्वास न होगा, फिर इन सब बातों को पूछने से फायदा क्या है?

प्रभाकरसिंह का दिल पहिले ही से जख्मी हो रहा था, अब जो मालूम हुआ कि हरदेई वास्तव में हरदेई नहीं हैं बल्कि कोई ऐयार है और इसने धोखा देकर अपना काम निकालने के लिए इन्दुमति, जमना और सरस्वती को बदनाम किया था तो उनके दुःख और क्रोध की सीमा न रही तिस पर रामदास की ढिठाई ने उनकी क्रोधाग्नि को और भड़का दिया, अस्तु वे उचित-अनुचित का कुछ भी विचार न कर सके।

उन्होंने रामदास की कमर में एक लात ऐसी मारी कि वह सम्हल न सका और जमीन पर गिर पड़ा, इसके बाद लात और जूते से उसकी ऐसी खातिरदारी की कि वह बेहोश हो गया और उसके मुँह से खून भी बहने लगा। इतने पर भी प्रभाकरसिंह का क्रोध शान्त न हुआ और उसे कुछ और सजा दिया चाहते थे कि सामने से आवाज आई, ‘‘हाँ हाँ, बस जाने दो, हो चुका, बहुत हुआ।’’

प्रभाकरसिंह ने आँख उठाकर सामने की तरफ देखा तो एक वृद्ध महात्मा पर उनकी निगाह पड़ी जो तेजी के साथ प्रभाकरसिंह की तरह बढ़े आ रहे थे।

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