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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान

रात लगभग ग्यारह घड़ी के जा चुकी है। भूतनाथ, गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह उत्कंठा के साथ उस (अगस्तमुनि की) मूर्ति की तरफ देख रहे हैं। एक आले पर मोमबत्ती जल रही है जिसकी रोशनी में उस मन्दिर के अन्दर की सभी चीजें दिखाई दे रही हैं। भूतनाथ और गुलाबसिंह का कलेजा उछल रहा है कि देखें अब यह मूर्ति क्या बोलती है।

यकायक कुछ गाने की आवाज आई, ऐसा मालूम हुआ मानो मूर्ति गा रही है, सब कोई बड़े गौर से सुनने लगे :—

।। बिरहा ।।

सबहिं दिन नाहिं बराबर जात।

कबहूँ कला बला पुनि कबहूँ कबहूँ करि पछितात

कबहूँ राजा रंक पुनि कबहूँ ससि उड्गन दिखलात...

पै करनी अपनी सब चाखै, फल बोये को खात।

अनरथ करम छिपै नहिं कबहूँ, अन्त सबै खुल जात...

सबहि दिन नाहिं बराबर जात।

इसके बाद मूर्ति इस तरह बोलने लगी :

‘‘आहा! आज मैं अपने सामने किस-किस को बैठा देख रहा हूँ? महात्मा प्रभाकरसिंह! धर्मात्मा गुलाबसिंह! मैं अभी धर्मात्मा कैसे कहूँ. क्या सम्भव है कि भविष्य में भी यह धर्मात्मा बना रहेगा?

‘‘खैर जो कुछ होगा देखा जायेगा. हाँ, यह तीसरा आदमी मेरे सामने कौन था! वही गदाधरसिंह जिसने एकदम से अपनी काया पलट कर दी और एक सुन्दर नाम को छोड़ के भूतनाथ नाम से प्रसिद्ध होना पसन्द किया! आह, दुनिया में किसी पर विश्वास और भरोसा न करना चाहिए और न किसी की मित्रता पर किसी को घमण्ड करना चाहिए. क्या दयाराम को स्पप्न में भी इस बात का गुमान रहा होगा कि मैं अपने दोस्त गदाधरसिंह के हाथ मारा जाऊँगा, दोस्त ही नहीं बल्कि गुलाम और ऐयार गदाधरसिंह!!’’

मूर्ति की यह बात सुनकर भूतनाथ का कलेजा दहल उठा और गुलाबसिंह तथा प्रभाकरसिंह आश्चर्य के साथ भूतनाथ का मुँह देखने लगे. मूर्ति ने फिर इस तरह कहना शुरू किया :—

‘‘अफसोस! अपनी चूक का प्रायश्चित करना उचित था न कि ढंग बदल कर पुनः पाप में लिप्त होना. भूतनाथ, क्या तुम समझते हो कि इस दुष्कर्म का अच्छा फल पाओगे? क्या तुम समझते हो कि गुप्त रह कर पृथ्वी का आनन्द लूटोगे? क्या तुम समझते हो कि बेईमान दारोगा से मिल कर स्वर्ग की सम्पत्ति लूटोगे और मायारानी की बदौलत कोई अनमोल पदार्थ पा जाओगे? नहीं-नहीं, कदापि नहीं!

गदाधरसिंह, तुम्हारी किस्मत में दुःख भोगना बदा है अस्तु भोगो, जो जी में आवे करो मगर ऐ गुलाबसिंह, तुम इस दुष्ट का साथ क्यों दिया चाहते हो जो बिना कमन्द लगाए आसमान पर चढ़ जाने का हौसला करता है, खुद गिरेगा और तुम्हें भी गिरावेगा, और ऐ प्रभाकरसिंह, तुम अब अपनी आँखों के आँसू पोंछ डालो, इन्दुमति को बिलकुल भूल जाओ, अपने कातर हृदय को ढाढ़स देकर वीरता का स्मरण करो, दुनिया में कुछ नाम पैदा करो.

यदि तुम धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ चलोगे तो मैं बराबर तुम्हारी सहायता करता रहूंगा। मैं तुम्हें सलाह देता हूँ कि तुम अवश्य उस पथ का अवलम्बन करो जो मैं तुमसे उस दिन कह चुका हूँ, खबरदार, अपने भेद का मालिक आप बने रहो और किसी दूसरे को उसमें हिस्सेदार मत बनाओ। क्या तुम्हें मुझसे और कुछ पूछना है?’’

इतना कहकर मूर्ति चुप हो गई और प्रभाकरसिंह ने उससे सवाल किया :

प्रभा० : मुझे यह पूछना है कि मैं किसी को अपना साथी बनाऊँ या न बनाऊँ?

मूर्ति : बनाओ और अवश्य बनाओ। पहिली बरसात के दिन एक आदमी से तुम्हारी मुलाकात होगी, उसे तुम अपना साथी बनाओगे तो शुभ होगा, अच्छा और कुछ पूछोगे?’’

भूत० : अब मैं कुछ पूछूँगा।

मूर्ति : पूछो क्या पूछते हो?

भूत० : पहिले यह बताओ कि अब आप किस दिन और किस समय बोलेंगे?

मूर्ति : यदि तुम्हारी नीयत खराब न हुई और तुमने कोई उत्पात न मचाया तो इसी अमावस वाले दिन सोलह घड़ी रात बीत जाने के बाद हम पुनः बोलेंगे।

गुलाब० : हमें भी कुछ पूछना है।

तुम्हारी बातों का जवाब आज नहीं मिल सकता, हाँ यदि तुम चाहो तो आज के अठारहवें दिन इसी समय यहाँ आ सकते हो परन्तु अकेले।

गुलाब० : अच्छा तो अब यह बताइये कि हम भूतनाथ के मेहमान बने रहे या...

मूर्ति : नहीं, अगर अपनी भलाई चाहते हो तो दो पहर के अन्दर भूतनाथ का साथ छोड़ दो और प्रभाकरसिंह की आज्ञानुसार काम करो, बस अब कुछ मत पूछो।

इसके बाद मूर्ति ने बोलना बन्द कर दिया। भूतनाथ, गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह ने कई तरह के सवाल किए मगर मूर्ति ने कुछ जवाब न दिया अस्तु तीनों आदमी मन्दिर के बाहर निकले और सभा-मंडप में बैठ कर यों बातचीत करने लगे :—

गुलाब० : क्यों भूतनाथ, यह तो हमें एक नई बात मालूम हुई, मैं स्वप्न में भी नहीं जान सकता था कि दयारामजी को तुमने मारा होगा! अफसोस!!

भूत० : गुलाबसिंह, आश्चर्य की बात है कि तुम इतने बड़े होशियार होकर इस पत्थर की मूर्ति की बातों में फंस गए और जो कुछ उसने कहा उसे सच समझने लगे। इतना भी नहीं विचारा कि यह असम्भव बात वास्तव में क्या है?

निःसन्देह यह धोखे की टट्टी है और इसमें कोई अनूठा रहस्य है बल्कि यों कहना चाहिए कि यह कोई तिलिस्म है और इसका परिचालक (इस समय जो भी हो) जरूर हमारा दुश्मन है।

गुलाब० : नहीं-नहीं भूतनाथ, अब तुम हमें धोखे में डालने की कोशिश मत करो और न अब हम लोग तुम्हारी बातों पर विश्वास ही कर सकते हैं। ऐसी आश्चर्यमय और अनूठी घटना का प्रभाव जैसा हम लोगों के ऊपर पड़ा उसे हमींलोग जान सकते हैं।

भूत० : खैर, तुम जानो, जो जी में आये करो और जहाँ चाहो चले जाओ, मैं तुम्हें अपने पास रहने के लिए जोर नहीं देता, मगर तुम दोस्त हो अस्तु निश्चिन्त रहो, मैं तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूँगा।

इसके बाद इन तीनों में किसी तरह की बातचीत न हुई, गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह पूरब की तरफ रवाना हुए और भूतनाथ ने पश्चिम की तरफ का रास्ता लिया।

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