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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान

रात आधी से ज्यादे बीत जाने पर भी कला, बिमला और इन्दुमति की आँखों में नींद नहीं है। न मालूम किस गम्भीर विषय पर यो तीनों विचार कर रही हैं! सम्भव है कि भूतनाथ के विषय ही में कुछ विचार कर रही हों, अस्तु जो कुछ हो इनकी बातचीत सुनने से मालूम होता हो जायगा।

इन्दु० :(बिमला की तरफ देख कर) बहिन, जब इस बात का निश्चय हो गया कि तुम्हारे पति को गदाधरसिंह (भूतनाथ) ने मार डाला है तब उसके लिए बहुत बड़े जाल फैलाने और सोच-विचार करने की जरूरत ही क्या है? जब वह कम्बख्त तुम्हारे कब्जे में आ गया है तो उसे सहज में ही मार कर बखेड़ा तै करो!

बिमला : (ऊँची साँस लेकर) हाय बहिन, तुम क्या कहती हो? इस कमीने को यों ही सहज में मार डालने से क्या मेरे दिल की आग बुझ जाएगी?

क्या कहा जायेगा कि मैंने इसे मार कर अपना बदला ले लिया? किसी को मार डालना और बात है और बदला लेना और बात है। इसने मेरे दिल को जो सदमा पहुँचाया है उससे सौ गुना ज्यादे दुःख इसे हो तब मैं समझूँ कि मैंने कुछ बदला लिया।

इन्दु० : बहिन, तुम खुद कह चुकी हो कि यह बहुत ही बुरी बला है अस्तु यदि वह तुम्हारे कब्जे से निकल गया या तुम्हारे असल भेद की खबर हो गई तो बहुत बुरा हो जायगा।

बिमला : बल्कि अनर्थ हो जाएगा। तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, मगर उसे हमारा भेद कुछ भी मालूम नहीं हो सकता और न यहाँ से निकल कर भाग ही जा सकता है।

इन्दु० : ईश्वर करे ऐसा ही हो मगर...

कला: कल इन्द्रदेवजी आयेंगे, उनसे राय करके कोई-न-कोई कार्यवाई बहुत जल्दी हो जायगी।

बिमला : मैं सोच रही हूँ कि तब तक उसकी (पड़ोस वाली) घाटी पर कब्जा कर लिया जाय, उसका सदर दरवाजा जिधर से वे लोग आते-जाते हैं बन्द कर दिया जाय, उसके आदमी सब मार डाले जायें और उसका माल-असबाब सब लूट लिया जाय और इन बातों की खबर भूतनाथ को भी दे दी जाय।

इन्दु० : बहुत अच्छी बात है।

बिमला : और इतना काम मैं सहज में ही कर सकूँगी।

इन्दु० : सो कैसे?

बिमला : तुम देखती रहो, सब काम तुम्हारे सामने ही तो होगा।

कला : हाँ, कल ही इस काम को करके छुट्टी पा लेनी चाहिए जिससे इन्द्रदेव जी आयें तो उनके दिल में भी ढ़ाढस पहुँचे।

बिमला : कल नहीं आज बल्कि इसी समय उस घाटी का रास्ता बन्द कर दिया जाय जिसमें लोग भाग कर बाहर न चले जायें।

इन्दु० : ऐसा हो जाय तो बहुत अच्छी बात है, मगर दूसरे के घर में तुम इस तरह की कार्रवाई...

बिमला : (मुस्करा कर) नहीं बहिन, तुम व्यर्थ सोच रही हो। बात यह है कि जिस तरह यह स्थान और घाटी जिसमें हम लोग रहती हैं इन्द्रदेवजी के अधिकार में है, उसी तरह वह घाटी भी जिसमें भूतनाथ रहता है इस घाटी का एक हिस्सा होने के कारण इन्द्रदेवजी के अधिकार में है। यह दोनों घाटी एक ही हैं, या यों कहो कि एक ही मकान का यह जनाना हिस्सा और वह मर्दाना हिस्सा है और इसलिए इन दोनों जगहों का पूरा-पूरा भेद इन्द्रदेवजी को मालूम है और उन्होंने जो कुछ भी मुझे बताया है मैं जानती हूँ।

इस बात की खबर भूतनाथ को कुछ भी नहीं है। यह घाटी जिसमें मैं रहती हूँ हमेशा बन्द रहती थी मगर उस घाटी का दरवाजा बराबर न जाने क्यों खुला ही रहता था, शायद इसका सबब यह हो कि उस घाटी में कोई जोखिम की चीज नहीं है और न कोई अच्छी इमारत ही है, अस्तु भूतनाथ यह भी नहीं जानता कि उस घाटी का दरवाजा कहाँ है तथा क्योंकर खुलता और बन्द होता है या इस स्थान का कोई मालिक भी है या नहीं। भूतनाथ को घूमते-फिरते इत्तिफाक से या और किसी वजह से यह घाटी मिल गई और उसने उसे अपना घर बना लिया और यह खबर इन्द्रदेवजी को और मुझको मालूम हुई तब उन्होंने मेरी इच्छानुसार यह स्थान मुझे देकर यहाँ के बहुत से भेद बता दिए। बस अब मैं समझती हूँ कि तुम्हें मेरी बातों का तत्व मालूम हो गया होगा।

इन्दु० : हाँ अब मैं समझ गई, ऐसी अवस्था में तुम जो चाहो सो कर सकती हो।

बिमला : अच्छा तो मैं जाती हूँ और जो कुछ सोचा है उस काम को ठीक करती हूँ।

इतना कह कर बिमला उठ खडी हुई और इन्दुमति तथा कला को उसी जगह बैठे रहने की ताकीद कर घर के बाहर निकलने लगी, मगर इन्दु ने साथ जाने के लिए जिद्द की और बहुत कुछ समझाने पर भी न मानी, लाचार बिमला इन्दु को साथ ले गई और कला को उसी जगह छोड़ गई।

भूतनाथ का साथ छोड़कर प्रभाकरसिंह के इस घाटी में आने का हाल हमारे पाठक भूले न होंगे, उन्हें याद होगा कि भूतनाथ की घाटी के अन्दर जाने वाली सुरंग के बीच में एक चौमुहानी थी जहाँ पर प्रभाकरसिंह ने भूतनाथ और इन्दुमति का साथ छोड़ा था और कला तथा बिमला के साथ दूसरी राह पर चल पड़े थे, आज इन्दुमति को साथ लिए बिमला पुनः उसी जगह जाती है।

उस सुरंग के अन्दर वाली चौमुहानी से एक रास्ता तो भूतनाथ की घाटी के लिए था, दूसरा रास्ता सुरंग के बाहर निकल जाने के लिए था, और तीसरा तथा चौथा रास्ता (या सुरंग) कला और बिमला के घाटी में आने के लिये था, एक रास्ता तो ठीक उस घाटी में जाता था जिधर से प्रभाकरसिंह आए थे और दूसरा रास्ता बिमला के महल में जाता था।

बिमला के घर आने वाले दोनों रास्ते एक रंग-ढंग के बने हुए थे और इनके अन्दर के तिलिस्मी दरवाजे थे एक ही तरह के तथा गिनती में एक बराबर थे, अस्तु एक सुरंग का हाल पढ़ कर पाठक समझ जायेंगे कि दूसरी तरफ वाली सुरंग की अवस्था भी वैसी ही है और जो बिमला के घर को जाती है।

उस सुरंग की चौमुहानी पर पहुँच कर जब बिमला की घाटी से आने वाली सुरंग की तरफ बढ़िये तो कई कदम जाने के बाद एक (कम ऊँची) दहलीज मिलेगी जिसके अन्दर पैर रख कर ज्यों-ज्यों आगे बढ़िये त्यों-त्यों वह दहलीज ऊँची होती जायगी, यहाँ तक कि बीस-पचीस कदम आगे जाते-आते वह दहलीज ऊँची होकर सुरंग की छत के साथ मिल जायगी और फिर पीछे को लौटने के लिए रास्ता न रहेगा, उसके पास ही दाहिनी तरफ दीवार के अन्दर एक पेंच है जिसे कायदे के साथ घुमाने पर वह दरवाजा खुल सकता है।

अगर वह पेंच न घुमाया जाय और दहलीज के अन्दर कोई न हो, और जाने वाला आगे निकल गया हो, तो खुद-बखुद भी वह रास्ता बारह घण्टे के बाद खुल जायगा और वह दहलीज धीर-धीरे नीची होकर करीब-करीब जमीन के बराबर अर्थात् ज्यों-की-त्यों हो जायगी।

रास्ता कैसा पेचीदा और तंग है इसका हाल हम चौथे बयान में लिख आए हैं पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। लगभग तीन सौ कदम जाने के बाद एक और बन्द दरवाजा मिलेगा जो किसी पेंच के सहारे पर खुलता और बन्द होता है। पेंच घुमा कर खोल देने पर भी उसके दोनों पल्ले अलग नहीं होते, भिड़के रहते हैं। हाथ का धक्का दीजिये तो खुल जायेंगे और कुछ देर बाद आप से आप बन्द भी हो जायेंगे मगर पुनः दूसरी बार केवल धक्का देने से वह दरवाजा न खुलेगा असल पेंच दरवाजा खोलने और बन्द करने के लिए बने हुए थे और इसका हाल भूतनाथ को कुछ भी मालूम न था।

इसके अतिरिक्त उस सुरंग का सदर दरवाजा भी (जिसके अन्दर घुसने के बाद चौमुहानी मिलती थी) बन्द हो सकता था और यह बात बिमला के अधीन थी। केवल इतना ही नहीं, उस चौमुहानी से भूतनाथ की घाटी की तरफ जाने वाली सुरंग में भी एक दरवाजा (इन दोनों सुरंगों की तरफ) था और उसका हाल भी यद्यपि भूतनाथ को तो मालूम न था मगर बिमला उसे भी बन्द कर सकती थी।

इन्दु को साथ लिए हुए बिमला उसी सुरंग में घुसी और उस सुरंग के भेद इन्दु को समझाती तथा दरवाजा खोलती और बन्द करती हुई उस चौमुहानी पर पहुँची जिसका हाल ऊपर कई दफे लिखा जा चुका है और जहाँ प्रभाकरसिंह ने इन्दु का साथ छोड़ा था। वहाँ पहुँच कर कुछ देर के लिए बिमला अटकी और आहट लेने लगी कि भूतनाथ की घाटी में आने वाला कोई आदमी तो इस समय इस सुरंग में मौजूद नहीं है। जब सन्नाटा मालूम हुआ और किसी आदमी के वहाँ होने का गुमान न रहा तब वह भूतनाथ वाली घाटी की तरफ जो रास्ता गया था उस सुरंग में घुसी और दस-बारह कदम जाने के बाद दीवार के अन्दर बने हुए किसी कल-पुरजे को घुमा कर उस सुरंग का रास्ता उसने बन्द कर दिया। लोहे का एक मोटा तख्ता दीवार के अन्दर से निकला और रास्ता बन्द करता हुआ दूसरी दीवार के अन्दर घुस कर अटक गया।

इसके बाद बिमला सुरंग के सदर दरवाजे पर दरवाजे बन्द करने के लिए पहुँची ही थी कि सुरंग के अन्दर घूमते हुए भूतनाथ के शागिर्द भोलासिंह पर निगाह पड़ी और उसने भी इन दोनों औरतों को देख लिया। वह इन्दु को अच्छी तरह से देख चुका था।

अस्तु निगाह पड़ते ही पहिचान गया और आश्चर्य के साथ देखता हुआ बोला—‘‘आह, मेरी रानी तुम यहाँ कहाँ? तुम्हारे लिए तो हमारे गुरुजी बहुत परेशान हैं!!

इस जगह बखूबी उजाला था इसलिए इन्दु ने भोलासिंह को और भोलासिंह ने इन्दु को बखूबी पहिचान लिया। इन्दु पर क्या-क्या मुसीबतें गुजरीं और प्रभाकरसिंह कहाँ गए इन बातों की खबर भोलासिंह को कुछ भी न थी, इसलिए वह इस समय इन्दु को देख कर खुश हुआ और ताज्जुब करने लगा। इन्दु ने धीरे से बिमला को समझाया कि यह भूतनाथ का शागिर्द है।

इन्दु उसे पहिचानती थी सही मगर नाम कदाचित् नहीं जानती थी। वह उसकी बात का जवाब दिया ही चाहती थी कि बिमला ने उंगली दबाकर उसे चुप रहने का इशारा किया और कुछ आगे बढ़ कर कहा, ‘‘तुम्हारे गुरुजी ने इन्हें मौत के पंजे से छुड़ाया और इनकी बदौलत उसी आफत से मेरी भी जान बची है!’’

भोला० : गुरुजी कहाँ हैं?

बिमला : हमारे साथ आओ और उनसे मुलाकात करके सुनो कि उन्होंने इस बीच में कैसे-कैसे अनूठे काम किए हैं।

भोला० : चलो-चलो, मैं बहुत जल्द उनसे मिलना चाहता हूँ।

बिमला ने इन्दु को अपने आगे किया और भोलासिंह को पीछे आने का इशारा कर अपनी घाटी की तरफ रवाना हुई।

बिमला इस सुरंग का सदर दरवाजा बन्द न कर सकी, खैर इसकी उसे ज्यादे परवाह भी न थी। चौमुहानी से जो भूतनाथ की घाटी की तरफ रास्ता बन गया था उसी को बन्द कर उसने सन्तोष लाभ कर लिया।

बिमला के पीछे-पीछे चल कर भोलासिंह उस चौमुहाने तक पहुँचा मगर जब बिमला अपनी घाटी की तरफ अर्थात् सामने वाली सुरंग में रवाना हुई तब भोला सिंह रुका और बोला, ‘‘इस तरफ तो हमारे गुरुजी कभी जाते न थे और उन्होंने दूसरों को भी इधर जाने को मना कर दिया था। आज वे इधर कैसे गए!’’

बिमला : हाँ, पहिले उनका शायद यही खयाल था मगर आज तो इसी मकान में बैठे हुए हैं।

भोला० : क्या इसके अन्दर कोई मकान है?

बिमला : हाँ, बहुत ही सुन्दर मकान है।

भोला० : कितनी दूरी पर?

बिमला : बहुत थोड़ी दूरी पर, तुम आओ तो सही।

‘‘ये दोनों औरतें बेचारी भला मेरे साथ क्या दगा करेंगी!’’ यह सोच कर भोलासिंह आगे बढ़ा और इनके साथ सुरंग के अन्दर घुस गया।

जो हाल प्रभाकरसिंह का इस सुरंग में हुआ था वही हाल इस समय भोलासिंह का हुआ अर्थात् पीछे की तरफ लौटने का रास्ता बन्द हो गया और बिमला तथा इन्दु के आगे बढ़ जाने तथा चुप हो जाने के कारण वह जोर-जोर से पुकारने और टटोल-टटोल कर आगे की तरफ बढ़ने लगा।

प्रभाकरसिंह को इसके आगे का दरवाजा खुला हुआ मिला था मगर भोलासिंह को आगे का दरवाजा खुला हुआ न मिला। उसे दोनों दरवाजों के अन्दर बन्द करके बिमला और इन्दु अपने डेरे की तरफ निकल गईं।

 

।। पहिला भाग समाप्त ।।

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