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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान

भूतनाथ के हाथ से छुटकारा पाकर प्रभाकरसिंह अपनी स्त्री से मिलने के लिये उस घाटी में चले गये जिसमें कला और बिमला रहती थी, सन्ध्या का समय था जब वे उस घाटी में पहुँचकर कला, बिमला और इन्दुमति से मिले उस समय वे तीनों बँगले के आगे सुन्दर मैदान में पत्थर की चट्टानों पर बैठी आपस में बात कर रही थीं।

प्रभाकरसिंह को देख कर वे तीनों बहुत प्रसन्न हुईं कई कदम आगे बढ़कर उनका इस्तकबाल किया तथा उसी जगह लाकर अपने पास बैठाया जहाँ वे सब बैठी हुई थीं।

बिमला : मैं भूतनाथ के हाथ से छुट्टी मिलने पर आपको मुबारकबाद देती हूँ वास्तव में इन्द्रदेव ने इस विषय में बड़ी चालाकी की, नहीं तो हम लोगों से गहरी भूल हो गई थी कि भूतनाथ की घाटी १ का रास्ता बन्द कर दिया था। उन्होंने साधु बन कर भूतनाथ को ऐसा धोखा दिया कि वह जन्म-भर याद रक्खेगा।

१. लामाघाटी का जिक्र चन्द्रकान्ता सन्तति में आ चुका है।

प्रभा० : बेशक ऐसी ही बात है, मुझे अभी थोड़ी देर हुई है यहाँ आते समय इन्द्रदेवजी रास्ते में मिले थे जो तुम्हारे पास होकर जा रहे थे, उन्होंने सब हाल मुझसे कहा था और उस समय भी वे उसी तरह साधु महात्मा बने हुए थे।

बिमला : जी हाँ, अब वे बराबर उसी सूरत में यहाँ आया करेगे, उनका खयाल है कि असली सूरत में आने-जाने से कभी न कभी भूतनाथ को जरूर पता लग जायगा और भूतनाथ उनसे खटक जायगा क्योंकि वह बड़ा ही चांगला है।

प्रभा० : उनका खयाल बहुत ही ठीक है, मुझ से भी ऐसा ही कहते थे। उन्होंने मुझसे यह भी पूछा था कि अब तुम्हारा क्या इरादा है, भूतनाथ का पीछा करोगे या नहीं? इसके जवाब में मैंने कहा कि भूतनाथ का पीछा करने की बनिस्बत मैं नौगढ़ के राजा से मिल कर चुनारगढ़ पर चढ़ाई करना अच्छा समझता हूँ क्योंकि राजा शिवदत्त से बदला लिए बिना मेरा जी ठिकाने न होगा और इस काम को मैं सबसे बढ़कर समझता हूँ इन्द्रदेवजी ने मेरी यह बात स्वीकार कर ली और इस विषय में जो-जो बातें मैंने सोची थीं उन्हें भी पसन्द किया।

इन्दु० : तो क्या अब आप नौगढ़ जाकर चुनार की लड़ाई में शरीक होंगे।

प्रभा० :हाँ मैं जरूर ऐसा ही करूँगा, आजकल कुमारी चन्द्रकान्ता की बदौलत बीरेन्द्रसिंह से और शिवदत्त से खूब खिंचाखिची हो रही है, मेरे लिए इससे बढ़कर और कौन-सा मौका मिलेगा!

बिमला : आप स्वयं फौज तैयार करके चुनार पर चढ़ाई कर सकते हैं इस काम में मैं आपकी मदद करूँगी वे सब अशर्फियाँ जो भूतनाथ को दिखाई गई थीं और पुनः ले ली गई मैं आपको दे सकती हूँ क्योंकि इन्द्रदेवजी ने सब मुझे दे दी हैं आप जानते ही हैं कि घाटी में जाने के लिए कई रास्ते हैं, इसी तरह उस खजानेवाली कोठरी में भी जाने के लिए एक रास्ता यहाँ से है और इसी रास्ते से हम लोग उन अशर्फियों को उठा लाये थे।

प्रभा० : मुझे मालूम है, यह हाल इन्द्रदेव से सुन चुका हूँ, मगर चुनार के विषय में मैं इस राय को पसन्द नहीं करता और न इस मामले में किसी से विशेष मदद ही लूगा। हाँ मेरे दोस्त गुलाबसिंह जरूर मेरा साथ देंगे मगर सुना है कि वे इस समय दलीपशाह के साथ कहीं गये हैं और दलीपशाह भी सुबह-शाम में यहाँ आने वाले हैं।

बिमला : भोलासिंह की सूरत बनाकर दलीपशाह जब से गए हैं तब से पुनः मुझसे नहीं मिले।

प्रभा० : क्या हुआ अगर नहीं मिले तो, इन्द्रदेवजी ने मुझसे कहा है कि वे कल तक यहाँ आवेंगे।

बिमला : मालूम होता है कि आपने इन्द्रदेव जी से अपने बारे में सब बाते तै कर ली हैं!

प्रभा० : हाँ जो कुछ मुझे करना है कम-से-कम उसके विषय में तो मैंने सभी बातें तै कर ली हैं।

बिमला : तो आप जरूर नौगढ़ जायँगे?

प्रभा० : जरूर।

बिमला : दूसरे ढंग से बदला नहीं लेंगे?

प्रभा० : नहीं।

इन्दु० : तब मैं कहाँ रहूँगी?

प्रभा० : तुम्हारे बारे में यह निश्चय हुआ है कि तुम्हें मैं तब तक के लिए जमानिया में राजा साहब के यहाँ रख दूँ क्योंकि इस समय वे ही मेरे बड़े और बुजर्ग जो कुछ हैं सो हैं।

बिमला : (चौंक कर) मगर ऐसा करने से तो मेरा भेद खुल जायगा।

प्रभा० : तुम्हारा भेद क्यों खुलेगा? मैं इन्द्रदेव से वादा कर चुका हूँ कि इन सब बातों का वहाँ कभी जिक्र तक न करूँगा, मेरी जुबानी तुम्हारा हाल उन्हें कभी मालूम न होगा, इन्दु को भी मैं ऐसा ही करने के लिए ताकीद करूँगा और तुम भी अच्छी तरह समझा देना। क्या मैं नहीं समझता कि तुम्हारा भेद खुल जाने से आपस में कई आदमियों की खटपट हो जायगी और बेदाग दोस्ती तथा मुहब्बत में बट्टा लग जायगा।

बिमला : अगर भूतनाथ किसी तरह इन्दु को वहाँ देख ले तो क्या होगा। क्योंकि वह अक्सर जमानिया जाया करता है?

प्रभा० : तब क्या होगा? भूतनाथ अपने मुँह से इन सब बातों का जिक्र कदापि न करेगा।

बिमला : मगर दुश्मनी तो जरूर करेगा, क्योंकि उसे इस बात का डर हो जायगा कि कहीं इन्दु इन सब बातों का भेद किसी से खोल न दे।

प्रभा० : एक तो वह जमानिया विशेष जाता ही नहीं है दूसरे अगर कभी गया भी तो महल के अन्दर उसकी गुजर नहीं होती, तीसरी अगर वह किसी तरह इन्दु को देख भी लेगा तो वहाँ कुछ गड़बड़ी करने की उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ेगी। फिर इसके अतिरिक्त और मैं कर ही क्या सकता हूँ, मेरे लिए दूसरा कौन-सा घर हैं? हाँ अपने साथ नौगढ़ ले चलूँ तो हो सकता है, वहाँ भूतनाथ को जाने का डर नहीं है।

इन्दु० : मेरा खयाल तो यही है कि जमानिया की बनिस्बत नौगढ़ में मैं ज्यादा निडर रहूँगी।

बिमला : तो आप इन्हें इसी जगह हमारे पास क्यों नहीं छोड़ जाते?

प्रभा० : यहाँ तुम लोग स्वयं ही तरद्दुद में पड़ी हुई हो, इसके सबब से और भी...

बिमला : नहीं-नहीं, इनके सबब से किसी तरह की तकलीफ मुझे नहीं हो सकती है, और फिर अगर मैं ज्यादे बखेड़ा देखूँगी तो इन्हें इन्द्रदेव के सुपुर्द कर दूँगी वे अपने घर ले जाएँगे।

प्रभा० : यह सब ठीक है, इन्द्रदेव का घर हमारे लिए सबसे अच्छा है और उन्होंने ऐसा कहा भी था कि अगर तुम्हारी राय हो तो इन्दु को मेरे घर पर रख सकते हो।

बिमला : तो बस यही ठीक रखिये और इन्हें मेरे पास छोड़ जाइये। प्रभाकरसिंह और कला, बिमला तथा इन्दुमति में इस विषय पर बड़ी देर तक बहस होती रही और अन्त में लाचार होकर प्रभाकरसिंह को बिमला की बात माननी पड़ी अर्थात इन्दुमति को बिमला ही के पास छोड़ देना पड़ा।

रात-भर प्रभाकरसिंह वहाँ रहे और प्रातःकाल सभों से मिल-जुल कर नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

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