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1857 का संग्राम

वि. स. वालिंबे

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8316
आईएसबीएन :9781613010327

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संक्षिप्त और सरल भाषा में 1857 के संग्राम का वर्णन

सभी लोग कानपुर जल्द से जल्द छोड़ना चाहते थे। लेकिन अचानक नदी के ऊपरी हिस्से से तोपखाने से गोले बरसने शुरू हो गये। बागी सिपाहियों ने नौकाओं पर हमला बोल दिया था। नाविक पानी में कूद पड़े। अब इस हाल में अंग्रेज पल भर भी रुकना नहीं चाहते थे। उन्होंने नौकाएं पानी में धकेल दीं। बंदूकों से गोलीबारी हो रही थी। औरतें, बच्चे चीख रहे थे। अंग्रेज औरतों ने बच्चों को लेकर अपने आपको पानी में धकेल दिया। कुछ औरतें पानी में बह गयीं। अब उन्हें कोई आसरा नहीं मिल रहा था। बागी सिपाही घाट की ओर दौड़ पड़े। किनारे पर पहुंचे अंग्रेजों को घेर लिया गया। सिपहियों ने व्हीलर के गर्दन पर घाव करके उसे मार डाला। नौकाओं में चढ़ाया गया सामान लूट लिया गया। घुड़सवारों ने कत्लेआम शुरू कर दिया।

 गंगा का पानी खून से लाल हो गया था। बहुत-से अंग्रेज स्त्री-पुरुष मारे गये। अनेक अंग्रेज घायल हुए। कुछ अंग्रेज जान बचाकर सूरजपुर पहुंचे। बागी सिपाहियों ने उनका पीछा किया। वे लोग जंगल में घुस गये। उनमें सिर्फ चार अंग्रेज पैदल इलाहाबाद पहुंच पाये। बाकी अंग्रेजों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। सतीचौरा घाट के कत्ल में सौ अंग्रेज औरतें बच पायीं। नाना साहब के हुक्म से उनको ‘सावदा हाउस’ भवन में शरण मिली। नाना साहब का सख्त आदेश था कि इन औरतों की इज्जत की रक्षा की जाये। सावदा हाउस बहुत छोटा था। तब इस भवन के पास ‘बीबी घर’ में सबको भेजा गया।

फतेहगढ़ से भागी हुई अंग्रेज औरतों को बागी सिपाहियों ने नवाबगंज में पकड़ लिया था। इन औरतों को भी बीबी घर में आश्रय मिला। बीबी घर में ये औरतें चटाई पर सोती थीं। उन्हें दाल-चपाती और बच्चों को दूध दिया जाता था। 27 जून को सतीचौरा घाट हत्याकांड हुआ था। दो दिनों के बाद नाना साहब बिठूर के लिए निकल पड़े। वहां जाकर वे अपने पिताजी की गद्दी समारोहपूर्वक ग्रहण करनेवाले थे। बिठूर में राजतिलक समारोह आयोजित किया गया था। कानपुर में दीवाली मनायी जा रही थी। 1857 के जून महीने में नाना साहब के पराक्रमों का बोलबाला था। जून के अंतिम दिन उनके माथे पर राज मुकुट पहनाया गया। उनकी मनोकामना पूरी हुई। इसके बावजूद उनके मन में अशांति छायी रही।

बीबी घर में महामारी फैलने से पच्चीस औरतों की मृत्यु हो गयी। नाना साहब ने उनके इलाज के लिए डाक्टर को नियुक्त किया। अब मृत्यु का तांडव थम गया था। उनके मन से एक बोझ कम हो गया।

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